सर्वोच्च न्यायालय ने एक अहम फैसले में यह व्यवस्था दी कि उच्च न्यायालयों को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निरस्त याचिका की समीक्षा करने का अधिकार है. साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में यह भी बताया कि उसकी टिप्पणियों को कानून या मिसाल नहीं माना जाना चाहिए. न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू और न्यायमूर्ति ज्ञान सुधा मिश्रा की खंडपीठ ने 9 मार्च 2011 को आंध्र प्रदेश के गंगाधर की याचिका पर यह निर्णय दिया.
सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने अपने निर्णय में बताया कि उसके किसी फैसले से संविधान समीक्षा का अधिकार लुप्त नहीं हो जाता. क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश या निर्णय संविधान में परिवर्तन करने की शक्ति नहीं रखते. खंडपीठ ने बताया कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 136 विवेकाधीन प्रतिकार का हक देता है. जिसे विभिन्न तर्कों के आधार पर खारिज किया जा सकता है न की वरीयता के आधार पर.
न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू और न्यायमूर्ति ज्ञान सुधा मिश्रा की खंडपीठ ने अपने निर्णय में यह भी तर्क दिया कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विशेष अनुमति याचिका खारिज करने के बावजूद अगर उच्च न्यायालय उसकी समीक्षा याचिका को स्वीकार कर लेता है, तो सर्वोच्च न्यायालय को इससे खुद को तिरस्कृत महसूस नहीं करना चाहिए. खंडपीठ ने तिरस्कार के बजाय विधिक सिद्धांत के निर्धारण पर बल दिया.
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