19 जुलाई 2017 को सर्वोच्च न्यायलय की नौ न्यायाधीशों की पीठ के मुख्य न्यायाधीश जगदीश सिंह खेहर ने बहस की सुनवाई शुरू की और दो महत्वपूर्ण प्रश्नों पर फैसला किया-
1.हमारे संविधान के तहत गारंटीकृत "गोपनीयता का अधिकार" क्या है ?
2.यदि इस तरह के अधिकार मौजूद हैं, तो इनके स्रोत क्या है और इस तरह के अधिकार का स्वरुप क्या हैं ? क्योंकि संविधान में इस विषय में कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है.
पृष्ठभूमि
अक्टूबर 2015 में संविधान के अनुच्छेद 145 (3) के तहत सर्वोच्च न्यायालय (एससी) द्वारा पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ बनाई गई थी.
पीठ ने मुख्य रूप से जस्टिस के एस पुट्टस्वामी (सेवानिवृत्त) और भारतीय संघ तथा अन्य मामलों के संघ के साथ काम किया, जिसने आधार कार्ड योजना के खिलाफ आपत्ति जतायी थी. याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि सामाजिक सुरक्षा का लाभ (आधार अधिनियम, 2016 के साथ पढ़ें) उठाने के लिए आधार नामांकन को जरुरी शर्त बनाना असंवैधानिक है क्योंकि यह नागरिकों के गोपनीयता के अधिकार का हनन है.
याचिकाकर्ताओं के अनुसार, आधार नामांकन के लिए जनसांख्यिकीय और जैव-मैट्रिक जानकारी प्रस्तुत करने की आवश्यकता पड़ती है और इस कारण यह व्यक्तियों के गोपनीयता के अधिकार का उल्लंघन करता है.
सुप्रीम कोर्ट ने 9-सदस्यीय संवैधानिक पीठ क्यों बनाया था?
5 सदस्यीय बेंच ने मामले को एक बार फिर से सभी के लिए तय करने हेतु 9 सदस्यीय संवैधानिक न्यायालय को संदर्भित किया. 9-सदस्यीय पीठ ने मुख्य रूप से अलग-अलग शक्तियों के बेंच द्वारा अलग-अलग समय में सुप्रीम कोर्ट द्वारा घोषित कानून (कानून में गोपनीयता के अधिकार के संबंध में) के रूप में स्पष्ट अप्रत्याशित विरोधाभासों की छानबीन किया.
1954 में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एम सी महाजन की अगुवाई वाली सुप्रीम कोर्ट की आठ सदस्यीय न्यायाधीश पीठ ने कहा था कि संविधान निर्माताओं द्वारा गोपनीयता का अधिकार मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता प्राप्त नहीं है और इसलिए इसे बनाये रखने को लेकर चिंता की कोई जरुरत नहीं है.
यह फैसला मध्य प्रदेश शर्मा बनाम सतीश चंद्र मामले में दिया गया, जिसे 1963 में यू.पी. के खारक सिंह बनाम राज्य मामले में और अधिक मजबूत किया गया.
ये दोनों निर्णय दशकों तक गोपनीयता के अधिकार के मुद्दे पर शीर्ष न्यायपालिका के दृष्टिकोण पर हावी रहें. स्पष्ट रूप से इन दोनों निर्णयों के आधार पर गोपनीयता न तो एक मौलिक अधिकार है और न ही गारंटीकृत.
हालांकि इसके बाद के वर्षों में दो न्यायाधीशों के कई छोटे न्यायपीठों का मानना रहा है कि गोपनीयता वास्तव में संविधान के लिए मौलिक है. एमपी शर्मा (8 न्यायाधीश) और खराक सिंह (6-न्यायाधीश) मामलों में अंकगणितीय वर्चस्व द्वारा इसकी मौलिकता को सुनिश्चित किया गया.
उदाहरण के लिए, आर राजगोपाल बनाम राज्य तमिलनाडु (1994) के मामले में, जिसे ऑटो शंकर के मामले और पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले 1997 के रूप में भी जाना जाता है, सुप्रीम कोर्ट ने घोषित किया है कि संविधान के अनुसार,गोपनीयता एक मौलिक अधिकार है .
आर. राजगोपाल के मामले में यह माना गया था कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत "गोपनीयता का अधिकार" निहित है, पीयूसीएल के मामले में यह कहा गया था कि "गोपनीयता का अधिकार" संविधान के अनुच्छेद 19 1 क और 21 में वर्णित मौलिक कर्तब्य के अंतर्गत आता है.
क्यों गोपनीयता का अधिकार एक अपरिहार्य अधिकार है?
1. गोपनीयता का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 का एक अपरिहार्य हिस्सा है. इसके अलावा, भारत संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकारों के सार्वभौम घोषणा पर हस्ताक्षर करने वाले देशों में से एक है. इसमें गोपनीयता का अधिकार भी वर्णित है और इसका सम्मान किया जाना चाहिए.
2. इसका उल्लंघन लोकतंत्र के लिए एक अभिशाप है क्योंकि गोपनीयता स्वयं के अभिव्यक्ति के लिए एक अनिवार्य शर्त है.
3. चूंकि राज्य एजेंसियां शक्तिशाली निगरानी तंत्र से लैस हैं, इसलिए राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था में 'कुलीन' लोगों द्वारा व्यक्तिगत डेटा (जैसे -जैव मेट्रिक्स) का विरोध किया जाता है.
4. यद्यपि नीति निर्माताओं को अपने नागरिकों के विषय में पता होना चाहिए. लेकिन निचले स्तर के नौकरशाही द्वारा क्षुद्र लाभों के लिए डेटा का दुरुपयोग किया जा सकता है.
गोपनीयता का अधिकार पवित्र क्यों नहीं है ?
1. गोपनीयता का अधिकार कोई कानूनी अधिकार नहीं है क्योंकि भारत के संविधान में कहीं भी इसका उल्लेख नहीं किया गया है.
2. जब नागरिकों / निवासियों को के पास छिपाने के लिए कुछ भी नहीं है तो देश की भलाई के लिए कुछ वैध संस्थाओं को अपनी गोपनीय जानकरी देने में समस्या क्या है ?
3. इसे गोपनीयता का उल्लंघन कहे जाने के बजाय इस पहल को समझना चाहिए कि सरकार अपने नागरिकों को बेहतर तरीके से जानने के लिए असली प्रयास कर रही है, जो कि भारत जैसे विविधता पूर्ण देशों में कमजोर संसाधनों के कुशल आवंटन के लिए जरूरी है.
4. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कोई भी अधिकार पूर्ण नहीं है और यह बात गोपनीयता के अधिकार पर भी लागू होती है.
नागरिकों के मामले का क्या महत्व है?
1954 के सांसद शर्मा मामला के अनुसार भौतिक स्तर पर खोज और जब्ती तक ही गोपनीयता के अधिकार का दायरा सीमित नहीं है. डिजिटल क्षेत्र में व्यक्तियों और कॉर्पोरेटों की बढ़ती संख्या के साथ साथ इंटरनेट पर सरकार के एकाधिकार के मामले को लेकर गोपनीयता के मामले में राज्य में नागरिकों की भूमिका को परिभाषित करने की आवश्यक्ता है.
उदाहरण के लिए, यूआईडीएआई ने 15 फरवरी 2017 को ऐक्सिस बैंक लिमिटेड और ई-साइन प्रदाता ई-मुरुध्र के खिलाफ पुलिस शिकायत दर्ज कराई थी. शिकायत में यह कहा गया था कि उन्होंने बायोमैट्रिक्स को अवैध रूप से संग्रहित करके अनधिकृत प्रमाणीकरण और प्रतिरूपण का प्रयास किया है.
हालांकि, अब तक भारत में नागरिकों की गोपनीयता पर अत्यधिक अतिक्रमण नहीं हुए हैं लेकिन कुछ अंतरराष्ट्रीय घटनाओं जैसे 9/11 के बाद की अवधि में एनएसए के नागरिकों की निगरानी जिसका खुलासा एडवर्ड स्नोडेन द्वारा किया गया और यूके में रुपर्ट मर्डोक की पत्रिकाएं बताती हैं कि आधुनिक समाज में कमजोर नागरिकों की गोपनीयता क्या है ?
निष्कर्ष
भारत के संविधान की शुरुआत हम भारत के लोग शब्द से होता है जो यहाँ के सभी लोगों का प्रतिनिधित्व करता है. नागरिकों को यह समझना चाहिए कि एक लोकतंत्र के अंतर्गत कोई भी अधिकार पूर्ण नहीं है और सरकार को प्रभावी तरीके से कार्य करने में सक्षम बनाने के लिए उन्हें अपने अधिकारों का एक हिस्सा इसमें शामिल करना होगा. दूसरी ओर नागरिकों की निजी मामलों को निपटाने के दौरान सरकार को संयम दिखाना चाहिए और गलत सन्दर्भ में गोपनीयता के उल्लंघन के मामलों से निपटने के लिए विश्वसनीय प्रक्रियाओं को स्थापित करना चाहिए.
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