गोपनीयता के अधिकार पर फिर से गौर करने की जरूरत क्यों ?

Oct 28, 2015, 16:27 IST

संविधान के अनुच्छेद 145(3) के तहत अक्टूबर 2015 के दूसरे सप्ताह में सुप्रीम कोर्ट (एससी) के पांच– सदस्यों वाली संविधान पीठ का गठन किया गया, ताकि वे दो महत्वपूर्ण प्रश्नों पर बहस कर सकें और उस पर फैसला दे सकें–

संविधान के अनुच्छेद 145(3) के तहत अक्टूबर 2015 के दूसरे सप्ताह में सुप्रीम कोर्ट (एससी) के पांच– सदस्यों वाली संविधान पीठ का गठन किया गया, ताकि वे दो महत्वपूर्ण प्रश्नों पर बहस कर सकें और उस पर फैसला दे सकें–

क्या हमारे संविधान के तहत "गोपनीयता के अधिकार" की गारंटी दी जाती है?

अगर ऐसा कोई अधिकार मौजूद है, तो उसका स्रोत क्या है और ऐसे अधिकार की रूपरेखा क्या है क्योंकि संविधान में इसका कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है?

अब यह मुद्दा सुर्खियों में क्यों आया?

अदालत ने यह मामला जस्टिस के एस पुट्टास्वामी (सेवानिवृत्त) बनाम भारत संघ एवं अन्य के मामले की सुनवाई के दौरान उठाने का फैसला किया. यह मामला आधार कार्ड योजना से संबंधित था. इस मामले में यह तर्क प्रस्तुत किया गया कि सामाजिक सुरक्षा के लाभ प्राप्त करने हेतु पूर्व शर्त के तौर पर आधार नामांकन करना असंवैधानिक है क्योंकि यह नागरिकों के गोपनीयता के अधिकारों का हनन है.

याचिकाकर्ताओं के अनुसार आधार नामांकन में जनसांख्यिकी और बायोमिट्रिक जानकारी दी जाती है और इसलिए यह लोगों के गोपनीयता के अधिकार का उल्लंघन करता है.

गोपनीयता के अधिकार के संबंध में विरोधाभास

सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को उठाया क्योंकि यह सुप्रीम कोर्ट में विचारार्थ आया था. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इसी कोर्ट द्वारा गोपनीयता के अधिकार के संबंध में घोषित कानून में प्रथम द्रष्टया अनसुलझा विरोधाभास है.

सुप्रीम कोर्ट के नौ– सदस्यों वाले जजों की पीठ, जिसकी अध्यक्षता तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एम सी महाजन ने 1954 में की थी. फैसला दिया था कि गोपनीयता के अधिकार को संविधान निर्माताओं ने मौलिक अधिकार की मान्यता नहीं दी. इसलिए इसे कानून का रूप देने की कोई जरूरत नहीं है.

यह फैसला एमपी शर्मा बनाम सतीश चंद्रा मामले में दिया गया. जिसे बाद में 1963 में खड़क सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले में प्रबलित किया गया. बाद के फैसलों में सुप्रीम कोर्ट ने गोपनीयता का अधिकार को मौलिक अधिकार बताया क्योंकि यह संविधान में शामिल है.

ऐसे मामलों में सबसे महत्वपूर्ण मामला आर राजगोपाल बनाम तमिलनाडु सरकार (1994), जो ऑटो शंकर मामले के नाम से लोकप्रिय है और दूसरा मामला था पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) बनाम भारत संघ मामला (1997) .

आर राजगोपाल के मामले में यह कहा गया कि "गोपनीयता का अधिकार" संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत आता है जबकि पीयूसीएल के मामले में कहा गया कि "गोपनीयता का अधिकार" मौलिक अधिकारों का हिस्सा है क्योंकि यह संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) और 21 का हिस्सा है.

गोपनीयता के पक्ष में तर्क

गोपनीयता का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 का अभिन्न हिस्सा है. चूंकि भारत संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकारों के वैश्विक घोषणा का एक हस्ताक्षरकर्ता है, जिसमें गोपनीयता का अधिकार एक हिस्सा है, तो इसे उसका सम्मान करना चाहिए.

चूंकि गोपनीयता आत्म अभिव्यक्ति के लिए अनिवार्य शर्त है इसलिए इसका उल्लंघन लोकतंत्र के लिए अभिशाप है.

चूंकि राज्य एजेंसियां शक्तिशाली निगरानी उपकरणों से लैस होती हैं, व्यक्तिगत आंकड़ें (जैसे बायोमेट्रिक) का 'कुलीनों ' द्वारा राजनीतिक और प्रशासनिक सेटअप में अपने विरोधियों के खिलाफ दुरुपयोग करने का खतरा बना रहता है.

हालांकि नीति निर्माताओं की मंशा अपने नागरिकों को और अच्छी तरह से 'जानना' है, निचले स्तर के नौकरशाह आंकड़ों का दुरुपयोग क्षुद्र मौद्रिक लाभ के लिए कर सकते हैं. बीपीओ ऑपरेटरों द्वारा धोखाधड़ी कर ग्राहकों की जानकारी बेचने के मामले इसका उदाहरण हैं.

गोपनीयता के अधिकार के खिलाफ तर्क

इस अधिकार का कोई कानूनी आधार नहीं है क्योंकि भारत के संविधान में इसका कहीं भी उल्लेख नहीं किया गया है.

जब नागरिक/ निवासियों के पास छुपाने के कुछ नहीं है, तो देश के हित में वैध संस्थानों को अपनी गोपनीयता बताने में उन्हें क्या समस्या है?

यह कहने के बजाए कि यह गोपनीयता का उल्लंघन है, इसे सरकार द्वारा उसके नागरिकों को बेतहर तरीके से पहचानने की पहल के सच्चे प्रयास के तौर पर समझा जाना चाहिए जो भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में दुर्लभ संसाधनों का जरूरतमंद आबादी में कुशल आवंटन के लिए आवश्यक है.

पुनः विचार करना क्यों महत्वपूर्ण है?

गोपनीयता के अधिकार का दायरा जैसा कि कुछ दशकों पहले (1954 एमपी शर्मा मामला) था, अब यह भौतिक स्तर पर खोज और जब्ती तक सीमित नहीं रह गया है. डिजिटल क्षेत्र में व्यक्तियों और कॉरपोरेट की बढ़ती उपस्थिति के साथ इंटरनेट पर सरकार के 'एकाधिकार' की वजह से अब समय आ गया है कि गोपनीयता के मामले में राज्य और नागरिकों की भूमिका को परिभाषित किया जाए.

प्रशासनिक शक्तियों या नागरिकों की गोपनीयता पर चरम अतिक्रमण के दुरुपयोग के मामले हालांकि भारत में अब तक रिपोर्ट नहीं किए गए हैं, एडवर्ज स्नोडेन द्वारा 9/11 से पहले बताए गए एनएसए के नागरिकों की निगरानी, यूके में रूपर्ट मर्डोक नीत टेबलॉयड स्नूपिंग और भूल जाने के अधिकार पर गूगल को यूरोपीय अदालत का आदेश जैसे अंतरराष्ट्रीय अनुभव बताते हैं कि आधुनिक समाज में नागरिकों की गोपनीयता कितनी कमजोर है.

निष्कर्ष

भारत का संविधान लोगों से शुरु होता है और लोग ही इसके प्रतिनिधि होते हैं. फिर भी, नागरिकों को यह समझना चाहिए, लोकतंत्र में कोई भी अधिकार निरपेक्ष नहीं है और उन्हें अपने अधिकारों को किसी नियम के अधीन करना होगा ताकि सरकार प्रभावी तरीके से काम कर सके. दूसरी तरफ सरकार को नागरिकों के निजता के साथ काम करने के दौरान संयम दिखाना चाहिए और नाजायज कारणों से गोपनीयता के उल्लंघन के मामलों में विश्वसनीय प्रक्रियाओं की स्थापना करनी चाहिए.

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