20वें विधि आयोग ने केंद्र सरकार से मौत की सजा को ख़त्म करने की 31 अगस्त 2015 को सिफारिश की. आयोग ने बहुमत से आतंकवाद से जुड़े मामलों को छोड़कर अन्य मामलों में तेजी से मौत की सजा को खत्म करने की सिफारिश की.
विधि आयोग ने उपरोक्त के परिपेक्ष्य में इस तथ्य पर गौर किया कि यह आजीवन कारावास से अधिक प्रतिरोधकता के दंडात्मक लक्ष्य की पूर्ति नहीं करता है. हालांकि, नौ सदस्यीय विधि आयोग की सिफारिश सर्वसम्मत नहीं है. एक पूर्णकालिक सदस्य और दो सरकारी प्रतिनिधियों ने इससे असहमति जताई और मौत की सजा को बरकरार रखने का समर्थन किया. अपनी अंतिम रिपोर्ट में 20वें विधि आयोग ने कहा कि इस बात पर चर्चा करने की आवश्यकता है कि कैसे बेहद निकट भविष्य में यथाशीघ्र सभी क्षेत्रों में मौत की सजा को खत्म किया जाए.
विधि आयोग के तीन पूर्णकालिक सदस्यों में से एक न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) उषा मेहरा और दो पदेन सदस्यों विधि सचिव पी के मल्होत्रा और विधायी सचिव संजय सिंह ने मौत की सजा समाप्त करने पर असहमति जताई. विधि आयोग में एक अध्यक्ष, तीन पूर्णकालिक सदस्य, सरकार का प्रतिनिधित्व करने वाले दो पदेन सदस्य और तीन अंशकालिक सदस्य होते हैं.
विदित हो कि विधि आयोग ने मौत की सजा को समाप्त करने के लिए किसी एक मॉडल की सिफारिश करने से इंकार किया. उसने कहा कि कई विकल्प हैं, रोक से लेकर पूरी तरह समाप्त करने वाले विधेयक तक. विधि आयोग मौत की सजा को समाप्त करने में किसी खास नजरिए के प्रति प्रतिबद्धता दिखाने की इच्छा नहीं रखता है. उसका सिर्फ इतना कहना है कि इसे खत्म करने का तरीका तेजी से और अपरिवर्तनीय और पूरी तरह समाप्त करने का लक्ष्य हासिल करने के बुनियादी मूल्य के अनुरूप होना चाहिए.
आतंक के मामलों और देश के खिलाफ जंग छेड़ने के दोषियों के लिए मौत की सजा का समर्थन करते हुए ‘द डेथ पेनाल्टी’ शीषर्क वाली रिपोर्ट में कहा गया है कि आतंक से जुड़े मामलों को अन्य अपराधों से अलग तरीके से बर्ताव करने का कोई वैध दंडात्मक औचित्य नहीं है लेकिन आतंक से जुड़े अपराधों और देश के खिलाफ जंग छेड़ने जैसे अपराधों के लिए मौत की सजा समाप्त करने से राष्ट्रीय सुरक्षा प्रभावित होगी.
इस रिपोर्ट में कहा गया है कि कई लंबी और विस्तृत चर्चा के बाद विधि आयोग की राय है कि मौत की सजा ‘दुर्लभतम से दुर्लभ’ के सीमित माहौल के भीतर भी संवैधानिक तौर पर टिकने लायक नहीं है. रिपोर्ट में कहा गया है कि मौत की सजा को लगातार दिया जाना बेहद कठिन संवैधानिक सवाल खड़े करता है- ये अन्याय, त्रुटि के साथ-साथ गरीबों की दुर्दशा से जुड़े सवाल हैं.
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