सर्वोच्च न्यायलय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति एके पटनायक और न्यायाधीश न्यायमूर्ति सुधांशु ज्योति मुखोपाध्याय की खंडपीठ ने निर्वाचित नेताओं को संरक्षण प्रदान करने वाली जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा आठ (4) को असंवैधानिक करार दिया. खंडपीठ ने यह फैसला अधिवक्ता लिली थॉमस और गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) लोक प्रहरी की जनहित याचिका पर 10 जुलाई 2013 को सुनाया. यह फैसला 10 जुलाई 2013 से ही लागू हो गया.
खंडपीठ ने कहा कि इस फैसले के बाद जो भी सांसद या विधायक जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा आठ की उपधारा 1, 2, या 3 के तहत अदालत से दोषी ठहराया जाएगा, वह सदस्यता से अयोग्य होगा. खंडपीठ ने संवैधानिक उपबंधों की व्याख्या करते हुए कहा कि जैसे ही कोई सांसद या विधायक अयोग्य होता है, अनुच्छेद 101 (3) (A) व 190 (3) (A) के तहत उसकी सीट स्वतः रिक्त मान ली जाएगी.
सर्वोच्च न्यायलय की खंडपीठ ने संविधान के अनुच्छेद 102 और 191 की विस्तृत व्याख्या करते हुए कहा कि संसद और विधान सभा के सदस्यों को अयोग्य करार देने के लिए प्रावधान निर्धारित हैं. जनप्रतिनधित्व अधिनियम के तहत दो साल से अधिक सजा प्राप्त व्यक्ति संसद या विधान सभा का सदस्य निर्वाचित नहीं हो सकता. अगर निर्वाचन के लिए इस तरह का प्रावधान है तो मौजूदा निर्वाचित सांसद या विधायक, संसद या राज्य की विधान सभा का सदस्य जारी कैसे रह सकता है.
खंडपीठ ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 14 में प्रदत्त समानता के अधिकार में जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा आठ (4) खरी नहीं उतरती. लेकिन हमें अनुच्छेद 14 तक जाने की जरूरत ही नहीं है. जब संविधान के अनुच्छेद 102 तथा 191 के तहत संसद को इस प्रकार का कानून बनाने की इजाजत ही नहीं है तो धारा 8(4) स्वयं गैर- कानूनी है.
सर्वोच्च न्यायलय ने कहा कि संसद ने अपने अधिकार की हदें पार करके इस तरह का प्रावधान बनाया जो संविधान की मूल भावना के विपरीत है.
सर्वोच्च न्यायलय ने संविधान सभा की 1949 की कार्यवाही का भी जिक्र किया जिसमें सभा के एक सदस्य ने इसी तरह का प्रस्ताव पेश किया था. लेकिन संविधान सभा ने इसे पारित नहीं किया.
खंडपीठ ने स्पष्ट किया कि यह फैसला भावी मामलों में ही लागू होगा और उन सांसदों, विधायकों या अन्य जन प्रतिनिधियों के मामलों में लागू नहीं होगा, जो फैसला सुनाए जाने से पहले ही दोषी ठहराने के निचली अदालत के फैसले के खिलाफ उच्चतर न्यायालय में अपील दायर कर चुके हैं.
विदित हो कि जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा आठ (4) के प्रावधान के मुताबिक, आपराधिक मामले में दोषी ठहराए गए किसी निर्वाचित प्रतिनिधि को अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता था. यदि उसकी ओर से उच्चतर न्यायालय में अपील दायर कर दी गई. सर्वोच्च न्यायलय ने अपने फैसले में आम आदमी और चुने गए जन प्रतिनिधियों के बीच असमानता को दूर करने का प्रयास किया है.
पटना उच्च न्यायलय ने वर्ष 2004 में गैर सरकारी संगठन जन-चौकीदार की याचिका स्वीकार करते हुए जेल में बंद व्यक्ति के चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी थी.
जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 (3)
जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 (3) के तहत ऐसा व्यक्ति जो किसी अपराध में दोषी ठहराया गया है और उसे दो साल से कम की कैद की सजा नहीं हुई हैतो वह रिहाई के बाद दो साल तक अयोग्य रहेगा.
जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 (4)
जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 (4) के तहत कानून निर्माता दोषी ठहराए जाने की तिथि से तीन महीने की तिथि तक और अगर दौरान उसने अपील दायर कर दी है तो इसका निबटारा होने तक अयोग्य घोषित नहीं किए जाएंगे.
विश्लेषण:
जनप्रतिनिधियों ने अभी तक (इस फैसले के आने के पूर्व तक) जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8(4) की आड़ में सजा को उच्चतर न्यायालयों में चुनौती देकर सदन में पहुंचते रहे हैं परन्तु इस फैसले के बाद जनप्रतिनिधियों को अपने गैर कानूनी कार्यों पर अत्यंत गहराई से विचार करना होगा. साथ ही पार्टियों को भी अपराधी प्रवृति के लोगों को टिकट देने से परहेज करना होगा.
भारतीय नागरिक भी अब स्वच्छ छवि वाले लोगों को चुन कर संसद में भेज सकेंगें.
लोकतंत्र को अपराधियों की छाया से मुक्त करने के प्रयास में सर्वोच्च न्यायलय का फैसला महत्त्वपूर्ण है.
खंडपीठ का यह निर्णय आम आदमी और जनप्रतिनिधि क़ानून के तहत संरक्षण प्राप्त निर्वाचित प्रतिनिधियों के बीच भेदभाव करने वाला प्रावधान खत्म करता है.
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