6 अप्रैल 2015 को भारत के सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को अपने पूर्व पति से भत्ता मांगने का हक है. ऐसी महिलाएं आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 125 जो कि पत्नियों, बच्चों और माता-पिता को भी भत्ता प्रदान कराता है, के तहत के तहत भत्ता प्राप्त करने की हकदार हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने पारिवारिक अदालत के उस आदेश को बरकार रखा जिसमें एक व्यक्ति को अपनी तलाकशुदा पत्नी को बतौर रखरखाव 4000 रुपये अदा करने का निर्देश दिया गया था और कहा कि सीआरपीसी की धारा 125 के तहत एक पत्नी का रखरखाव पाने का अधिकार पूर्ण है और कोई अपवाद नहीं बनाया जा सकता है. यह नियम मुस्लिम तलाकशुदा महिलाओं पर भी लागू होता है.
इसमें आगे कहा गया कि सीआरपीसी की धारा 125 के तहत भत्ता की राशि इद्दत अवधि (तीन माह) के लिए ही प्रतिबंधित नहीं की जा सकती और धारा 125 में निहित इसका उद्देश्य वित्तीय स्थिति में सुधार करना भर है.
यह भी कहा गया कि सीआरपीसी की धारा 125 के तहत एक आदेश तभी पारित किया जा सकता है अगर कोई व्यक्ति पर्याप्त साधन होने के बावजूद, अपनी पत्नी को नजरअंदाज या उसको भत्ता देने से मना करता है. अदालत ने इस दलील को मानने से इनकार कर दिया कि कभी– कभी पतियों की स्थिति भुगतान करने योग्य नहीं होती क्योंकि उनके पास नौकरी नहीं होती या उनका व्यापार ठीक से नहीं चल रहा होता.
फैसला जस्टिस दीपक मिश्रा और जस्टिस प्रफुल्ल सी पंत के सुप्रीम कोर्ट खंडपीठ ने शमीमा फारुखी के मामले पर सुनवाई के दौरान किया.
मामला क्या है?
मामला शमीमा फारूखी के साथ उसके पति शाहिद खान, सेना के कर्मचारी जिसने पहले उसे तलाक दिया और फिर से उसी से निकाह किया, के दुर्व्यवहार का है.
उसने 1998 में एक पारिवारिक अदालत में अपने पति से भत्ता की मांग के लिए मुकदमा दायर किया था. उसके आवेदन पर सुनवाई 2012 मे शुरु हुई. पारिवारिक अदालत ने उसके पक्ष में फैसला सुनाया और पाया कि अपने जीवन को चलाने के लिए उसके पास कोई और जरिया नहीं है, इसलिए शुरुआत में 2000 रुपये मासिक और फिर बाद में 4000 रुपये मासिक देने का निर्देश उसके पति को दिया.
पारिवारिक अदालत के इस फैसले को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई थी जिसने भत्ता की राशि को यह देखते हुए कि पति 2012 मे सेना से सेवानिवृत्त हो चुका है, कम कर 2000 रुपये मासिक कर दी.
फैसले का महत्व
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का महत्व इसलिए है क्योंकि इसने यह स्पष्ट कर दिया कि देश का नागरिक कानून किसी भी निजी कानून से अधिक मजबूत है. यह तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को मदद करेगा जिनके रखरखाव प्राप्त करने के अधिकार को मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों की रक्षा) अधिनियम, 1986 को राजीव गांधी सरकार ने शीर्ष अदालत के शाह बानो फैसले के मद्देनजर संसद में पारित किया था.
शाह बानो मामला 60 वर्षीय शाह बानो से संबंधित है जो अपने पति द्वारा तलाक दिए जाने के बाद भत्ता की मांग को लेकर सुप्रीम कोर्ट गईं थीं. अदालत ने उनके पक्ष में फैसला सुनाया और अन्य भारतीय महिलाओं की तरह ही उन्हें भी सीआरपीसी की धारा 125 के तहत पूर्व पति से भत्ता पाने का हकदार बताया.
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