‘ब्रेक्सिट’ शब्द जून 2016 में काफी चर्चा में रहा. यह वह शब्द है जो ब्रिटेन के यूरोपीय संघ (ईयू) से अलग होने से संबंधित जनमत संग्रह को प्रदर्शित करता है. ‘ब्रेक्सिट’ के तहत ब्रिटेन में लोगों ने यूरोपीय संघ से अलग होने का समर्थन किया. इस सिलसिले में ब्रिटेन में ईयू से अलग होने के लिए हुए जनमत संग्रह में अलग होने का 51.9 प्रतिशत लोगों ने समर्थन किया जबकि 48.1 प्रतिशत ब्रिटेन वासियों ने ईयू के साथ रहने का समर्थन किया.
‘ब्रेक्सिट’ के तहत ब्रिटेन के लोगों द्वारा ईयू से अलग होने के पक्ष में बहुमत होने की कई वजहें रहीं जिसके राजनैतिक, आर्थिक, अप्रवासियों का मुद्दा सबसे प्रमुख कारक रहे.
यूरोपीय संघ (ईयू) से अलग होने को लेकर ब्रिटेन में आर्थिक चेतावनियां धीमे-धीमे प्रारंभ हुईं. लोगों को बताया जाने लगा कि कैसे अगर वो ईयू के साथ रहेंगे तो फायदा होगा. आईएमएफ़, ओईसीडी, आईएफ़एस, बिज़नेस प्रमोशन से जुड़ी सीबीआई जैसी बड़ी-बड़ी वित्तीय संस्थाओं ने चेताया कि आर्थिक स्थिति ख़राब होगी, बेरोज़गारी बढ़ेगी और ब्रिटेन अलग-थलग पड़ जाएगा. यहां तक कि अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा और ब्रितानी वित्त मंत्रालय ने भी ईयू से अलग होने के नुक़सान बताए. ईयू के साथ रहने का समर्थन करने वाले कई लोग मानते हैं कि ये चेतावनियां कुछ ज़्यादा ही हो गईं.
माना जा रहा है कि ब्रिटिश लोग इन चेतावनियों से चिढ़े और इस पूरे मामले को व्यवस्था के खिलाफ़ एक क्रांति के तौर पर लिया. लोगों का ये भी मानना था कि जो लोग चेतावनी दे रहे हैं ईयू के साथ रहने में उनके हित जुड़े हुए हैं. नतीजा ये हुआ कि उन्होंने ईयू से अलग होने पर मुहर लगाई.
इसके साथ ही यूरोपीय संघ (ईयू) से अलग होने वालों को एक बहुत ही मज़बूत नारा मिला. वो ये कि अगर ब्रिटेन ईयू से हटता है तो हर हफ्ते राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजना के लिए 350 मिलियन पाउंड की राशि ब्रिटेन इस्तेमाल कर सकेगा. हालांकि जांच से पता चलता है कि ये सही आकड़ा नहीं है लेकिन अलग होने वालों के लिए ये एक ज़बर्दस्त राजनीतिक नारा रहा क्योंकि आकड़ा बड़ा था. समझने में आसान था और आम लोगों से जुड़ा हुआ था.
इसके साथ ही ब्रिटेन के यूके इंडिपेंडेंस पार्टी (यूकिप) के प्रमुख नाइजल फ़राज ने प्रवासियों के मुद्दे को ज़ोर शोर से उठाया था. आगे चलकर ये मु्द्दा ब्रिटेन की संस्कृति, पहचान और राष्ट्रीयता से जुड़ता चला गया. परिणाम दिखाते हैं कि पिछले दस वर्ष में दूसरे देशों से ब्रिटेन में आकर बसने वालों की बढ़ती संख्या से स्थानीय लोग बहुत प्रसन्न नहीं हैं. संभवत उन्होंने आने वाले 20 वर्षों में बढ़ते प्रवासियों के प्रभाव के बारे में सोचा होगा और अलग होने का निर्णय किया होगा.
उपरोक्त के साथ ही साथ यूरोपीय संघ (ईयू) में साथ रहने के अभियान को हमेशा से ही लेबर पार्टी के मतदाताओं का समर्थन चाहिए था लेकिन शायद ही ऐसा हुआ. लेबर पार्टी के नेता अपने मतदाताओं का मूड भांप नहीं सके. हालांकि जब तक उन्हें समझ में आया और उन्होंने इसका सामना करने के लिए प्रवासियों पर नियंत्रण जैसे क़दम सुझाए तब तक काफी देर हो चुकी थी.
इन सब के साथ ही साथ ब्रिटेन के कद्दावर नेता बोरिस जॉनसन और माइकल गोव ने अलग होने को समर्थन देकर मुद्दे को और बड़ा कर दिया. जहां जॉनसन ने मतदाताओं से अलग होने की अपील को लेकर पूरे ब्रिटेन में बस से यात्राएं कीं वहीं गोव ने ईयू से अलग होने के बाद ब्रिटेन का एजेंडा क्या होगा. इसका मसौदा तैयार करने में समय लगाया.
इन सब बातों के अलावा एक बात बिल्कुल स्पष्ट दिखी कि ब्रिटेन के बुजुर्गों ने काफी संख्या में वोट किया और उन्हीं के वोट से जीत मिली है.
विदित हो कि ब्रिटेन के निवर्तमान प्रधानमंत्री डेविड कैमरन पिछले कुछ वर्षों में अलग-अलग मुद्दों पर कई बार जीत चुके हैं. चाहे वो वर्ष 2010 में गठबंधन बनाने की बात हो या फिर आम चुनाव या फिर पिछले दस वर्ष में हुए दो जनमत संग्रह लेकिन इस बार क़िस्मत ने उनका साथ नहीं दिया. ईयू के साथ रहने के अभियान का वो सबसे प्रमुख चेहरा थे और उन्होंने इस पूरे मसले को अपने भरोसे से जोड़ दिया था. कहने का तात्पर्य ये है कि उन्होंने इस मुद्दे पर अपना राजनीतिक करियर दांव पर लगाया और अब इसी कारण उन्हें इस्तीफा देना पड़ा.
उपरोक्त सन्दर्भों के आलोक में यदि हम इसके इतिहास में जातें हैं तो हम पाएंगे कि प्रारम्भ में यूरोपीय समुदाय से जुड़ने में भी ब्रिटेन को बहुत समय लगा. वर्ष 1975 में वोटिंग के दौरान भी ब्रिटेन बहुत प्रसन्न नहीं था. लेकिन फिर भी आज के वैश्विक नजरिये से ब्रिटेन के ईयू से अलग होने के फैसले से सारा विश्व सकते में है. जिसका प्रभाव प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सम्पूर्ण विश्व पर पड़ना निश्चित है. जिसके लिए विश्व समुदाय को अभी से तैयार रहना चाहिए.
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