जलियांवाला बाग नरसंहार के 102 साल: जनरल डायर ने गोली चलाने का आदेश क्यों दिया था?

आज से 102 साल पहले 13 अप्रैल 1919 को बैसाखी के दिन पंजाब प्रांत के अमृतसर में जलियांवाला बाग में मौजूद सैकड़ों बेकसूर और निहत्थे प्रदर्शनकारियों को जनरल डायर ने मौत के घाट उतार दिया था।
102 years of Jallianwala Bagh massacre
102 years of Jallianwala Bagh massacre

भारत के इतिहास में 13 अप्रैल का दिन एक काले दिवस के रूप में दर्ज है। आज से 102 साल पहले 13 अप्रैल 1919 को बैसाखी के दिन पंजाब प्रांत के अमृतसर में जलियांवाला बाग में मौजूद सैकड़ों बेकसूर और निहत्थे प्रदर्शनकारियों को जनरल डायर ने मौत के घाट उतार दिया था। 

क्या हुआ था 13 अप्रैल 1919 को?

दरअसल, रौलेट एक्ट का भारतीयों द्वारा विरोध किया जा रहा था। महात्मा गांधी ने इस एक्ट के खिलाफ देशव्यापी हड़ताल का आह्वान किया था। गांधी जी के इस आह्वान के बाद मार्च के अंत और अप्रैल की शुरुआत में देशभर में कई प्रदर्शन हुए थे। इसी के मद्देनज़र ब्रितानी हुकूमत ने कर्फ्यू लगा दिया था और नियम का पालन न करने वालों को सज़ा देने का ऐलान किया था।

13 अप्रैल 1919 को रौलेट एक्ट और सत्यपाल व सैफुद्दीन किचलू की गिरफ्तारी के विरोध में जलियांवाला बाग में एक सभा आयोजित की गई थी। इस सभा में कुछ नेता भाषण भी देने वाले थे। कर्फ्यू लगने बावजूद हजारों की संख्या में लोग सभा स्थल पहुंचे थे। इनमें वे लोग भी शामिल थे जो बैसाखी के मौके पर परिवार के साथ मेला देखने आए थे और सभा की जानकारी मिलते ही जलियांवाला बाग पहुंच गए थे।

जनरल डायर ने दिया गोली चलाने का आदेश

जिस वक्त नेता लोगों को भाषण दे रहे थे, उस वक्त जनरल डायर 90 ब्रितानी सैनिकों को जलियांवाला बाग लेकर पहुंच गया था। इन सभी सैनिकों के पास राइफलें थीं। कुछ ही देर में इन सैनिकों ने जलियांवाला बाग को घेर लिया और बिना किसी चेतावनी के बाग में मौजूद सैकड़ों निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर गोलियां दागनी शुरू कर दीं। 10 मिनट तक ब्रितानी सैनिक बेकसूर भारतीयों पर गोलियां दागते रहे और 1650 राउंड फायर किए।

चूंकि बाग को चारों ओर से ब्रितानी सैनिकों ने घेर रखा था इस वजह से प्रदर्शनकारियों को वहां से भागने का मौका नहीं मिला। कई लोग अपनी जान बचाने के लिए वहां मौजूद एकमात्र कुंए में कूद गए और कुछ ही मिनटों में वह कुंआ भी लाशों से पट गया। शहर में कर्फ्यू लगने की वजह से घायलों का इलाज नहीं कराया जा सका और उन्होंने वहीं तड़प-तड़प कर दम तोड़ दिया। 

जनरल डायर ने अपने पक्ष में क्या कहा?

इस नरसंहार को अंजाम देने के बाद जनरल डायर ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों को टेलीग्राम के माध्यम से बताया कि उस पर भारतीयों की एक फौज ने हमला कर दिया था। अपनी जान बचाने के लिए उसे गोलियां चलानी पड़ीं। इस टेलीग्राम के उत्तर में ब्रिटिश लेफ़्टिनेण्ट गवर्नर मायकल ओ डायर ने जनरल डायर द्वारा उठाए गए कदम को सही ठहराया। इसके बाद  ब्रिटिश लेफ़्टिनेण्ट गवर्नर मायकल ओ डायर ने अमृतसर और अन्य क्षेत्रों में मार्शल लॉ लगाने की मांग की जिसे वायसरॉय लॉर्ड चेम्सफ़ोर्ड ने स्वीकृति दी थी। 

"इतने सारे लोग जो अमृतसर की स्थिति जानते थे, कहते हैं कि मैंने सही किया ... लेकिन कई अन्य लोगों ने कहा कि मैंने गलत किया। मैं केवल अपने निर्माता से जानना चाहता हूं कि मैंने सही या गलत किया," उन्होंने कथित तौर पर अपनी मृत्यु के पहले कहा था।

जनरल डायर ने गोली चलाने का आदेश क्यों दिया था?

जलियांवाला बाग नरसंहार पर जनरल डायर ने अपने बचाव में कहा कि उसने अपने सैनिकों को बैठक को तितर-बितर करने के लिए नहीं बल्कि भारतीयों की अवज्ञा के लिए दंडित करने के लिए गोली चलाने का आदेश दिया। ब्रिटिश सरकार में कई नेताओं ने डायर के इस कदम की प्रशंसा और कई ने आलोचना की थी। 

हंटर कमीशन की रिपोर्ट

सन् 1919 के अंत में विश्वव्यापी निंदा के चलते भारत के लिए सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट एडविन मॉण्टेगू द्वारा इस हत्याकांड की जांच हेतु हंटर कमिशन नियुक्त किया गया था।  जनरल डायर ने इस कमिशन के सामने स्वीकारा की वे लोगों को मार देने के इरादे से जलियांवाला बाग पहुंचा था। हंटर कमीशन की रिपोर्ट आने के बाद जनरल डायर को पदावनत कर के कर्नल बना दिया गया और अक्रिय सूची में रख दिया गया था। इसके साथ ही उसे वापस ब्रिटेन वापस भेज दिया गया। सन् 1920 में ब्रिटिश सरकार ने निंदा प्रस्ताव पारित किया जिसके बाद जनरल रेजीनॉल्ड डायर को इस्तीफ़ा देना पड़ा था। 23 जुलाई, 1927 को एक सेरेब्रल रक्तस्राव के कारण जनरल डायर का निधन हो गया था।

जलियांवाला बाग नरसंहार में कितने लोग मारे गए थे?

अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर कार्यालय में 484 शहीदों की सूची है, जबकि जलियांवाला बाग में कुल 388 शहीदों की सूची है। ब्रिटिश राज के अभिलेख इस घटना में 200 लोगों के घायल होने और 379 लोगों के शहीद होने की बात स्वीकार करते हैं। अनाधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, 1000 से अधिक लोग शहीद हुए और 2000 से अधिक घायल हुए।

ये नरसंहार भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। ऐसा माना जाता है कि यह घटना ही भारत में ब्रिटिश शासन के अंत की शुरुआत बनी। रवींद्रनाथ टैगोर और महात्मा गांधी ने भी हमले की निंदा की और ब्रिटिश नाइटहुड और कैसर-ए-हिंद पदक को त्याग दिया।

1997 में महारानी एलिज़ाबेथ ने इस स्मारक पर मृतकों को श्रद्धांजलि दी थी। 2013 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरॉन भी इस स्मारक पर आए थे। विजिटर्स बुक में उन्होंनें लिखा था कि "ब्रिटिश इतिहास की यह एक शर्मनाक घटना थी।"

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