भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 6 जनवरी 2014 को वन नीति के कार्यान्वयन की निगरानी के लिए एक राष्ट्रीय नियामक की नियुक्ति का भारत सरकार को निर्देश दिया. इस मामले में अदालत ने उस दलील को खारिज कर दिया जिसमें कहा गया था कि इसके लिए किसी ऐसी बॉडी की जरूरत नहीं है.
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति एके पटनायक, न्यायमूर्ति सुरिन्दर सिंह निज्जर और न्यायमूर्ति एफएमआई कलीफुल्ला की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए केंद्र सरकार को इस आदेश पर अमल के बारे में 31 मार्च, 2014 तक हलफनामा दाखिल करने का निर्देश भी दिया.
राष्ट्रीय नियामक की नियुक्ति का निर्देश देते हुये न्यायाधीशों ने कहा कि ऐसा करना इसलिए आवश्यक हो गया है क्योंकि केन्द्र सरकार के तहत पर्यावरण प्रभाव आकलन की वर्तमान प्रणाली में खामियां हैं. अपने आदेश में कोर्ट की बेंच ने कहा कि भारत संघ को कई राज्यों में एक नियामक के साथ अपने कार्यालयों में उतनी नियुक्ति करे जितना सम्भव हो. यह फैसला पर्यावरण एवं वन मंत्रालय (एमओईएफ) की याचिका को खारिज करने के बाद पारित किया गया था जिसमें वन नीति के कार्यान्वयन की निगरानी करने के लिए इस तरह के एक नियामक की नियुक्ति करने की आवश्यकता को कोई जरूरत नहीं माना गया था.
अपने आदेश में कोर्ट ने यह स्पष्ट मंजूरी दी है कि नियामक केवल 1988 की वन नीति के कार्यान्वयन को देखेंगे जबकि बाकि मंजूरी पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा वन अधिनियम के तहत किए जाएँगे. यह नियामक प्रत्येक परियोजना हेतु वर्ष 2006 में अधिसूचित पर्यावरण प्रभाव का आकलन (Environment Impact Assessment, EIA) से सीधे तौर पर करेगा.
क्या है मामला?
सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2011 में सुनाये गये अपने एक निर्णय में संशोधन का निवेदन करने हेतु पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की अर्जी यह निर्णय सुनाया. सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेश में केन्द्र सरकार को परियोजनाओं की मंजूरी के लिये पर्यावरण संबंधी शर्तों को लागू करने और प्रदूषणकर्ताओं पर जुर्माना लगाने के लिये राष्ट्रीय नियामक नियुक्त करने का निर्देश दिया था.
केन्द्र सरकार ने 2013 में न्यायालय को सूचित किया था कि पर्यावरण मंजूरी से संबंधित मसलों पर गौर करने के लिये किसी हरित नियामक की आवश्यकता नहीं है. सरकार ने न्यायलय से इस तरह की व्यवस्था के बारे में अपने आदेश में सुधार करने का अनुरोध किया था.
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