हाल ही में,दार्जिलिंग में विरोध और आंदोलन की एक नई लहर चल रही है. इस विरोध और आन्दोलन की शुरुआत 16 मई 2017 को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी द्वारा राज्य भर में सभी छात्रों के लिए बंगाली को अनिवार्य किये जाने के कारण हुई है.
दार्जिलिंग में नेपाली बोलने वाले गोरखाओं में लोकप्रिय गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम) ने इस प्रस्ताव पर आपत्ति जताई और 8 जून को विरोध प्रदर्शन किया.गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम) ने इसे एकतरफा बंगाली संस्कृति के विकास के रूप में स्वीकार किया है और इसके विरुद्ध राज्य के जनता को एकजुट करने का प्रयास किया है.
उसी दिन जब जीजेएम के समर्थकों ने पुलिस के साथ झड़प की तो स्थिति और बदतर हो गयी तथा इस आन्दोलन ने एक हिंसक मोड़ लिया. धीरे-धीरे स्थिति नियंत्रण से बाहर हो गई और क्षेत्र में शांति बहाल करने के लिए सेना को बुलाया गया. स्थिति शाम तक बेहतर हुई.
घटनाक्रम
9 जून को जीजेएम ने "शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर अंधाधुंध पुलिस कार्रवाई" के विरोध में सुबह 6 बजे से लेकर शाम 6 बजे तक कुल 12 घंटे के बंद की घोषणा की.
बंगाल के मुख्यमंत्री ने बंद को "अवैध" बताया तथा 5 जून को मिरीक में हुई एक बैठक में जीडीएम के एक विशेष ऑडिट में वित्तीय अनियमितताओं को उजागर करने तथा इसमें संलिप्त लोगों के खिलाफ "सख्त कानूनी कार्रवाई" की चेतावनी दी.
जीजेएम क्या है?
52 वर्षीय बिमल गुरुंग के नेतृत्व में 2007 में स्थापित जीजेएम एक राजनीतिक दल है.
गोरखा राष्ट्रवाद के कारण पश्चिम बंगाल के उत्तरी जिलों में से एक अलग राज्य का निर्माण करने की मांग जीएचएम द्वारा की जा रही है.
गोरखालैंड आंदोलन का संक्षिप्त इतिहास
1907- इस वर्ष गोरखालैंड की पहली मांग मॉर्ले-मिंटो रिफॉर्म्स के पैनल को प्रस्तुत की गई थी. इसके बाद ब्रिटिश सरकार के कई अवसरों पर इसके लिए कई मांगें हुईं. आजादी के बाद बंगाल से अलग होने के लिए स्वतंत्र भारत सरकार से इसकी मांग की गयी.
1952- अखिल भारतीय गोरखा लीग ने तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू को इसे बंगाल राज्य से अलग करने की मांग करते हुए एक ज्ञापन प्रस्तुत किया.
1955- जिला शामिक संघ के अध्यक्ष दौलत दास बोखिम ने दार्जिलिंग, जलपाईगुड़ी और कूच बिहार जिले को मिलाकर एक अलग राज्य बनाने की मांग करते हुए राज्य पुनर्रचना समिति के अध्यक्ष को एक ज्ञापन प्रस्तुत किया.
1977- 81: पश्चिम बंगाल सरकार ने दार्जिलिंग और संबंधित क्षेत्रों को मिलाकर एक स्वायत्त जिला परिषद के निर्माण के समर्थन में एक सर्वसम्मत संकल्प पारित किया.इस मुद्दे पर विचार करने के लिए केंद्र सरकार को बिल भेजा गया.1981 में तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी को एक अलग राज्य की मांग करते हुए प्रान्त परिषद द्वारा एक ज्ञापन प्रस्तुत किया गया था.
1980-90: गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट सुप्रीमो सुभाष घिसिंग के नेतृत्व में 1980 के दशक में गोरखालैंड की मांग और तेज हो गई. 1986-88 की अवधि के दौरान यह आंदोलन और हिंसक हो गया तथा इस हिंसा में लगभग 1,200 लोग मारे गए. दो साल के लंबे विरोध के बाद अंततः 1988 में दार्जिलिंग गोरखा पहाड़ी परिषद (डीजीएचसी) की स्थापना की गयी.
2007- वाम मोर्चे के शासनकाल के आखिरी चरण में जीजेएम के सुप्रीमो बिमल गुरुंग के नेतृत्व में गोरखालैंड का जन आंदोलन प्रारंभ हुआ. केंद्र और राज्य सरकार द्वारा इस क्षेत्र के स्थायी समाधान के लिए संविधान के 6 ठी अनुसूची में लाकर आदिवासी क्षेत्र को स्वायत्तता प्रदान करने की 2005 के पहल के विरोध में गोरखा ने 2007 के गोरखा विद्रोह में एक स्थायी राज्य की स्थापना की मांग की. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी द्वारा गुरुंग को गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन (जीटीए) का नेता घोषित किये जाने के बाद चार साल से चल रहे इस आंदोलन का अंत हो गया.
20 जुलाई, 2013 को तेलंगाना के गठन के बाद से गोरखालैंड राज्य के लिए आंदोलन फिर से तेज हो गया है.
जीटीए के प्रमुख पद से गुरंग ने इस्तीफा दे दिया है तथा कहा है कि लोगों ने अपना विश्वास खो दिया है. अपना रुख स्पष्ट करते हुए पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा है कि बंगाल एक और विभाजन का दर्द नहीं बर्दास्त कर सकता है.
इस बंद का असर क्या है?
दार्जिलिंग, गर्मी के मौसम में पर्यटकों का एक पसंदीदा स्थान है. इस पहाड़ी क्षेत्र में अशांति ने हजारों पर्यटकों को प्रभावित किया है.दार्जिलिंग सहित उत्तरी पश्चिम बंगाल की पहाड़ियों के विभिन्न क्षेत्रों में कई पर्यटक अभी भी फंसे हुए हैं.
कई पर्यटकों ने अपनी छुट्टी का समय कम कर दिया तथा कई लोग वहां से सिलीगुड़ी चले गए हैं.
विरोध प्रदर्शनों ने दिन-प्रतिदिन के काम और व्यापार से जुड़े कार्यों को बुरी तरह से प्रभावित किया है.
निष्कर्ष
पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग की पहाड़ियों में गोरखालैंड के एक अलग राज्य की मांग का बारहमासी मुद्दा एक जादू की छड़ी से हल नहीं किया जा सकता.
बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की सोंच इस सबंध में कुछ अलग है. ऐसा लगता है कि ममता बनर्जी के अनुसार इस समस्या के समाधान के लिए करिश्मा, टोकनवाद और अल्पकालिक रणनीतिक प्रयास पर्याप्त है.
बंगाल सरकार इस बात से पूरी तरह संतुष्ट दिखती है कि गोरखा जनमुक्ति मोर्चा द्वारा किये गए कई आंदोलनों के कारण 2011 में गोरखालैंड प्रादेशिक प्रशासन (जीटीए) की सहमती से गोरखालैंड मुद्दे को हल कर लिया गया है.
इसकी स्थापना के कई वर्षों के बाद भी बहुत से विषयों पर बहुत कम काम किया गया है तथा बहुत सारे विषयों में अभी तक किये गए वादे के अनुसार इसको कोई विशेष अधिकार नहीं दिए गए हैं.
दूसरी तरफ जीजेएम का मानना है कि जीटीए एक अलग राज्य की स्थापना हेतु पहला कदम साबित होगा.
इसके अतिरिक्त प्राधिकरण पर शासन करने वाला जीजेएम भी असंगत प्रशासन का दोषी है.
अतः इसके समुचित समाधान के लिए राज्य सरकार को जीजेएम से बात कर 2011 में किये गए वादे के अनुरूप जीएटीए को शक्तियां हस्तांतरित करने का निर्णय लेना चाहिए.
फिलहाल के संकेत यही है कि इस हिंसक आंदोलन से बाहर निकलने में अभी काफी समय लगेगा.
और अंत में, यह सोच कि किसी शार्टकट से इस गोरखालैण्ड की समस्या का समाधान हो सकता है, को पूरी तरह से नजरअंदाज किया जाना चाहिए.
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