1947 में जब भारत नवजात था और कश्मीर पर संकट गहराया, तब लेफ्टिनेंट कर्नल रंजीत राय सबसे आगे खड़े मिले जिन्होंने दुश्मन के सामने सीना तान दिया। उनका बलिदान इस बात की मिसाल है कि राष्ट्र सबसे पहले होता है।
"उन्होंने पीछे हटने का नाम नहीं लिया। वह उठे और लड़े, उस राष्ट्र के लिए जो अभी जन्म ले रहा था।" यह कहानी है एक ऐसे योद्धा की, जिसने भारत के अस्तित्व की पहली परीक्षा में अपने प्राणों की आहुति दी। मैं तीसरी पीढ़ी का सैनिक हूं, और आज भी मेरे पिता की कांपती आवाज़ में सुनाई वो कहानी मेरे दिल में जीवित है, जब उन्होंने 1947 की उस पहली लड़ाई को अपनी आंखों से देखा था।
बंटवारे की आग और कश्मीर संकट
1947 का साल था, भारत आज़ाद तो हो गया था, लेकिन ज़ख्म अभी ताज़ा थे। बंटवारे के दर्द से देश कराह रहा था और कश्मीर एक अनिश्चित मोहरे की तरह शांति और अशांति के बीच झूल रहा था। महाराजा हरि सिंह अभी निर्णय नहीं ले पाए थे, और इसी का फायदा उठाकर पाकिस्तान ने कबायली लड़ाकों को कश्मीर में घुसा दिया। मुज़फ़्फराबाद जल रहा था, बारामुला पर हमला होने वाला था और श्रीनगर खतरे में था।
एक नाम, जो इतिहास की पंक्तियों से बाहर चमका
इन्हीं भयावह परिस्थितियों में, भारतीय सेना के 1 सिख रेजिमेंट के कमांडिंग ऑफिसर लेफ्टिनेंट कर्नल रंजीत राय को श्रीनगर भेजा गया। 35 वर्ष की आयु में ही वे शांति और संकल्प का प्रतीक थे। आदेश था—एयरपोर्ट को सुरक्षित करना और दुश्मनों को रोकना। यही भारत की पहली सैन्य प्रतिक्रिया थी, और रंजीत राय इस "पहली लौ" के अग्रदूत थे।
बारामुला की धरती पर वीरता का प्रदर्शन
27 अक्टूबर 1947 को जब कर्नल रंजीत राय और उनकी टुकड़ी श्रीनगर में उतरी, तब समय उनके पास बहुत कम था। उन्होंने अपने सीमित संसाधनों के बावजूद, बिना किसी तोपखाने या अतिरिक्त सहायता के, मोर्चा संभाला। उन्होंने न केवल आदेश दिए बल्कि अग्रिम पंक्ति में रहकर नेतृत्व किया।
आखिरी मोर्चा और पहला बलिदान
बारामुला के पास जब उनकी टुकड़ी पर ज़बरदस्त गोलीबारी हुई, तब कर्नल राय ने अंतिम और साहसिक निर्णय लिया—विभाजित होकर दुश्मन को घेरने का। वह खुद मोर्चे पर आगे बढ़े और दुश्मन की गोली का शिकार हुए। उनका बलिदान व्यर्थ नहीं गया, दुश्मन भ्रमित होकर रुक गया और भारतीय सेना को दो दिन का समय मिल गया। यही दो दिन श्रीनगर को बचा ले गए।
जो छोड़ा वो सिर्फ जमीन नहीं, एक प्रेरणा थी
कर्नल राय को मरणोपरांत महा वीर चक्र से सम्मानित किया गया। उनका नाम अखबारों की हेडलाइन से मिट सकता है, पर उनके साहस की गूंज आज भी सिख रेजिमेंट की सभाओं में सुनाई देती है। उनकी बेटी को बाद में एक पत्र मिला जिसमें उन्होंने लिखा था-
"यदि यह मेरा अंतिम पत्र है, तो जान लेना कि मैंने निराश होकर नहीं, विश्वास के साथ दम तोड़ा है।"
कश्मीर आज सिर्फ एक भूभाग नहीं है, यह उन बलिदानों की गवाही है, जो देश के लिए दिए गए।
रंजीत राय पहला दीपक थे, जिनकी लौ आज भी हमारे दिलों में जल रही है, संवेदनाओं, कर्तव्यों और बलिदान की लौ।
लेफ्टिनेंट जनरल शौकिन चौहान, पीवीएसएम, एवीएसएम, वाईएसएम, एसएम, वीएसएम, पीएचडी भारत रक्षा पर्व के लिए विशेष रूप से इन कहानियों को लिखने के लिए आगे आए हैं।
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