उदारीकरण से पहले औद्योगिक विकास और नीति

Apr 4, 2016, 10:01 IST

आजादी के बाद पहली औद्योगिक नीति की घोषणा 6 अप्रैल 1948 को तत्कालीन केंद्रीय उद्योग मंत्री श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा की गई थी। इस नीति ने भारत में मिश्रित और नियंत्रित अर्थव्यवस्था के लिए एक आधार की स्थापना की थी। नई औद्योगिक नीति के प्रारंभ होने से पहले भारतीय अर्थव्यवस्था 3.5% की हिंदू वृद्धि दर में उलझ गई थी। देश का आर्थिक परिदृश्य कुछ इस प्रकार का हो गया था: राजकोषीय घाटा बढ़ रहा था, मुद्रास्फीति तेजी से बढ़ रही थी और भुगतान संतुलन प्रतिकूल था। इसलिए अर्थव्यवस्था की समग्र स्थिति बहुत दयनीय हो गई थी।

पहली औद्योगिक नीति की घोषणा अप्रैल 1948 में औद्योगिक मंत्री एस. पी. मुखर्जी द्वारा की गई थी। इसका ऐतिहासिक महत्व है क्योंकि यहां से देश में मिश्रित अर्थव्यवस्था की प्रणाली शुरू हो गई थी।

योजना बनाने से पहले (1950) भारत के औद्योगिक परिदृश्य की मुख्य विशेषताएं निम्नवत् थी:

I. उपभोक्ता प्रधान वस्तुयें बनाने वाले उद्योगों की प्रधानता थी जिसके कारण पूंजी प्रधान उद्योगों का विकास ठीक तरीके से नही हुआ था।
II. 1953 में, उपभोक्ता वस्तु उद्योगों और वास्तु उत्पादक उद्योगों के बीच का अनुपात 62:38 था।
III. औद्योगिक क्षेत्र एक बेहद कमजोर बुनियादी ढांचे के साथ अत्यधिक अविकसित था।
IV. औद्योगिक क्षेत्र में सरकार की अहस्तक्षेप नीति के कारण इस क्षेत्र का विकास हो पाया था।
V. निर्यात उन्मुखीकरण देश के हितों के खिलाफ माना जाता था।
VI. स्वामित्व की संरचना को अत्यधिक महत्व दिया गया था।
VII. तकनीकी और प्रबंधकीय कौशल की कमी थी।

पहली औद्योगिक नीति की मुख्य विशेषताएं (1948):

I. मिश्रित अर्थव्यवस्था का विकास
II. उद्योगों के विकास के लिए सरकारी कार्यक्रमों का आयोजन ।
III. छोटे और कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देना।
IV. विदेशी निवेश की अनुमति दी गई थी, लेकिन प्रभावी नियंत्रण भारतीयों के पास था।

औद्योगिक नीति की मुख्य विशेषताएं (1956):

I. सार्वजनिक क्षेत्र के लिए सत्रह उद्योग आरक्षित थे।
II. सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के लिए बारह उद्योग आरक्षित किए गए थे।
III. नीति में नए उद्योगों के विकास के लिए राज्यों के योगदान को बढ़ाने पर जोर दिया था।
IV. नीति में विदेशी पूंजी का स्वागत किया गया था लेकिन प्रभावी नियंत्रण भारतीयों के हाथों में था।
V. नीति में क्षेत्रीय असमानताओं की कमी पर जोर दिया था।

1980 के दशक के औद्योगिक नीति सुधार

1980 के दशक की औद्योगिक नीति में हुए परिवर्तन के कारण घरेलू नियंत्रण हटाने की आवश्यकता महसूस होनी लगी थी। बड़े औद्योगिक घरानों के लिए बड़ा अवसर प्रदान करने के लिए औद्योगिक लाईंसेस पद्धति खत्म करने, एमआरटीपी के प्रावधानों के कमजोर होने के साथ शेयर पूंजी के आधुनिकीकरण के लिए प्रोत्साहन, वस्त्र, चीनी, सीमेंट और एल्यूमीनियम, के मूल्य विनियंत्रण हेतु प्रमुख उद्योगों के लिए नीतियों में परिवर्तन जा रहा था। घरेलू नियंत्रण हटाने की दिशा में कुछ प्रमुख कदम भी इस दौरान उठाए गए थे।

विशेष रूप से, जब से औद्योगिक नीति सुधार की शुरूआत हुई तो उस समय कपड़ा, चमड़ा उत्पाद, खेल उत्पाद आदि जैसे निर्यात क्षेत्रों का विकास करने के लिए कई तरह की अड़चनें विद्यमान थी जो चिंता का भी मुख्य कारण थी और भारत के पास तुलनात्मक लाभ भी इन्हीं क्षेत्रों में मौजूद था।

1990 के दशक में नीतिगत बदलाव

1970 के मध्य में भारत में बदलाव की प्रक्रिया और नीतियों में बदलाव की जरूरत पर बहस की एक प्रक्रिया को निर्धारित किया गया और लगभग इसी दौरान चीन व्यापक परिवर्तनों की तैयारी कर रहा था। ध्यान देने वाली बात यह है कि चीन ने इस दौरान बाजार की ओर रुख करने की दिशा में पूरी ताकत झोंक दी थी। और 1978 तथा 1991 के बीच चीन की सकल घरेलू उत्पाद दोगुनी हो गई थी। इसके विपरीत, भारत 1980 के दशक में घरेलू नियंत्रण हटाने में संकोच कर रहा था जबकि यहां कि अत्यधिक संरक्षणवादी व्यापार नीति बरकरार रहने से सार्वजनिक क्षेत्र में नुकसान हो रहा था। हालांकि औद्योगिक नीति के मोर्चे पर सुधार हो रहे थे, पर सरकार के वित्तीय खातों में तेज गिरावट हो रही थी।

भारत सरकार की नीतियां से तेजी से बढ़ते ब्याज भुगतान, रक्षा और सब्सिडी पर उस समय की सरकार का खर्च तेजी से बढ रहा था। सरकार का सकल राजकोषीय घाटा 1980-81 के सकल घरेलू उत्पाद के 6.2 प्रतिशत से बढ़कर 1990-91 में 8.3 फीसदी हो गया था।

Hemant Singh is an academic writer with 7+ years of experience in research, teaching and content creation for competitive exams. He is a postgraduate in International
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