उत्तराखंड की बलि प्रथा पर आधारित फिल्म ‘आस’ को दिसंबर 2013 के अंतिम सप्ताह में दिल्ली अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में सर्वश्रेष्ठ दर्शकों की पसंदीदा फिल्म पुरस्कार (वेस्ट आडिएंश च्वाइश पुरस्कार) से सम्मानित किया गया. यह कुमाऊंनी भाषा की फिल्म है. विश्वभर की 700 फिल्मों में से इसका चयन किया गया. फिल्म “आस” को रीजनल कैटेगिरी में रखा गया.
‘पान सिंह तोमर’ के निदेशक तिग्मांशु धूलिया ने आस फिल्म के निर्माता मुकेश खुगशाल और हिमाद्री प्रोडक्शन प्रमुख मनोज धूलिया को पुरस्कृत किया. फिल्म ‘आस’ के निदेशक राहुल सिंह बोरा हैं. फिल्म एवं टीवी संस्थान, पुणे से प्रशिक्षित युवा निदेशक राहुल सिंह बोरा की इस फिल्म को निर्देशन और सिनेमेटोग्राफी के लिए भी पुस्कार मिल चुका है.
फिल्म ‘आस’ से संबंधित तथ्य
• ‘आस’ में उत्तराखंड की बलि प्रथा की कहानी बताई गयी. फिल्म रानीखेत के पास गटोली गांव के दो बच्चों और एक मेमने के बीच दोस्ती की कहानी है. मेमना जब बड़ा होता है तो बच्चे के पिता उसे बलि के लिए बेच देते हैं, लेकिन, बलि से पहले दोनों बच्चे बकरी को मंदिर से चुरा लेते हैं.
• उत्तराखंड में देवी-देवताओं को खुश करने के लिए सामान्य तौर पर बकरी, भेड़ और मुगरे की बलि चढ़ाई जाती है. फिल्म में एक बालक की एक बकरे के साथ दोस्ती को मार्मिक ढंग से दिखाते हुए बलि प्रथा पर प्रहार किया गया है.
• मंदिर में बाकर बलि किले दिनन यार, के भगवान ले बाकर बलि बे खुश होनि... (मंदिर में बकरे की बलि क्यों देते हैं यार, कौन सा भगवान बकरे की बलि से खुश होता है) फिल्म का यह संवाद बलि प्रथा पर बड़ा सवाल खड़ा करती हैं.
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