केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड वास्तव में है क्या ?
सिनेमोटोग्राफ एक्ट (चलचित्र अधिनियम), 1952 के तहत बनाई गई एक सांविधिक निकाय है केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सीबीएफसी). यह सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अधीन काम करने वाला सांविधिक निकाय है. सिनेमोटोग्राफ एक्ट पूर्व सेंसरशिप की व्यवस्था बनाते हैं जिसे तकनीकी शब्दों में 'पूर्व नियंत्रण (prior restraint)" की व्यवस्था कहा जाता है.
बोर्ड की मुख्य जिम्मेदारी यह सुनिश्चित करना है कि किसी भी फिल्म की कोई भी विषयवस्तु “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के उचित प्रतिबंध" की किसी भी श्रेणियों में न आता हो. ये प्रतिबंध संविधान के अनुच्छेद 19(2) में उल्लिखित है. संविधान के अनुच्छेद 19(2) में "मानहानि", "शालीनता या नैतिकता", "सरकारी व्यवस्था" और ऐसे ही अन्य वाक्यांशों की अवधारणा है.
सीबीएफसी के कुछ विशेष दिशानिर्देश हैं जिसमें समय– समय पर बदलाव होता रहता है. वर्तमान में ये दिशानिर्देश मुख्य रूप से तीन चीजों (अन्य चीजों के अलावा) की जांच करते हैं:
1. फिल्म में ऐसे शब्द या दृश्य न हों जो रूढ़िवादी, सांप्रदायिक, राष्ट्र–विरोधी और गैर– वैज्ञानिक रवैये को दर्शाते हों.
2. घटिया प्रवृत्ति को बताने वाले दोहरे अर्थ वाले शब्दों की अनुमति नहीं है.
3. यह इस बात की भी जांच करता है कि क्या फिल्म के किसी हिस्से में भ्रष्टता, अशिष्टता या अश्लीलता द्वारा मानवीय संवेदनशीलता का अपमान तो नहीं किया जा रहा है.
देश में किसी भी फिल्म का सार्वजनिक प्रदर्शन इस संगठन द्वारा प्रमाणित किए जाने के बाद ही किया जा सकता है.
सीबीएफसी कैसे कार्य करता है?
केंद्र सरकार एक अध्यक्ष और गैर–सरकारी सदस्यों की नियुक्ति करती है जो बोर्ड का गठन करते हैं. बोर्ड का मुख्यालय मुंबई में है. सीबीएफसी के नौ क्षेत्रीय कार्यालय हैं. ये कार्यालय मुंबई, कोलकाता, बैंगलोर, चेन्नई, हैदराबाद, तिरुवनंतपुरम, नई दिल्ली, गुवाहाटी और कटक में हैं. फिल्मों की जांच में परामर्श पैनल क्षेत्रीय कार्यालय की सहायता करते हैं. परामर्श पैनल के सदस्य जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से संबंधित होते हैं. केंद्र सरकार इन सदस्यों को दो वर्ष के कार्यकाल के लिए नामांकित करती है. भारत भर में बनाए गए बोर्ड में कुल 25 सदस्य एवं परामर्श पैनल के 60 सदस्य होते हैं. ये सभी सदस्य सूचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा नियुक्त किए जाते हैं. प्रशासनिक कार्यों के लिए सीईओ मुख्य रूप से जिम्मेदार होते हैं और क्षेत्रीय अधिकारी फिल्मों को प्रमाणित करने वाली जांच समितियों के प्रति जिम्मेदार होते हैं.
संबद्ध क्षेत्रीय अधिकारी को प्रमाणन हेतु आवेदन प्राप्त होता है और फिर वह एक जांच समिति नियुक्त करते हैं. लघु फिल्मों के मामले में जांच समिति में एक जांच अधिकारी और परामर्श समिति का एक सदस्य होता है, इनमें से एक महिला होनी चाहिए. सामान्य फिल्मों के लिए, समिति में जांच अधिकारी और परामर्श पैनल के चार सदस्य होते हैं. समिति की दो सदस्य महिलाएं होनी चाहिए.
यदि आवेदक बदलावों की सूची और प्रमाणन से संतुष्ट नहीं है तो वह समीक्षा के लिए पुनरीक्षण समीति के पास आवेदन कर सकता/सकती है. पुनरीक्षण समिति में एक अध्यक्ष, बोर्ड और परामर्श समिति का मिश्रण और समिति के नौ सदस्य होते हैं. कोई भी सदस्य जो समिति का हिस्सा था जिसने फिल्म देख ली है, उसे पुनरीक्षण समिति में शामिल नहीं किया जाएगा.
इस चरण पर भी वैसी ही प्रक्रिया अपनाई जाती है और मामले पर अंतिम फैसला अध्यक्ष करते हैं. प्रमाणपत्र पर यदि अभी भी असंतोष हो तो मामला स्वतंत्र अपीलीय न्यायाधिकरण के पास जाता है. अपीलीय न्यायाधीकरण के सदस्यों की नियुक्ति सूचना और प्रसारण मंत्रालय तीन वर्ष के कार्यकाल के लिए करता है. इसके बाद भी कोई विवाद होता है तो वह अदालत में जाता है.
प्रमाणन की प्रक्रिया
प्रमाणन की प्रक्रिया सिनेमोटोग्राफ एक्ट 1952 पर आधारित है, दिशानिर्देश केंद्र सरकार यू/एस 5 (बी) और सिनेमोटोग्राफ (प्रमाणन) नियम, 1983 द्वारा जारी किए जाते हैं.
निकाय का प्राथमिक कार्य प्रत्येक फिल्म को निम्नलिखित चार श्रेणियों में से एक श्रेणी प्रदान करना है–
यू (U): अप्रतिबंधित सार्वजनिक प्रदर्शन
ए (A): व्यस्कों के लिए प्रतिबंधित
यूए (UA): अप्रतिबंधित सार्वजनिक प्रदर्शन (माता–पिता के लिए चेतावनी का उल्लेख यानि 12 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिए माता– पिता का विवेक आवश्यक है)
एस (S): लोगों के किसी विशेष श्रेणी के लिए (जैसे– शिक्षक, डॉक्टर)
सीबीएफसी का लक्ष्य देश की आम जनता को स्वस्थ मनोरंजन प्रदान करना है. प्रमाणन की प्रक्रिया को आमतौर पर बहुत पारदर्शी रखा जाता है. कोई भी फिल्म, चाहे वह भारतीय हो या विदेशी, भारत में प्रदर्शित की जाने से पहले सीबीएफसी जरूर प्रमाणित होनी चाहिए.
फिल्म विवादों के कारण
सीबीएफसी से संबंधित कई विवादों की जड़ सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा 1978 में जारी 19– सूत्रीय दिशानिर्देश हैं जिनमें 1991 में संशोधन किया गया था. इन दिशानिर्देशों का पालन फिल्म को देखने और प्रमाणित करने वाले परामर्श पैनल के दस सदस्यों द्वारा किया जाता है. ये दिशानिर्देश फिल्म के दृश्यों में काट– छांट करने या प्रमाणित करने का सुझाव देते हैं. ऐसे मार्गदर्शन के यहां कुछ उदाहरण दिए जा रहे हैं जो सेंसर और फिल्म को प्रमाणित करने के मामले में विवाद की वजह बनेः
1. नियम 2(vi)ए कहता है कि, "तंबाकू या धुम्रपान को सही ठहराने, बढ़ावा देने या उनके आकर्षक खपत को दिखाने वाले दृश्य नहीं दिखाए जाने चाहिए." देखने वाला पैनल इसका प्रयोग कैसे करता है यह पूरी तरह से व्यक्तिपरक है.
केंद्र ने सीबीएफसी को आदेश दिया था कि वह धुम्रपान वाले दृश्यों के दौरान फिल्म– निर्माताओं के लिए डिस्क्लेमर दिखाना अनिवार्य करे. फिल्म निर्देशक अनुराग कश्यप ने इस नियम को "मनमाना, अवैध और असंवैधानिक" बताते हुए चुनौती दी थी. उच्च न्यायालय में वह केस हार गए थे.
2. दिशानिर्देश 2(vii) कहता है कि, " मानव संवेदनाओं को अश्लीलता, अशिष्टता या भ्रष्टता" द्वारा अपमानित नहीं किया जाना चाहिए। यह दिशानिर्देश 2(viii) के साथ प्रभावी संयोजन बनाता है. दिशानिर्देश 2(viii) कहता है कि "ऐसे दो अर्थों वाले शब्द जो सीधे– सीधे घटिया भावना को दर्शाते हैं, के इस्तेमाल की अनुमति नहीं है."
दिशानिर्देश 2(ix) कहता है कि ऐसे दृश्य जो किसी भी प्रकार से महिलाओं को बदनाम या नीचा दिखाता है, को नहीं दिखाया जाना चाहिए और ये सभी दृश्यों तथा गाली वाले शब्दों की सूची पर लागू होंगे. इस दिशानिर्देश को लागू करने ने, कई विवादों को जन्म दिया, हालिया विवाद उड़ता पंजाब फिल्म का है.
3. इसी प्रकार ऐसे शब्दों या दृश्यों या शब्द जो राष्ट्रीय अखंडता और संप्रभुता पर सवाल उठाते हों, देश की सुरक्षा को खतरे में डालते हों, दूसरे देशों के साथ मित्रतापूर्ण संबंधों को प्रभावित करते हैं या सार्वजनिक व्यवस्था के लिए खतरा पैदा करते हों, के इस्तेमाल की इजाजत नहीं है.
इसका एक उदाहरण है डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता पंकज भूटालिया की फिल्म " द टेक्सचर ऑफ लॉस" के काटे गए दृश्य. यह फिल्म कश्मीर के लोगों पर हिंसक उग्रवाद के दो दशकों के प्रभाव पर बनी थी.
भारत में फिल्म विवादों को हल करने के सरकार के प्रयास
भारत में फिल्मों के प्रमाणन संबंधी समस्याओं की जांच के लिए समितियों की कोई कमी नहीं है. वर्ष 1969 में खोसला समिति की रिपोर्ट ने सेंसर बोर्ड पर केंद्र के वर्चस्व को दूर करने की जरूरत का सुझाव दिया था.
हाल ही में सरकार ने सेंसरशिप की प्रक्रिया की समीक्षा के लिए आयोगों का गठन कर समस्याओं को दूर करने के लिए अधूरे मन से दो प्रयास किए. इस बारे में सरकार ने मुकुल मुद्गल समिति का गठन 2013 में किया था लेकिन इस समिति की रिपोर्ट अपर्याप्त पाई गई और अंततः कूड़ेदान में डाल दी गई.
उसके बाद फिल्मों की सेंसरशिप पर हाल ही में गठित श्याम बेनेगल समिति (2016) से उम्मीदें जागीं. बेनेगल समिति में कई प्रख्यात फिल्मी हस्तियां थीं और उम्मीद थी कि कम– से–कम इस बार मामले को अपेक्षित गंभीरता के साथ सुलझा लिया जाएगा. लेकिन समिति द्वारा जारी की गई अंतिम रिपोर्ट ने ज्यादातर उम्मीदों पर पानी फेर दिया.
रिपोर्ट के मुख्य विषय से यह संकेत मिला कि अब फोकस प्रमाणन पर है न कि सेंसरशिप पर और सीबीएफसी के सदस्यों की संख्या 25 से घटा कर 9 की जाएगी.
इसने प्रमाणन में दो और श्रेणियों को जोड़ने की बात की यानि एक श्रेणी व्यस्को के लिए और दूसरी नाबालिगों के लिए. समितियों में राजनीतिक नियुक्तियां और राज्य की राजनीति सुनिश्चित करता हैं कि फिल्में सेंसर की गईं हैं और प्रमाणित है या नहीं .
अब आगे
बेनेगल समिति भविष्य की कार्रवाई के लिए अतीत में की गई सिफारिशों पर गौर कर सकती है हालांकि बेनेगल समिति सेंसर बोर्ड में सदस्यों की नियुक्ति के लिए सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अधिकारों को कम करने की सिफारिश कर सकती है. इससे फिल्मों के प्रमाणन और सेंसर की प्रक्रिया से राजनीतिक प्रभाव को दूर रखने में मदद मिल सकती है.
बीते दशक में रचनात्मक स्वतंत्रता पर प्रतिबंधात्मक मानदंडों में ढील मिली है.एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता व्यक्तित्व के अधिकार का प्रतीक हैं. चूंकि रचनात्मक स्वतंत्रता निरंकुश अधिकार नहीं है, इसलिए ऐसे मानदंडों के पीछे के उद्देश्य की समीक्षा करने की जरूरत है. यह महत्वपूर्ण है कि सूचना और प्रसारण मंत्रालय स्वैच्छिक रेटिंग प्रणाली और उसके कार्यान्वयन की विस्तृत प्रक्रियाओं पर एक श्वेत पत्र जारी करे.
इस मामले में सीबीएफसी की धारा 5बी(1) के आधार पर फिल्मों को साफ–सुथरा बनाने और उसके दृश्यों को काटने की सलाह देती है. यदि फिल्म निर्माताओं को यह ठीक नहीं लगता तो वे इस फैसले को अदालत में चुनौती दे सकते हैं.
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