महाराष्ट्र राज्य मंत्रिमंडल ने 26 जून 2014 को शिक्षण संस्थानों में मराठों के लिए 16% और मुसलमानों के लिए 5% आरक्षण को मंजूरी दी.
यह आरक्षण इन समुदाय के गैर क्रीमी लेयर के लोगों को ही मिलेगा और तत्काल प्रभाव से लागू होगा. यह फैसला राज्य में मौजूदा 52% आरक्षण को प्रभावित नहीं करेगा और इस फैसले के बाद कुल आरक्षण बढ़ कर 73 फीसदी हो गया.
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हान ने कहा कि यह आरक्षण राज्य में इन समुदायों के पिछड़ेपन के आधार पर दिया गया है, न कि धर्म के नाम पर. यह फैसला मुसलमानों के सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक पिछड़ेपन पर बनी सच्चर समिति और रंगनाथ मिश्रा आयोग की सिफारिशों के आधार पर किया गया.
इन दो समुदायों की राज्य में कुल आबादी करीब 111 मिलियन है. इनमें से मराठों की जनसंख्या 32 फीसदी और मुसलमानों की आबादी 5 फीसदी है.
वर्ष 2007 में आंध्र प्रदेश मुसलमानों को 4% आरक्षण देने वाला पहला राज्य बना था जिसे बाद में उच्च न्यायालय ने यह कहते हुए निरस्त कर दिया कि यह टिकाउ नहीं है और ऐसा करने से संविधान के अनुच्छेद 14, 15(1) और 16(2) का उल्लंघन होता है.
टिप्पणी
महाराष्ट्र में मुसलमानों के लिए आरक्षण की मांग सबसे पहले वर्ष 2004 में उठी थी. तब विलासराव देशमुख मुख्यमंत्री थे. मराठों के लिए आरक्षण की मांग बहुत पुरानी है. इन समुदायों को आरक्षण देने के फैसले के बाद कई लोगों इसे आगामी विधानसभा चुनावों के मद्देनजर इन समुदाय के लोगों को रिझाने के लिए उठाया गया कदम बता रहे हैं. इसके अलावा, महाराष्ट्र सरकार के इस कदम को सुप्रीमकोर्ट में चुनौती दी जा सकती है क्योंकि इस फैसले से सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित 50% आरक्षण की सीमा का उल्लंघन होता है.
वर्ष 1992 में सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ ने मंडल आयोग द्वारा ओबीसी को दिए जाने वाले आरक्षण की सिफारिश को संवैधानिक रूप से वैध बताते हुए सभी प्रकार के आरक्षण के लिए 50% की अधिकतम सीमा निर्धारित की थी.
सुप्रीम कोर्ट द्वारा 50% की आरक्षण सीमा निर्धारित करने के बावजूद अभी भी ऐसे राज्य हैं जो 50% से अधिक आरक्षण दे रहे हैं. उदाहरण के लिए आंध्र प्रदेश, यहां 83% से भी अधिक आरक्षण दिया जा रहा है जबकि तमिलनाडु में यह 69% है.
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