आर्कटिक क्षेत्र में वैज्ञानिक गतिविधियों में सक्रिय भारत को अंतरराष्ट्रीय आर्कटिक विज्ञान समिति में प्रेक्षक का दर्जा दिया गया. इसके साथ ही विश्व मौसम संगठन के तहत जलवायु सेवाएं उपलब्ध कराने के वैश्विक प्रयासों में भारत को अग्रणी भूमिका निभाने का काम भी सौंपा गया. भू-विज्ञान मंत्री एस जयपाल रेड्डी ने 27 जुलाई 2013 को नई दिल्ली में यह जानकारी दी.
एस जयपाल रेड्डी ने भू वैज्ञानिकों से उन्नत और ज्ञान पर आधारित निगरानी, मौसम चेतावनी, जलवायु, भू-संसाधन तथा आपदा में फंसे लोगों का पता लगाने की प्रणालियां विकसित करने को कहा. उन्होंने कहा कि मंत्रालय ने हिमालय के मौसम और ग्लेशियर अनुसंधान, मौसम की चेतावनी तथा पूर्वोत्तर राज्यों के लिए समन्वित मौसम विज्ञान सेवाओं के बारे में विस्तृत परियोजना रिपोर्टे तैयार कर ली हैं, जिनसे 12वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान कार्यक्रम शुरू किए जाने हैं.
अंतरराष्ट्रीय आर्कटिक विज्ञान समिति
आर्कटिक परिषद का गठन वर्ष 1996 में किया गया था. इसके संस्थापक सदस्य देश अमरीका, रूस, आइसलैंड, नार्वे, स्वीडन, डेनमार्क, सिंगापुर और कनाडा हैं. इसे आर्कटिक क्षेत्र के पर्यावरण की रक्षा करने तथा देशज लोगों के आर्थिक एवं सामाजिक और सांस्कृतिक कल्याण को बढ़ावा देने का कार्य सौंपा गया, जिनके संगठन परिषद में स्थायी रूप से प्रतिभागी हैं. आर्कटिक परिषद में गैर सरकारी संगठनों, गैर पार्श्विक राज्यों तथा अंतरसरकारी एवं अंतर संसदीय संगठनों को प्रेक्षक का दर्जा मिल सकता है. आर्कटिक परिषद के एजेंडा में पोत परिवहन, समुद्री सीमाओं के विनियमन, तलाशी एवं बचाव की जिम्मेदारियों से संबंधित मुद्दे तथा आर्कटिक आइस कैप के पिघलने संबंधी प्रतिकूल प्रभाव को दूर करने के लिए रणनीतियां तैयार करने से संबंधित मुद्दे शामिल हैं. मई 2013 में 6 नए देशों को प्रेक्षक के रूप में शामिल किया गया जिससे आर्कटिक परिषद के प्रेक्षकों की संख्या इस समय 12 हो गई. परिषद के सदस्यों की 2 वर्ष में एक बार बैठक होती है तथा आर्कटिक परिषद की अध्यक्षता हर दूसरे वर्ष रोटेट होती है. इसके 6 कार्य समूह हैं-
• आर्कटिक संदूषक कार्य योजना (एसीएपी)
• आर्कटिक निगरानी एवं मूल्यांकन कार्यक्रम (एएमएपी)
• आर्कटिक क्षेत्र के जीव जंतुओं एवं वनस्पतियों का संरक्षण (सीएएफएफ)
• आपातकालीन रोकथाम, तत्परता एवं पत्युत्तर (ईपीपीआर)
• आर्कटिक समुद्री पर्यावरण का संरक्षण (पीएएमई)
• संपोषणीय विकास कार्य समूह (एसडीडब्ल्यूजी)
भारत और आर्कटिक
आर्कटिक के साथ भारत की भागीदारी लगभग 9 दशक पहले से चली आ रही है जब भारत ने ‘नार्वे, यूएस, डेनमार्क, फ्रांस, इटली, जापान, नीदरलैंड, ग्रेट ब्रिटेन तथा आयरलैंड एवं ब्रिटिश ओवरसीज डोमनियन्स एवं स्वीडन के मध्य स्पीट्सबर्गेन से संबंधित संधि’ जिसे ‘स्वालबार्ड संधि’ भी कहा जाता है, पर फरवरी 1920 में पेरिस में हस्ताक्षर किया था.
वैश्विक तापन की वजह से आर्कटिक क्षेत्र की आइस कैप पिघलने के कारण अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए उभरती नई चुनौतियों एवं अवसरों के अलोक में भारत आर्कटिक क्षेत्र की घटनाओं पर ध्यान से नजर रखता है. आर्कटिक क्षेत्र में भारत के हित वैज्ञानिक पर्यावरणीय, वाणिज्यिक एवं सामरिक हैं. भारत ने परिध्रुवीय उत्तर में जलवायु परिवर्तन पर बल के साथ वर्ष 2007 में अपना आर्कटिक अनुसंधान कार्यक्रम शुरू किया था.
आर्कटिक क्षेत्र में भारतीय अनुसंधान के प्रमुख उद्देश्य
• आर्कटिक क्षेत्र के हिम खंडों तथा आर्कटिक महासागर से सेडिमेंट एवं आइस कोर का विश्लेषण करके आर्कटिक क्षेत्र की जलवायु तथा भारतीय मानसून के बीच काल्पनिक दूर संबंध का अध्ययन करना.
• उत्तर ध्रुव क्षेत्र में वैश्विक तापन के प्रभाव का अनुमान लगाने के लिए उपग्रह डाटा का प्रयोग करके आर्कटिक क्षेत्र में समुद्र की वर्फ का चित्रण करना.
• समुद्र के स्तर में परिवर्तन पर हिम खंडों के प्रभाव पर बल देते हुए आर्कटिक क्षेत्र के हिम खंडों की गतिकी तथा बजट पर अनुसंधान करना.
• आर्कटिक क्षेत्र के जीव जंतुओं एवं वनस्पतियों तथा मानव विकास विज्ञानी गतिविधियों पर उनकी प्रतिक्रिया का मूल्यांकन करना.
भारत ने 2007 में आर्कटिक महासागर के लिए अपना पहला वैज्ञानिक अभियान शुरू किया तथा ग्लैसियोलाजी, पर्यावरणीय विज्ञान एवं जैविक विज्ञान जैसे क्षेत्रों में अध्ययन करने हेतु जुलाई 2008 में नाय-अलेसुंद, स्वालबार्ड, नार्वे में इंटरनेशनल आर्कटिक रिसर्च बेस में ''हिमाद्री’’ नाम से एक अनुसंधान बेस खोला. भारत ने विज्ञान में सहयोग के लिए नार्वे के नार्वेजियन पोलर रिसर्च इंस्टिट्यूट के साथ तथा आर्कटिक क्षेत्र में आर्कटिक अनुसंधान करने एवं नाय-अलेसुंद में भारतीय अनुसंधान बेस ''हिमाद्री’’ को बनाए रखने हेतु आधारभूत सुविधाओं के लिए किंग्स बे (जो नार्वेजियन सरकार के स्वामित्व वाली कंपनी है) के साथ भी एमओयू किया.
भारत के आर्कटिक कार्यक्रम में विभिन्न राष्ट्रीय संस्थाओं के अनेक वैज्ञानिकों ने भाग लिया है. अगले 5 वर्षों में आर्कटिक अध्ययन के लिए 12 मिलियन अमेरिकी डालर से अधिक राशि के वित्तीय निवेश की प्रतिबद्धता की गई.
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