हाल ही में केंद्रीय विधि मंत्रालय ने विधि आयोग को समान नागरिकता कानून से संबंधित सभी मुद्दों की विस्तार से जांच करने और सरकार को इस बारे रिपोर्ट सौंपने को कहा। विधायी विभाग ने विधि आयोग को ‘समान नागरिकता कानून से संबंधित मामलों’ पर गहराई से जांच के लिए टिप्पणी भी की।
भावनात्मक मुद्दाः
• समान नागरिकता कानून पर विधि आयोग से सरकार का ये अनुरोध बीते कई वर्षों में इससे संबंधित मामलों में हुए विकास के मद्देनजर किया गया है।
• पिछले वर्ष सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएं भारतीय कानून के तहत अपने भूतपूर्व पतियों से कानूनी तौर पर गुजारा भत्ता पाने की हकदार थीं। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को इस कानून पर तत्काल फैसला लेने को भी कहा।
• वर्ष 2011 में, दिल्ली उच्च न्यायालय में एक मुस्लिम पुरुष ने यह कहते हुए कि यह कानून मुसलमानों पर लागू नहीं होता, अपील की थी कि अपनी भूतपूर्व पत्नि को गुजारा भत्ता देने के लिए उसे मजबूर नहीं किया जा सकता। दिल्ली उच्च न्यायालय ने उसकी इस अपील को खारिज कर दिया था।
• इन घटनाओं को संविधान के राज्य के नीति निर्देशक तत्वों के समग्र संदर्भ में देखा जाना चाहिए जो राज्य पर समान नागरिकता कानून (धारा– 44) लागू करने की बात करता है।
• जब संविधान लागू हुआ, राष्ट्रीय एकता के लक्ष्य के मद्देनजर पृथक निर्वाचक मंडल को समाप्त कर दिया गया, धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों और उनके धार्मिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों की रक्षा के लिए पर्याप्त सुरक्षा उपाय किए गए थे। इस बात को ध्यान में रखते हुए केंद्र में बनने वाली अन्य सरकारों ने इससे दूरी बनाई रखी।
• एक बात और ध्यान में रखी जानी चाहिए कि समान नागरिकता कानून होने का अर्थ सिर्फ यह नहीं है कि चिंता का विषय सिर्फ सबड़े बड़े अल्पसंख्यक और मुस्लिम हैं। अन्य समुदाय भी हैं जिनके विवाह, तलाक, गोद लेने, गुजारा भत्ता और उत्तराधिकार के मामले पर खुद के नागरिक कानून और रीति– रिवाज हैं।
• लेकिन अब धार्मिक समुदायों के हिमायती समूहों द्वारा समान नागरिकता कानून की मांग के साथ परिवर्तन के स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं। मुस्लिम महिलाओं का हिमायती समूह– भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन तीन बार तलाक बोल कर पत्नी से तलाक लेने के खिलाफ अभियान चला रहा है।
• हालांकि सरकार को ऐसे मामलों में सावधानीपूर्वक आगे बढ़ना चाहिए क्योंकि ये संवेदनशील विषय है और इसलिए भावनात्मक भी हो सकता है।
भारत में समान नागरिकता कानून की जरूरत क्यों?
• सबसे पहला, एक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य में धार्मिक प्रथाओं के आधार पर बने अलग– अलग नियमों की बजाए सभी नागरिकों के लिए आम कानून की जरूरत होती है।
• समान नागरिकता कानून की जरूरत के पीछे एक दूसरी वजह है– लैंगिक न्याय। धार्मिक कानून, चाहे वह हिन्दू हो या मुस्लिम, के तहत महिलाओं के अधिकार आमतौर पर सीमित होते हैं। इसका आदर्श उदाहरण है– मुस्लिम धर्म में तीन बार तलाक बोलकर पत्नि से तलाक लेने की प्रथा।
• समान नागरिकता कानून की मांग को सांप्रदायिक राजनीतिक के संदर्भ में बनाया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। अच्छी नियत वाले कई लोग इसे सामाजिक सुधार की आड़ में बहुसंख्यवाद के रूप में देखते हैं।
• यहां तक की अदालतों ने भी अपने फैसलों में अक्सर यह कहा है कि सरकार को समान नागरिक कानून की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। शाह बानो मामले का फैसला सब जानते हैं लेकिन अदालतों ने ऐसी ही बातें कई अन्य प्रमुख फैसलों में भी की हैं।
• सरकार को विश्वास जीतने के लिए बहुत कड़ी मेहनत करनी होगी लेकिन इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है धार्मिक रुढ़िवादियों की बजाए समाज सुधारकों के साथ आम कारण बनाना।
• सर्वग्राही दृष्टिकोण की बजाए सरकार को विवाह, गोद लेना, उत्तराधिकार और गुजारा भत्ता जैसे अलग– अलग पहलुओं को चरणबद्ध तरीके से समान नागरिकता कानून के दायरे में लाना होगा।
• गोवा में नागरिक कानून पुर्तालियों के नागरिक प्रक्रिया कानून, 1939 की तर्ज पर बनाया गया है– जो राष्ट्रीय बहस के लिए उपयोगी शुरुआती मुद्दा हो सकता है। इस तटीय राज्य ने भारतीय संघ में शामिल होने के बाद भी सभी समुदायों के साथ एक समान व्यवहार करना जारी रखा।
• लैंगिंक न्याय के संदर्भ में कई अन्य कानूनों की व्यापक समीक्षा के साथ सरकार को समान नागरिकता कानून की दिशा में आगे बढ़ने के लिए पूरक कदम उठाने होंगे।
• मूल सिद्धांत यह होना चाहिए कि संवैधानिक कानून एक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य में धार्मिक कानून के उपर हो।
• संविधान को लागू हुए अब 66 वर्ष हो चुके हैं। समान नागरिकता कानून की ओर निर्णायक कदम उठाने का यह महत्वपूर्ण समय है। अगर अभी नहीं, तो कब?
कानून और प्रभाव
• विवाह, तलाक, उत्तराधिकार, गोद लेने और गुजारा भत्ता के बारे में प्रत्येक धर्म के लिए भारत में अलग– अलग कानून हैं।
• 1950 के दशक में हिन्दू कानून का आधुनिकीकरण किया गया था लेकिन ईसाइयों और मुसलमानों में औपनिवेशिक युग के अवशेष अब भी मौजूद हैं।
• अगर समान नागरिक कानून को अधिनियमित किया जाता है तो सभी वैयक्तिक कानूनों का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा।
• इसे मुस्लिम कानून, हिन्दू कानून और ईसाइ कानून में लैंगिक पूर्वाग्रहों को दूर करना होगा क्योंकि इन धर्मों की महिलाओं द्वारा अक्सर समानता के अधिकार का उल्लंघन के आधार पर मामले दर्ज कराए जाते हैं।
• बहुविवाह, तीन बार तलाक का कहा जाना और ऐसी ही अन्य प्रथाएं, जो काफी हद तक महिलाओं के लिए पक्षपाती हैं, इतिहास बन कर रह जाएगा।
संवैधानिक पेंच
• अनुच्छेद 44 कहता है कि विभिन्न धार्मिक समुदायों के व्यक्तिगत कानूनों के स्थान पर देश भर में समान नागरिकता कानून बनाने के लिए राज्य काम करेंगे।
• ये प्रावधान राज्य के नीति निर्देशक तत्व का हिस्सा हैं जिसे किसी भी अदालत द्वारा लागू नहीं किया जा सकता।
• लेकिन अनुच्छेद 37 के अनुसार, सरकार कानून बनाने में इन सिद्धांतों को लागू करने के लिए कर्तव्यबाध्य है।
जातीय कानून (The personal law):
• ज्यादातर लोग यह मानते हैं कि हमारे देश में आम नागरिक कानून नहीं हैं। वास्तविकता यह है कि, सिर्फ एक कानून को छोड़कर सभी नागरिक कानून आम होते हैं। वह कानून है– जातीय कानून जो धार्मिक समूहों के साथ बदलता रहता है। जातीय कानून विवाह, तलाक, उत्तराधिकार और विरासत, गुजारा भत्ता, बच्चे की अभिरक्षा और गोद लेना, से संबंधित होता है।
• परंपरा के अनुसार, जातीय कानून के साथ धार्मिक स्तर पर व्यवहार किया जाता है हालांकि धर्म से इसका कोई लेना– देना नहीं है।
• मानवाधिकारों और समानता, निष्पक्षता एवं न्याय के सिद्धांतों के साथ समान जातीय कानून की वांछनीयता से इनकार नहीं किया जा सकता है। वास्तव में, ये मानदंड किसी भी सभ्य समाज में सभी मानवीय लेन– देन में अपनाया जाता है।
• सवाल कानून को अमल में लाने के लिए अपनाए जाने वाले उचित तरीके का है।
• हिन्दुओं के कई वर्गों में विधवाओं के पुनर्विवाह पर रोक समेत बाल विवाह, परित्यक्त और तलाकशुदा महिलाओं के लिए मूल अधिकारों का न होना और अनाथ एवं छोड़ दिए गए बच्चों की स्थिति का सवाल आज भी मानवीय कठिनाइयों को दर्शाता है जिसे इस देश को 21वीं सदी में झेलना पड़ रहा है।
यूसीसी
• संविधान के अनुच्छेद 44 के अनुसार, राज्य " भारत की सीमा में नागरिकों के लिए समान नागरिकता कानून प्राप्त करने का प्रयास" करेगा।
• नागरिक कानूनों में समरुपता प्राप्त करने के प्रयास हेतु निर्देश, विशेष रूप से, इस प्रकार के कानून को सीधे– सीधे अधिनियमित करने के लिए संसद के लिए नहीं बल्कि राज्य के सभी अंगों के लिए है।
• देश के सर्वोच्च न्यायालय ने इस नीति निर्देश से सरकार को बार– बार याद दिलाया है लेकिन हमेशा ही अपने गैरन्यायोचित प्रकृति का सम्मान किया है और किसी भी प्रकार के निर्देश जारी करने से बचा है।
• सर्वोच्च न्यायालय के सरला मुद्गल फैसले में चेताया गया था कि, " समान नागरिकता कानून की वांछनीयता पर शायद ही संदेह किया जा सकता है लेकिन इसे तभी मूर्त रूप दिया जा सकता है जब समाज के अभिजातों और राजनेताओं द्वारा उचित सामाजिक माहौल तैयार किया जाए, व्यक्तिगत छवि सुधारने की बजाए उपर उठें और जनता को परिवर्तन स्वीकार करने के लिए जागरूक बनाएं" सभी हितधारकों से गंभीर चिंतन करने की मांग करता है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारतीय मुसलमानों द्वारा तीन बार तलाक कहने की प्रथा नैतिका, समझदारी या मानवाधिकारों के अनुसार उचित नहीं है और इस प्रथा को जितनी जल्द हो सके समाप्त करने की आवश्यकता है। कई मुस्लिम देशों ने जातीय कानून के प्रावधानों में संशोधन कर द्विविहार और तलाक, तलाक, तलाक कह कर तलाक दे देने पर रोक लगा दी है। इसमें कोई शक नहीं है कि मुस्लिम महिलाएं भी समान अधिकार– खुल्ला की अधिकारी हैं, इसमें अभी कई तरह के प्रतिबंध हैं और पूरे मामले में पितृसत्ता का ही वर्चस्व रहता है, इसलिए इसका अप्रभावी रहना ही अच्छा है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि सभी जातीय कानूनों को पुरुषों और महिलाओं दोंनों ही के लिए न्यायसंगत होना चाहिए। इसलिए सभी जातीय कानूनों को अच्छा स्वरूप अपनाना चाहिए और बुरे स्वरूपों को त्याग देना चाहिए। इसलिए एकसमान कानून, यदि और जब भी अधिनियमित हो, उसे सभी धार्मिक समुदायों के जातीय कानूनों से अलग होना होगा। इसे सभी धार्मिक समूहों के बीच आम सहमति से तैयार किया जाएगा और स्वतंत्रता, समानता, समझदारू, न्याय और मानवता के आधुनिक मूल्यों के अनुरुप इसे पुरुषों और महिलाओं, दोनों ही के लिए अनुरुप होना होगा। यह सच है कि यदि एक तर्कसंगत आम जातीय कानून बनाया गया तो यह समुदायों में से कई बुराईयों, अन्यायपूर्ण एवं तर्कहीन प्रथाओं को हटाने में मदद करेगा और देश की एकता और अखंडता को भी मजबूत बनाएगा।
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