पेरिस जलवायु शिखर सम्मलेन एवं भारत: संक्षिप्त समीक्षा

Dec 21, 2015, 12:52 IST

30 नवंबर 2015 से 11 दिसंबर 2015 के बीच फ्रांस की राजधानी पेरिस में जलवायु शिखर सम्मेलन (कॉप-21) संपन्न हुआ. इसमें भाग ले रहे विश्व के 195 देशों ने पेरिस में तैयार जलवायु परिवर्तन के समझौते को अपनी मंज़ूरी दी.

30 नवंबर 2015 से 11 दिसंबर 2015 के बीच फ्रांस की राजधानी पेरिस में जलवायु शिखर सम्मेलन (कॉप-21) संपन्न हुआ. इसमें भाग ले रहे विश्व के 195 देशों ने पेरिस में तैयार जलवायु परिवर्तन के समझौते को अपनी मंज़ूरी दी. इस समझौते के अनुसार वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर सीमित करने का लक्ष्य रखा गया. भारत कॉप-21 में एक महत्वपूर्ण साझीदार देश के रूप में शामिल हुआ एवं भारत की ओर से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस सम्मेलन में शिरकत की.

'कॉप-21' सम्मलेन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने फ्रांसीसी राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद के साथ मिलकर पेरिस में अन्तरराष्ट्रीय सौर गठबन्धन का शुभारम्भ किया और विकसित व विकासशील देशों को साथ लाने वाली इस पहल के लिये भारत की ओर से तीन करोड़ अमेरिकी डालर की सहायता देने की घोषणा की. इस अवसर पर प्रधानमंत्री ने कहा कि भारत कम कार्बन छोड़ने की हर कोशिश कर रहा है, विकसित देशों को बड़ी जिम्मेदारी लेनी होगी. इसके साथ ही पेरिस के जलवायु सम्मेलन में भाग ले रहे कई अन्य देशों ने भी ज्यादा कार्बन छोड़ने वाले देशों पर टैक्स लगाने की माँग की.

जलवायु सम्मेलन में सौ देशों ने मिलकर ‘सोलर अलायंस’ बनाया व सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिये 180 करोड़ रुपए की राशि देने का भी एलान किया. इसके साथ ही वर्ष 2030 तक 35 फीसदी कार्बन उत्सर्जन कटौती की बात कही.

कार्बन उत्सर्जन भारत के लिये बड़ी समस्या है. देश में ग्लेशियर पानी का बड़ा स्रोत है. इन्हें बचाने के लिये न केवल हिमालय, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के प्रयास करने होंगे. अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भी इस मुद्दे को गम्भीरता से लिये जाने पर बल देना होगा क्योंकि इस लापरवाही से समुद्र का जलस्तर बढ़ने से समुद्र तटीय क्षेत्रों के और कुछ द्वीपों के समुद्र में डूब जाने का भी खतरा पैदा हो गया है. ग्लेशियर यदि वर्ष 2050 तक खत्म हो गए, जैसा कि अन्देशा पैदा हो गया है, तो सदानीरा नदियाँ बरसाती बन कर रह जाएँगी.

कार्बन उत्सर्जन के मुद्दे पर विश्व उत्तरी विकसित देशों और दक्षिणी विकासशील देशों के दो खेमों में बँट गया है. विकसित देश चाहते हैं कि अपने ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के स्तर को नियंत्रित किये बिना विकासशील देशों में वनीकरण द्वारा कार्बन का स्तर कम करने के लिये आर्थिक मदद देकर अपनी ज़िम्मेदारी से छुटकारा पा लिया जाये. अमेरिका की कोशिश रहती है कि तेज गति से बढ़ रही भारत और चीन की अर्थव्यवस्था को ताजा नुकसान का दोषी ठहराने पर जोर दिया जाये. विकासशील देशों का तर्क है कि हमारे यहाँ आपके मुकाबले ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन, जिसे कार्बन पदचिह्न भी कहा जाता है, बहुत कम है. अत: अभी हमें कार्बन पदचिह्न बनाने की छूट दी जानी चाहिए, ताकि हम मानव विकास सूचकांक में बहुत जरूरी विकास की स्थिति में पहुँच सकें. इस तर्क में भी बल है, लेकिन अन्त में तो पृथ्वी की धारण क्षमता का सवाल महत्त्वपूर्ण है.

जलवायु परिवर्तन का सामना करने के दो ही तरीके हैं. पहला है निम्नीकरण यानी जलवायु परिवर्तन के मुख्य कारण ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को लगातार कम करते जाना और एक सीमा से आगे न बढ़ने देना. इसके तहत हमें बिजली उत्पादन के क्षेत्र में और तमाम ऊर्जा ज़रूरतों की आपूर्ति के स्वच्छ तरीकों को अपनाना पड़ेगा. इसके लिये सौर व पवन ऊर्जा जैसे विकल्पों की ओर कदम बढ़ाए जा सकते हैं. इसके साथ ही प्राकृतिक तेल और कोयले से ऊर्जा को हतोत्साहित करना पड़ेगा. बड़े बाँधों से मीथेन गैस निकलती है. अत: जल विद्युत उत्पादन की हाइड्रोकाइनेटिक और वोरेटेक्स जैसी बेहतर तकनीकों को अपनाना पड़ेगा.

खेतीबाड़ी के कार्य में रसायनों की बढ़ती घुसपैठ से पर्यावरणीय तंत्र पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव को भी नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता. ऐसे में जैविक खेती के प्रोत्साहन के लिये भी प्रयास करने होंगे. जैविक कृषि से मिट्टी में जैविक पदार्थ जितना ज्यादा बढ़ता है, उतना ही कार्बन तत्त्व मिट्टी में समाता जाता है. इससे वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड और मीथेन की मात्रा कम होती जाती है. रासायनिक कृषि इससे उल्टी भूमिका निभाती है. जैविक-वैज्ञानिक कृषि ने रासायनिक कृषि को पछाड़ने की क्षमता सिद्ध कर दी है. हिमालय क्षेत्र में यह वृद्धि सामान्य से कुछ ज्यादा है. यह एक विदित तथ्य है कि हिमालय क्षेत्र अति संवेदनशील क्षेत्र है. अत: यहाँ हमें ज्यादा सावधान होने की जरूरत है. तापमान वृद्धि के कारण होने वाले जलवायु परिवर्तन के लक्षण व उससे होने वाली तबाही विश्व भर में चिन्ता का विषय बन चुकी है. इसके बावजूद इन तमाम प्रयासों के असरदार परिणाम अभी तक सामने नहीं आ सके हैं. यूरोप और अमरीका की भयानक और औसत से ज्यादा सर्दियाँ और बफीर्ले तूफान, ध्रुवीय ग्लेशियरों का पिघलना, जिससे समुद्र की सतह में होने वाली बढ़ोतरी, हिमालयी ग्लेशियरों का पिघलना, वर्षा का ढाँचा गड़बड़ाना यानी अतिवृष्टि-अनावृष्टि से बाढ़ व सूखे का बढ़ता प्रकोप वैश्विक चिन्ता का विषय बन चुके हैं. इस परिस्थिति का सामना करने का मुख्यतः एक ही तरीका हैं. पहला निम्नीकरण यानी जलवायु परिवर्तन के मुख्य कारण ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को लगातार कम करते जाना और एक सीमा से आगे न बढ़ने देना. इसके तहत हमें बिजली उत्पादन के क्षेत्र में और तमाम ऊर्जा ज़रूरतों की आपूर्ति के स्वच्छ तरीकों को अपनाना पड़ेगा. इसके लिये सौर व पवन ऊर्जा जैसे विकल्पों की ओर कदम बढ़ाए जा सकते हैं.

भारत सरकार ने भी ऊर्जा के इन सुरक्षित स्रोतों के मायने समझते हुए वर्ष 2022 तक भारत में एक लाख मेगावाट सौर ऊर्जा पैदा करने का लक्ष्य लेकर चल रही है. पर्यावरणीय संकटों को ध्यान में रखते हुए यह केन्द्र सरकार की एक स्वागत योग्य पहल मानी जाएगी. बड़े पैमाने पर उत्पादन से सौर ऊर्जा उत्पादन का प्रति यूनिट खर्च भी कम होता जाएगा. इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही माना जाएगा कि भारत में ग्रामीण स्तर पर लगी सोलर लाइटों की देखभाल या मरम्मत पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया जाता. इसी का परिणाम है कि उनकी आयु दो-तीन वर्ष ही रह जाती है, जो कि 12 से 16 वर्ष होनी चाहिए. इस दोष के निवारण हेतु भी हमें गम्भीरता से विचार करना होगा. पंचायतों को कुछ धनराशि देकर यह ज़िम्मेदारी सौंपी जा सकती है. इन कार्यों के लिये रिसर्च कार्य को भी उच्च प्राथमिकता और पर्याप्त धनराशि उपलब्ध कराना जरूरी है. इसके साथ ही साथ जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा देने वाले उद्योगों को भी बेहतर तकनीक अपनाने के लिये प्रोत्साहित और बाध्य करना पड़ेगा. कृषि क्षेत्र में भी पूरी तरह से वैज्ञानिक शोध एवं ज्ञान पर आधारित जैविक कृषि को अपनाना होगा. तभी हम वैश्विक सुरक्षित जैव भविष्य के निर्माण में भागीदार बन सकते हैं.

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