सन् 1911 में डॉक्टर सुन यात-सेन (Sun Yat-sen) के नेतृत्व में हुई क्रांति ने चीन में "छिंग राजवंश" का तख्ता उलट दिया और चीन गणराज्य स्थापित हुआ था. हालंकि इस तख्ता पलट का भी चीन के लोगों को कोई फायदा नहीं हुआ था क्योंकि जनता सत्तारुढ़ पार्टी कोमिंगतांग के कुशासन तले परेशान थी. इस कुशासन के विरुद्ध चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने आन्दोलन छेड़ दिया था. सन् 1949 में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की अगुवाई में चीन कोमिंगतांग शासन से मुक्त हुआ और चीन में लोक गणराज्य की स्थापना हुई थी. ज्ञातव्य है कि भारत को आजादी चीन से 2 साल पहले ही मिल गयी थी.
क्या आप जानते हैं कि जब 1942 में भारत छोडो आन्दोलन अपने पूरी तेजी पर था तो चीन भी भारत के इस क्रन्तिकारी कदम का सपोर्ट कर रहा था. चीन और तब के अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट, ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री चर्चिल पर दबाव बना रहे थे कि भारत को जल्दी से जल्दी आजाद करो. लेकिन फिर अचानक भारत और चीन के सम्बन्ध ख़राब कैसे हो गये. आइये इस लेख के माध्यम से जानते हैं.
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तिब्बत का इतिहास:
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि तिब्बत एक स्वतंत्र देश था, सन् 1821 के चीन -तिब्बत युद्ध में तिब्बत की जीत हुई थी. तिब्बत-चीन का मुख्य शासक भी रहा है. भारत में अंग्रेजी राज के समय तिब्बत में भारतीय मुद्रा चलन में थी. वर्ष 1949 में चीन को आजादी मिली और माओ ज़ेडोंग के नेतृत्व में चीनी कम्युनिस्ट सरकार सत्ता में आ गयी थी.
माओ को लगा कि तिब्बत पर कब्ज़ा किये बिना चीन की आजादी अधूरी है तो चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने 7 अक्टूबर 1950 को तिब्बत पर हमला कर दिया और 19 अक्टूबर तक तिब्बत के 5000 सैनिकों ने चीनी सेना के सामने समर्पण कर दिया था और चीन-तिब्बत के बीच 17 सूत्रीय समझौता हुआ. इसमें धार्मिक, सांस्कृतिक, बोलने की अभिव्यक्ति जैसे मामले भी शामिल थे.
चीन का लक्ष्य तिब्बत को अपना उपनिवेश बनाकर वहां पर कम्युनिस्ट शासन स्थापित करना था. इसी हमले के बाद दलाई लामा ने अपनी जान की रक्षा करने के लिए 30 मार्च 1959 को असम में तेजपुर पहुंचे थे. इस बीच उनके 80 हजार अनुयायी भी भारत में शरण लेने पहुँच गए थे. कुछ समय बाद उन्होंने भारत के धर्मशाला (जिसे "लिटिल ल्हासा" भी कहा जाता है) में निर्वासित तिब्बत सरकार की स्थापना की थी.
दलाई लामा और उनके 80 हजार अनुयायियों को शरण देने के कारण चीन, भारत से नाराज हो गया. बस यहीं से शुरुआत होती है भारत और चीन के बीच कड़वे रिश्तों की. चीन को लगा कि भारत उसके आंतरिक मामलों में दखल दे रहा है इसलिए इसे सबक सिखाना जरूरी है. इसके बाद ही चीन ने भारत के खिलाफ 1965 में एकतरफ़ा युद्ध छेड़ दिया था. चूंकि यह युद्ध अचानक शुरू हुआ था इसलिए भारत की सेना लड़ाई के लिए तैयार नहीं थी और परिणामतः चीन ने भारत के कुछ हिस्सों पर कब्ज़ा करने के बाद एकतरफा युद्ध बंद भी कर दिया था.
इसके बाद में राजनीतिक घटना क्रम में चीन की सरकार ने भारत से दलाई लामा को उसे सौंपने को कहा लेकिन भारत ने मना कर दिया और बाद में दोनों देश इस बात पर राजी हुए कि भारत दलाई लामा को अपनी जमीन से चीन के विरुद्ध गतिविधियाँ चलाने की अनुमति नहीं देगा.
वर्तमान में भी दलाई लामा और भारत चाहते हैं कि चीन, तिब्बत को उसके अंतर्गत एक स्वायत्त क्षेत्र के रूप में मान्यता दे और उसको धर्म और स्थानीय शासन के मामलों पर पूर्ण स्वतंत्रता दे. लेकिन चीन ने इस प्रस्ताव को मानने से इंकार कर रहा है.
चीन के कब्जे से पहले तिब्बत में 6000 से ज्यादा बौद्धमठ थे, अब 100 भी नहीं बचे है. जो व्यक्ति पवित्र दलाई लामा के चित्र घरों में लगाते हैं उन तिब्बतियों को चीनी सैनिक, देशद्रोही करार देते हैं और उन पर अत्याचार किया जाता है. पिछले पांच दशकों में ल्हासा में लाखों मुसलमानों को छोटे- छोटे कस्बों में बसाया जा रहा है और तिब्बत के हान प्रान्त में लोगों को बसाना शुरू कर दिया ताकि वहां की जनसंख्या के आंकड़ों को बदलकर दलाई लामा के प्रभाव को कम किया जा सके.
तिब्बत पर भारत की स्थिति:
जेएनयू में सेंटर फोर चाइनिज़ एंड साउथ ईस्ट एशिया स्टडीज के प्रोफ़ेसर B.R. दीपक का मानना है कि "तिब्बत के मामले में भारत की बड़ी लचर नीति रही है. साल 1914 में शिमला समझौते के तहत “मैकमोहन रेखा” को अंतरराष्ट्रीय सीमा माना गया लेकिन 1954 में नेहरू ने तिब्बत को एक समझौते के तहत चीन का हिस्सा मान लिया था.
प्रधानमंत्री बनने से पहले अटल बिहारी वाजपेयी तिब्बत को स्वतंत्र देश के रूप में रेखांकित करते थे और पूरा भारत यह मानता था कि चीन ने तिब्बत पर अवैध कब्ज़ा कर रखा है और भारत को यह स्वीकार नहीं है. लेकिन पहली बार 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने तिब्बत को चीन का हिस्सा माना और बदले में चीन ने सिक्किम को भारत का हिस्सा मान लिया है.
प्रोफ़ेसर बीआर दीपक ने कहा कि "वाजपेयी और नेहरू में फ़र्क था. नेहरू ने 8 साल के लिए तिब्बत को चीन का हिस्सा माना था लेकिन वाजपेयी ने कोई समय सीमा तय नहीं की थी."
वे आगे कहते हैं, "मार्च 1962 में नेहरू का चीन के साथ तिब्बत पर क़रार ख़त्म हो गया था और यह यथास्थिति 2003 तक रही. वर्ष 2003 में जब वाजपेयी चीन के दौरे पर गए तो उन्होंने तिब्बत पर समझौता कर कर लिया और तिब्बत को हमेशा के लिए चीन का हिस्सा मान लिया था.
भारत ने तिब्बत की किस तरह से मदद की;
केंद्रीय तिब्बती प्रशासन की वेबसाइट के अनुसार, तिब्बत की कुछ जनजातियों चीन के अतिक्रमण का विरोध कर रही थीं जिनसे मुकाबला करने के लिए चीन की सेना को बहुत मशक्कत करनी पड़ रही थी. भारत ने चीन के खिलाफ इन विद्रोही जनजातियों का समर्थन किया. उस समय भारत में खुफिया ब्यूरो के तहत एक विशेष शाखा बनाई गई थी जो कि पश्चिम बंगाल में “कालीम्पोंग” से अपनी गतिविधियां चली रही थी.
ध्यान रहे कि इस समय भारत की विदेशी ख़ुफ़िया एजेंसी “रॉ” की स्थापना नहीं हुई थी. आईबी के तत्कालीन प्रमुख, श्री बी. एन. मलिक इन गतिविधियों को दैनिक आधार पर नेहरू को रिपोर्ट कर रहे थे. तिबब्ती विद्रोहियों को देहरादून और कुछ अन्य स्थानों में भी गुरिल्ला प्रशिक्षण दिया गया था.
भारत खुलकर तिब्बत की आजादी का समर्थन क्यों नहीं करता
यह बात सच है कि भारत तिब्बत के लोगों के लिए बहुत खर्च कर रहा है, उनकी शिक्षा, स्वास्थय पर लाखों रुपए प्रतिवर्ष खर्च किया जा रहा है, हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में तिब्बती लोगों की कई कालोनियां बसी हुई हैं, यहाँ तक कि कुछ लोगों को वोट डालने का अधिकार भी दिया गया है.
लेकिन फिर भी भारत खुलकर तिब्बत की आजादी का समर्थन नहीं कर रहा है इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि वर्ष 2017 में भारत और चीन के बीच 85 अरब डॉलर से अधिक का व्यापार है. आंकड़ों के मुताबिक, चीन में भारत का निर्यात सालाना आधार पर 39.11 प्रतिशत बढ़कर 16.34 अरब डॉलर हो गया है वहीँ चीन से भारत का आयात 14.59 प्रतिशत बढ़कर 68.10 अरब डॉलर हो गया.
ऐसे में अगर भारत चीन से साथ तिब्बत के मामले को लेकर रिश्ते ख़राब करता है तो भारत के बाजार को धक्का लगेगा और चीन से भारत को मिलने वाले सस्ते मैन्युफैक्चरिंग उत्पाद बंद हो जायेंगे जिससे भारत में मुद्रा स्फीति बढ़ जाएगी जो कि सरकार के लिए नुकसानदेह होगी.
लेकिन दोनों देशों के बीच व्यापार की चिंता केवल भारत को करने के जरुरत नहीं हैं. जिस प्रकार चीन, भारत के खिलाफ CPEC, दक्षिण चीन समुद्री विवाद, अरुणाचल प्रदेश सीमा विवाद, NSG और संयुक्त राष्ट्र में भारत की स्थायी सदस्यता का विरोध इत्यादि कर रहा है तो फिर भारत को भी समय की जरुरत को ध्यान में रखते हुए तिब्बत की आजादी का समर्थन करना चाहिए इससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के प्रभुत्व में वृद्धि होगी.
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