उद्विकास : अर्थ, प्रमाण और सिद्धान्त

प्रारम्भिक व आदिम जीवों में लाखों-करोड़ों वर्षों के दौरान क्रमिक रूप से कुछ ऐसे परिवर्तन आ जाते हैं कि प्रारम्भिक प्रजाति से अलग एक नयी प्रजाति उत्पन्न हो जाती है, इस प्रक्रिया को ही उद्विकास (Evolution) कहा जाता है | जीवों के संबंध में इसे ‘जैव उद्विकास’ का नाम दिया जाता है |

Feb 18, 2016, 09:52 IST

प्रारम्भिक व आदिम जीवों में लाखों-करोड़ों वर्षों के दौरान क्रमिक रूप से कुछ ऐसे परिवर्तन आ जाते हैं कि प्रारम्भिक प्रजाति से अलग एक नयी प्रजाति उत्पन्न हो जाती है, इस प्रक्रिया को ही उद्विकास (Evolution) कहा जाता है | जीवों के संबंध में इसे ‘जैव उद्विकास’ का नाम दिया जाता है |

वर्तमान में पृथ्वी पर पाये जाने वाले सभी पादपों व जंतुओं का वर्तमान विकास बहुत समय पहले पृथ्वी पर पाये जाने वाले उनके पूर्वजों से क्रमिक परिवर्तन के द्वारा हुआ है | दो प्रजातियों की विशेषताओं में जितनी अधिक समानता पायी जाती है, वे जैव उद्विकास के संदर्भ में उतनी ही अधिक गहराई से आपस में जुड़े होते हैं |

जैव उद्विकास को ‘पिटेरोसोर्स ( Pterosaur)’ पक्षी के उदाहरण से से समझा जा सकता है| यह एक उड़ने वाला सरीसृप (Reptile) है, जो लगभग 150 मिलियन वर्ष पहले पृथ्वी पर पाया जाता था | इसका जीवन की शुरुआत प्रारम्भ में स्थल पर रहने वाली एक बड़ी छिपकली के रूप में हुआ था | कई मिलियन वर्षों के दौरान इसके पैरों के मध्य त्वचा की परतें विकसित हो गईं जिसने इसे छोटी-मोटी दूरी तक उड़ने योग्य बना दिया | बाद के कुछ और मिलियन वर्षों के दौरान इसके पैरों के बीच की त्वचा की परतों और उसे सहयोग करने वाली हड्डियों और माँसपेशियों का विकास पंखों के रूप में हो गया जिसने इसे लंबी दूरी तक उड़ान भरने योग्य पक्षी के रूप में विकसित कर दिया | इस तरह जमीन पर रहने वाला एक जीव उड़ने वाले पक्षी में बदल गया और एक नयी प्रजाति (उड़ने वाले सरीसृप) का जन्म हो गया |

पिटेरोसोर्स का एक स्थलीय जीव से उड़ने वाले सरीसृप के रूप विकास

जीवों के एक निश्चित क्रम में विकसित होने अर्थात जैव उद्विकास की प्रक्रिया के संबंध में निम्नलिखित को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है :

(i) समजात अंग (Homologous organs)

(ii) समरूप अंग (Analogous organs)

(iii) जीवाश्म (Fossils)

(i) समजात अंग:   ऐसे अंग जिनकी मूल रचना तो समान होती हैं लेकिन उनका प्रयोग अलग-अलग कार्यों के लिए होता है, समजात अंग कहलाते हैं |छिपकली के पंजे (Forelimb) ,चमगादड़ व पक्षी के पंख ,मानव के पंजे , मेंढक के पंजे आदि में ह्यूमेरस, रेडिओ अल्ना, कार्पल्स, मेटाकार्पल्स आदि अस्थियाँ होती हैं अर्थात मूल रचना एक जैसी होती है, परंतु इन सभी का कार्य अलग-अलग होता है | चमगादड़ का पंख उड़ने के लिए, मानव का हाथ वस्तु को पकड़ने के लिए, छिपकली के पंजे का प्रयोग दौड़ने के लिए होता है |

(ii) समरूप अंग:  ऐसे अंग जिनकी मूल रचना तो अलग-अलग होती है लेकिन वे एक जैसे दिखाई देते हैं और समान कार्य के लिए प्रयुक्त होते हैं,  जैसे- किसी पक्षी के पंख और किसी कीट (Insect) के पंख दिखने में व कार्य में एक जैसे होते हैं यानि दोनों का प्रयोग उड़ने के लिए किया जाता है, लेकिन उनकी मूल रचना अलग तरह की होती है|

(iii) जीवाश्म:  बहुत समय पहले पृथ्वी पर पाये जाने वाले जीवों व जंतुओं के वर्तमान में मिलने वाले अवशेष जीवाश्म कहलाते हैं | जीवाश्मों की प्राप्ति जमीन की खुदाई से होती है | जब कोई जीव मर जाता है, तो सूक्ष्म-जीव ऑक्सीजन व नमी की उपस्थिति में उनका अपघटन (Decompose) कर देते हैं और वे जीवाश्म में बदल जाते हैं | उदाहरण के लिए जीवाश्म पक्षी कहलाने वाला आर्कियोप्टेरिक्स दिखने में पक्षी के समान था लेकिन उसकी कई अन्य विशेषताएँ सरीसृपों (Reptiles) से मिलती थीं | उसमें पक्षियों के समान पंख पाये जाते थे लेकिन उसके दाँत व पूँछ सरीसृपों के समान थी | इसीलिए इसे पक्षियों व सरीसृपों के बीच की कड़ी माना गया है और यह कहा गया कि पक्षियों का उद्विकास सरीसृपों से हुआ है |

आर्कियोप्टेरिक्स :  पक्षियों व सरीसृपों के बीच की कड़ी

डार्विन का जैव विकास संबंधी सिद्धान्त

चार्ल्स डार्विन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘ ओरिजिन ऑफ स्पीशीज़’ में अपने उद्विकास संबंधी सिद्धान्त को प्रस्तुत किया, जिसे ‘प्राकृतिक चयन का सिद्धान्त’ (Theory of Natural Selection) का नाम दिया गया | इस सिद्धान्त के अनुसार प्रकृति सबसे योग्यतम व अनुकूलतम जीव को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक आनुवांशिक लक्षणों के वाहक के रूप में चुनती है और ये नियम पादपों व जंतुओं सभी पर लागू होता है |

डार्विन के सिद्धान्त की मुख्य संकल्पनाएँ :

  1. सभी जीवों में प्रचुर संतानोत्पत्ति की क्षमता होती है अतः अधिक जनसंख्या के कारण प्रत्येक जीव को अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सजातीय, अंतर्जातीय व पर्यावरणीय संघर्ष करना पड़ता है| इसीलिए कुल जनसंख्या संतुलित रहती है |
  2. दो सजातीय पूरी तरह समान नहीं होते है | यह विविधता उनमें वंशानुक्रम में मिले लक्षणों की विविधता के कारण पैदा होती है |
  3. जीवों में पायी जाने वाली कुछ विविधताएँ जीवन-संघर्ष के लिए लाभदायक होती हैं जबकि कुछ अन्य हानिकारक होती हैं |
  4. जिन जीवों में जीवन-संघर्ष के लाभदायक गुण पाये जाते हैं, जीवन-संघर्ष में अधिक सफल होते हैं और जीवन-संघर्ष हेतु अयोग्य जीव समाप्त हो जाते हैं |
  5. जीवन-संघर्ष हेतु लाभदायक गुण पीढ़ी-दर-पीढ़ी इकट्ठे होते रहते हैं और कुछ समय बाद उत्पन्न जीवधारियों के लक्षण अपने मूल जीवधारियों से इतने भिन्न हो जाते हैं कि एक नयी जाति बन जाती है |

हालाँकि डार्विन के सिद्धान्त को व्यापक मान्यता प्रदान की गयी लेकिन इस आधार पर इसकी आलोचना कि गयी कि यह सिद्धान्त ‘जीवों में भिन्नताओं का जन्म कैसे होता है की व्याख्या नहीं कर पाता है |  डार्विन के सिद्धान्त के बाद अनुवांशिकी का विकास हुआ| अब यह माना जाता है कि जीवों में भिन्नताओं का जन्म उनके जीन के कारण होता है | अतः अनुवांशिक पदार्थ उद्विकास की मूल सामग्री है | बाद में इसी तथ्य के आधार पर डार्विन के सिद्धान्त में संशोधन किया गया |

उद्विकास का सर्वाधिक मान्य सिद्धान्त ‘उद्विकास का संश्लेषण सिद्धान्त है जो यह मानता है कि जीवों की उत्पत्ति ‘अनुवांशिक विविधता’ और ‘प्राकृतिक चयन’ की अंतर्क्रिया पर आधारित है | कभी-कभी जीव-जाति पूरी तरह समाप्त हो जाती है, वह विलुप्त हो जाती है | डोडो ऐसा ही एक न उड़ सकने वाला विशाल पक्षी था जो आज विलुप्त हो चुका है | जब कोई जीव-जाति एक बार समाप्त हो जाती है तो उसे किसी भी तरह से दुबारा उत्पन्न नहीं किया जा सकता है |

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प्रारम्भिक व आदिम जीवों में लाखों-करोड़ों वर्षों के दौरान क्रमिक रूप से कुछ ऐसे परिवर्तन आ जाते हैं कि प्रारम्भिक प्रजाति से अलग एक नयी प्रजाति उत्पन्न हो जाती है, इस प्रक्रिया को ही उद्विकास (Evolution) कहा जाता है | जीवों के संबंध में इसे जैव उद्विकास का नाम दिया जाता है |

वर्तमान में पृथ्वी पर पाये जाने वाले सभी पादपों व जंतुओं का वर्तमान विकास बहुत समय पहले पृथ्वी पर पाये जाने वाले उनके पूर्वजों से क्रमिक परिवर्तन के द्वारा हुआ है | दो प्रजातियों की विशेषताओं में जितनी अधिक समानता पायी जाती है, वे जैव उद्विकास के संदर्भ में उतनी ही अधिक गहराई से आपस में जुड़े होते हैं |

जैव उद्विकास को पिटेरोसोर्स ( Pterosaur)’ पक्षी के उदाहरण से से समझा जा सकता है| यह एक उड़ने वाला सरीसृप (Reptile) है, जो लगभग 150 मिलियन वर्ष पहले पृथ्वी पर पाया जाता था | इसका जीवन की शुरुआत प्रारम्भ में स्थल पर रहने वाली एक बड़ी छिपकली के रूप में हुआ था | कई मिलियन वर्षों के दौरान इसके पैरों के मध्य त्वचा की परतें विकसित हो गईं जिसने इसे छोटी-मोटी दूरी तक उड़ने योग्य बना दिया | बाद के कुछ और मिलियन वर्षों के दौरान इसके पैरों के बीच की त्वचा की परतों और उसे सहयोग करने वाली हड्डियों और माँसपेशियों का विकास पंखों के रूप में हो गया जिसने इसे लंबी दूरी तक उड़ान भरने योग्य पक्षी के रूप में विकसित कर दिया | इस तरह जमीन पर रहने वाला एक जीव उड़ने वाले पक्षी में बदल गया और एक नयी प्रजाति (उड़ने वाले सरीसृप) का जन्म हो गया |

पिटेरोसोर्स का एक स्थलीय जीव से उड़ने वाले सरीसृप के रूप विकास

जीवों के एक निश्चित क्रम में विकसित होने अर्थात जैव उद्विकास की प्रक्रिया के संबंध में निम्नलिखित को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है :

(i)                   समजात अंग (Homologous organs)

(ii)                समरूप अंग (Analogous organs)

(iii)               जीवाश्म (Fossils)

(i)                  समजात अंग:   ऐसे अंग जिनकी मूल रचना तो समान होती हैं लेकिन उनका प्रयोग अलग-अलग कार्यों के लिए होता है, समजात अंग कहलाते हैं |छिपकली के पंजे (Forelimb) ,चमगादड़ व पक्षी के पंख ,मानव के पंजे , मेंढक के पंजे आदि में ह्यूमेरस, रेडिओ अल्ना, कार्पल्स, मेटाकार्पल्स आदि अस्थियाँ होती हैं अर्थात मूल रचना एक जैसी होती है, परंतु इन सभी का कार्य अलग-अलग होता है | चमगादड़ का पंख उड़ने के लिए, मानव का हाथ वस्तु को पकड़ने के लिए, छिपकली के पंजे का प्रयोग दौड़ने के लिए होता है |

समरूप अंग:  ऐसे अंग जिनकी मूल रचना तो अलग-अलग होती है लेकिन वे एक जैसे दिखाई देते हैं और समान कार्य के लिए प्रयुक्त होते हैं,  जैसे- किसी पक्षी के पंख और किसी कीट (Insect) के पंख दिखने में व कार्य में एक जैसे होते हैं यानि दोनों का प्रयोग उड़ने के लिए किया जाता है, लेकिन उनकी मूल रचना अलग तरह की होती है|

जीवाश्म:  बहुत समय पहले पृथ्वी पर पाये जाने वाले जीवों व जंतुओं के वर्तमान में मिलने वाले अवशेष जीवाश्म कहलाते हैं | जीवाश्मों की प्राप्ति जमीन की खुदाई से होती है | जब कोई जीव मर जाता है, तो सूक्ष्म-जीव ऑक्सीजन व नमी की उपस्थिति में उनका अपघटन (Decompose) कर देते हैं और वे जीवाश्म में बदल जाते हैं | उदाहरण के लिए जीवाश्म पक्षी कहलाने वाला आर्कियोप्टेरिक्स दिखने में पक्षी के समान था लेकिन उसकी कई अन्य विशेषताएँ सरीसृपों

(ii)                (Reptiles) से मिलती थीं | उसमें पक्षियों के समान पंख पाये जाते थे लेकिन उसके दाँत व पूँछ सरीसृपों के समान थी | इसीलिए इसे पक्षियों व सरीसृपों के बीच की कड़ी माना गया है और यह कहा गया कि पक्षियों का उद्विकास सरीसृपों से हुआ है |

आर्कियोप्टेरिक्स :  पक्षियों व सरीसृपों के बीच की कड़ी

डार्विन का जैव विकास संबंधी सिद्धान्त

चार्ल्स डार्विन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ओरिजिन ऑफ स्पीशीज़ में अपने उद्विकास संबंधी सिद्धान्त को प्रस्तुत किया, जिसे प्राकृतिक चयन का सिद्धान्त (Theory of Natural Selection) का नाम दिया गया | इस सिद्धान्त के अनुसार प्रकृति सबसे योग्यतम व अनुकूलतम जीव को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक आनुवांशिक लक्षणों के वाहक के रूप में चुनती है और ये नियम पादपों व जंतुओं सभी पर लागू होता है |

डार्विन के सिद्धान्त की मुख्य संकल्पनाएँ :

  1. सभी जीवों में प्रचुर संतानोत्पत्ति की क्षमता होती है अतः अधिक जनसंख्या के कारण प्रत्येक जीव को अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सजातीय, अंतर्जातीय व पर्यावरणीय संघर्ष करना पड़ता है| इसीलिए कुल जनसंख्या संतुलित रहती है |
  2. दो सजातीय पूरी तरह समान नहीं होते है | यह विविधता उनमें वंशानुक्रम में मिले लक्षणों की विविधता के कारण पैदा होती है |
  3. जीवों में पायी जाने वाली कुछ विविधताएँ जीवन-संघर्ष के लिए लाभदायक होती हैं जबकि कुछ अन्य हानिकारक होती हैं |
  4. जिन जीवों में जीवन-संघर्ष के लाभदायक गुण पाये जाते हैं, जीवन-संघर्ष में अधिक सफल होते हैं और जीवन-संघर्ष हेतु अयोग्य जीव समाप्त हो जाते हैं |
  5. जीवन-संघर्ष हेतु लाभदायक गुण पीढ़ी-दर-पीढ़ी इकट्ठे होते रहते हैं और कुछ समय बाद उत्पन्न जीवधारियों के लक्षण अपने मूल जीवधारियों से इतने भिन्न हो जाते हैं कि एक नयी जाति बन जाती है |

हालाँकि डार्विन के सिद्धान्त को व्यापक मान्यता प्रदान की गयी लेकिन इस आधार पर इसकी आलोचना कि गयी कि यह सिद्धान्त जीवों में भिन्नताओं का जन्म कैसे होता है की व्याख्या नहीं कर पाता है |  डार्विन के सिद्धान्त के बाद अनुवांशिकी का विकास हुआ| अब यह माना जाता है कि जीवों में भिन्नताओं का जन्म उनके जीन के कारण होता है | अतः अनुवांशिक पदार्थ उद्विकास की मूल सामग्री है | बाद में इसी तथ्य के आधार पर डार्विन के सिद्धान्त में संशोधन किया गया |

उद्विकास का सर्वाधिक मान्य सिद्धान्त उद्विकास का संश्लेषण सिद्धान्त है जो यह मानता है कि जीवों की उत्पत्ति अनुवांशिक विविधता और प्राकृतिक चयन की अंतर्क्रिया पर आधारित है | कभी-कभी जीव-जाति पूरी तरह समाप्त हो जाती है, वह विलुप्त हो जाती है | डोडो ऐसा ही एक न उड़ सकने वाला विशाल पक्षी था जो आज विलुप्त हो चुका है | जब कोई जीव-जाति एक बार समाप्त हो जाती है तो उसे किसी भी तरह से दुबारा उत्पन्न नहीं किया जा सकता है |

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