भारत में कृषि श्रमिकों की समस्याएं

Jun 23, 2016, 12:14 IST

भारत में कृषि अब भी मानसून की कृपा पर निर्भर है और भारत की लगभग 53% आबादी कृषि गतिविधियों में संलग्न है | यहाँ, किसानों और खेतिहर मजदूरों की गतिविधियाँ मानसून की तीव्रता पर निर्भर करतीं हैं, अगर मानसून अच्छा होगा तो फसल भी अच्छी होगी अन्यथा नहीं | कृषि श्रम को असंगठित क्षेत्र की श्रेणी में गिना जाता है | अतः  इनकी आय भी निश्चित नहीं होती है।

भारत की लगभग 53% आबादी कृषि गतिविधियों में संलग्न है और भारत में कृषि अब भी मानसून की कृपा पर निर्भर है। यहाँ, किसानों और खेतिहर मजदूरों की गतिविधियाँ मानसून की तीव्रता पर निर्भर करतीं हैं। अगर मानसून अच्छा होगा तो फसल भी अच्छी होगी अन्यथा नहीं | कृषि श्रम को असंगठित क्षेत्र की श्रेणी में गिना जाता है, अतः इनकी आय भी तय नहीं होती है। इसलिए वे मात्र 150 रूपए प्रति दिन की दिहाड़ी की पूर्ण अनिश्चितता के साथ एक असुरक्षित और वंचित जीवन जी रहे हैं। कृषि मजदूर ग्रामीण पदानुक्रम में सबसे शोषित और उत्पीड़ित वर्गों में से एक हैं। यह वर्ग कई प्रकार की समस्याओं का सामना अपनी निजी जिंदगी में करता है I

कृषि श्रम की समस्याएं:
1. कृषि श्रमिकों की उपेक्षा: सन 1951 में  कृषि (किसान साथ ही साथ कृषि मजदूरों)  कर्मचारियों  की संख्या 97.2 मिलियन थी जो कि 1991 में बढ़ कर 185.2 मिलियन हो गई | जबकि कृषि श्रमिकों की संख्या 1951 में 27.3 मिलियन से बढ़कर 1991 में 74.6 मिलियन हो गई | इसका अर्थ यह है कि (i) 1951 से 1991 के बीच की अवधि में कृषि मजदूरों की संख्या में लगभग तीन गुना की वृद्धि हुई है। परन्तु अब हालत यह है कि देश के 50 % किसान कृषि छोड़ना चाहते हैं I भारत में किसानों की संख्या 1951 में 70 मिलियन थी जो कि 2011 में 119 मिलियन बची थी I

2. मजदूरी और आय: भारत में  कृषि मजदूरी और कृषि श्रमिकों के परिवार की आय बहुत कम है। हरित क्रान्ति के आगमन के साथ,  नगद मजदूरी की दरों में वृद्धि होना शुरू हो गई | हालांकि, वस्तुओं की कीमतों में काफी वृद्धि हुई है, वास्तविक मजदूरी की दरों में उस हिसाब से वृद्धि नहीं हुई |  वर्तमान में ग्रामीण क्षेत्रों में मनरेगा के तहत मजदूरों को 150 रूपए प्रति दिन दिहाड़ी मिल रही है |

3. रोजगार और काम की परिस्थितियों :  खेतिहर मजदूरों को बेरोजगारी और ठेके  की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। साल के ज्यादातर समय में उन्हें बेरोजगार रहना पड़ता है क्योंकि खेतों पर कोई काम नहीं होता है और रोज़गार के वैकल्पिक स्रोत भी मौजूद नहीं होते हैं |

4. ऋणग्रस्तता: ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग प्रणाली और वाणिज्यिक बैंकों द्वारा स्वीकृति की जांच प्रक्रिया के अभाव में, किसान गैर संस्थागत स्रोत जैसे साहूकारों, ज़मींदारों (कुछ मामलों में तो 40% से 50% तक ब्याज़ ) से काफी उच्च दरों पर ऋण लेना पसंद करते हैं | इस तरह से बहुत अधिक दर के कारण किसान कर्ज के दुष्चक्र में फसते चले जाते हैं

5. कृषि श्रम में महिलाओं के लिए कम मजदूरी: -  महिला कृषि श्रमिकों को आम तौर पर कठिन काम करने के लिए मजबूर किया जाता है और उनके पुरुष समकक्षों की तुलना में कम भुगतान किया जाता है।

6. बाल श्रम की घटनाओं का बढ़ना:– भारत में  बाल श्रम की घटना  काफी उच्च और अनुमानित संख्या 17.5 करोड़ से लेकर 44 करोड़ तक भिन्न हैं । यह अनुमान किया गया है कि एशिया में बाल श्रमिकों का एक तिहाई हिस्सा भारत में हैं।

7. प्रवासी श्रम में वृद्धि:-  हरित क्रान्ति से सुनिश्चित सिंचाई क्षेत्रों में लाभकारी मजदूरी के रोजगारों के अवसरों में वृद्धि हुई है, जबकि विशाल बारिश अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों में रोजगार के अवसर लगभग ठहर गए |

 सरकार द्वारा किए गए उपाय:

1. न्यूनतम मजदूरी अधिनियम:- न्यूनतम मजदूरी अधिनियम काफी समय पहले 1948 में पारित किया गया था और इसके बाद कृषि के लिए इसे लागू करने की आवश्यकता लगातार महसूस करी जा रही है | इसका मतलब यह है कि क्या अधिनियम कृषि क्षेत्र के लिए लागू नहीं हुआ है?

2. बंधुआ श्रम का उन्मूलन:-  आजादी के बाद से, बंधुआ मजदूर की बुराई को समाप्त करने के लिए प्रयास किये गए हैं  क्योंकि यह  शोषक, अमानवीय और सामाजिक न्याय के सभी मानदंडों का उल्लंघन है | भारत के संविधान में मौलिक अधिकारों के अध्याय में यह कहा गया है कि मनुष्यों में व्यापार और उन्हें भीख मांगने के लिए मजबूर करना निषिद्ध है और कानून के तहत सजा के पात्र हैं |

3. आवास साइटों का प्रावधान:- कृषि श्रमिकों के लिए गांवों में घर के लिए निर्माण स्थल प्रदान करने के लिए कई राज्यों में क़ानून पारित किया गया है।

4. रोजगार उपलब्ध कराने के लिए विशेष योजनाएं- जवाहर ग्राम समृद्धि योजना (JGSY), और  राष्ट्रीय खाद्य के लिए कार्य योजना (NFFWP), महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम मनरेगा , काम के बदले अनाज योजना I

5. विकास के लिए विशेष एजंसियां - विशेष एजेंसियाँ-। लघु कृषक विकास एजेंसी (SFDA) और सीमांत किसान और कृषि श्रमिक विकास एजेंसी (MFAL) – का गठन 1970-71 में  देश के कृषि श्रमिकों की समस्याओं को हल करने के लिए किया गया था |

6. ऋण योजनायें:- व्यावसायिक बैंकों द्वारा अपनी ऋण नीतियां इस प्रकार नहीं बनाई गई थी जिससे कृषि एवं ग्रामीण क्षेत्रों को पर्याप्त ऋण सुविधाएं उपलब्ध हो सकें। अतः इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु इन क्षेत्रों में ग्रामीण बैंकों की स्थापना आवश्यक थी। इनकी ऋण नीतियां एवं ऋण योजनाएं निम्न हैं—
1. लघु एवं सीमांत कृषकों एवं कृषि श्रमिकों को ऋण।
2. अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति वर्ग के ग्रामीणों को ऋण।
3. ग्रामीण कारीगरों एवं लघु व्यवसायी को ऋण।

सुझाव :-
कृषि आधारित उद्योग-धंधे

ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि आधारित ऐसे उद्योग-धंधों की स्थापना की जानी चाहिए जिनमें न्यूनतम प्रशिक्षण से स्थानीय आबादी के व्यक्तियों को रोजगार मिल सके तथा किसानों के उत्पाद की उसमें खपत हो सके जैसे- फ्लोर मिल, राइस मिल, तेल कोल्हू, फलों से बनने वाले विभिन्न सामान, पापड़, बड़ियां, चिप्स एवं आचार आदि के उद्योग लगने चाहिए तथा उनको देश के दूसरे भागों में भेजने की व्यवस्था भी की जानी चाहिए। ग्रामीण बेरोजगारों को ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार उपलब्ध कराने के लिए वहां के स्थानीय उत्पाद को ध्यान में रखते हुए लघु एवं कुटीर उद्योगों की स्थापना भी की जानी चाहिए।

Hemant Singh is an academic writer with 7+ years of experience in research, teaching and content creation for competitive exams. He is a postgraduate in International
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