हरित क्रांति
दूसरी पंचवर्षीय योजना की दूसरी छमाही में, फोर्ड फाउंडेशन द्वारा कृषि उत्पादन एवं दक्षता को बढ़ावा देने एवं विविध तरीकों का प्रस्ताव प्रायोजित करने के लिए भारत सरकार द्वारा विशेषज्ञों की एक टीम को आमंत्रित किया. विशेषज्ञ दल की सिफारिशों के अनुसार भारत सरकार द्वारा वर्ष 1960 में चयनित 7 जिलों में एक व्यवस्थित कार्यक्रम की शुरुआत की गयी. इस कार्यक्रम को आई.ए.डी.पी (समन्वित क्षेत्रीय विकास कार्यक्रम) के नाम से जाना गया.
1960 का मध्य दशक, कृषि के विकास की दृष्टि से बहुत उल्लेखनीय काल था. इस अवधि में प्रो नॉर्मन बोरलॉग द्वारा गेहूं की नई उच्च-उपज देने वाली किस्मों का विकास किया गया. इसके अलावा कई अन्य देशों द्वारा भी इन उच्च उपज देने वाली प्रजातियों को अपनाया गया. दक्षिणी देशों और दक्षिण पूर्व एशिया के देशों नें इसे व्यापक पैमाने पर अपनाना शुरू कर दिया था. इस नए 'कृषि नीति' को उच्च उपज देने वाली प्रजाति कार्यक्रम का नाम दिया गया.
हरित क्रांति का प्रभाव
उच्च उपज देने वाली प्रजाति कार्यक्रम को सिर्फ 5 फसलों के व्यापक उत्पादन के ऊपर केंद्रीकृत किया गया.
• चावल
• गेहूं
• ज्वार
• मक्का
• बाजरा
नतीजतन नई रणनीति के तहत सिर्फ खाद्यान्न फसलों के उत्पादन पर ध्यान केंद्रीकृत किया गया और गैर खाद्यान्न फसलो का पूरी तरह से कृषि से निष्कासन हो गया. बाद के दिनों के लिए भी सिर्फ गेहूं का उत्पादन ही इस नयी रणनीति के तहत हॉटअ रहा. और कृषि क्रांति का असली लाभ सिर्फ गेहूं को मिला.
कृषि की विकास दर में मंदी का मुख्य कारण क्या थे- सुधार अवधि:-
• कृषि में सार्वजनिक और सामान्य निवेश में महत्वपूर्ण मंदी
• घटता खेत का आकार
• नई प्रौद्योगिकियों को विकसित करने में विफलता
• सिंचाई व्यवस्था के विस्तार में कमी
• प्रौद्योगिकी के अपर्याप्त उपयोग
• इनपुट का कम उपयोग
• योजना परिव्यय में निम्नता की स्थति.
• ऋण वितरण व्यवस्था में खामियां.
और जानने के लिए पढ़ें: