उच्चतम न्यायलय ने 23 जुलाई 2015 को अपने एक निर्णय में यह स्पष्ट किया की भारत के नागरिकों को चिकित्सा और तकनीकी शिक्षा प्रदान करने के लिए संस्थान स्थापित करने का तो मैलिक अधिकार है परन्तु उसकी संबद्धता या मान्यता का मौलिक अधिकार नहीं प्राप्त है.
न्यायालय ने यह निर्णय ‘डीएम वायानंद इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंस बनाम यूनियन ऑफ़ इण्डिया एंड एनअदर’ और ‘पी कृष्णा दास एण्ड एनअदर बनाम यूनियन ऑफ़ इण्डिया एंड अदर’ मामले में दिया.
विदित हो संविधान के अनुछेद 19(1)(छ) के अनुसार संविधान के अनुछेद 19 के खंड 1 के अंतर्गत दिए गए सभी उपखंडों में दिए गए अधिकार के प्रयोग पर भारत की प्रभुता और अखंडता , राज्य की सुरक्षा,विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, लोकव्यवस्था, शिष्टाचार और सदाचार के हितों में अथवा न्यायालय की अवमानना मानहानि या अपराध-उद्दिपन के सम्न्बंध में युक्तियुक्त निर्बन्धन जहां तक कोई विद्यमान विधि अधिरोपित करती है वहां तक उसके प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं डालेगी.
न्यायधीश एम वाई इकबाल और अरुण मिश्रा ने 1993 के न्यायालय के निर्णय के आधार पर यह निर्णय दिया की “ भारत में शिक्षा हमेशा धार्मिक गतिविधि रही है और इसका वाणिज्यिक रूप में परिवर्तन करना परंपरा और निति के विपरीत है .
न्यायलय ने यह भी बताया की इस देश में नागरिकों को शैक्षिक संस्थान स्थापित करने का तो अधिकार है लेकिन उसकी संबद्धता और मान्यता प्रदान करने का अधिकार नहीं प्राप्त है’
सम्बंधित वाद में डीएम वायानंद इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंस और पी कृष्णा दास ने सरकार और भारत के चिकित्सा परिषद् के उस निर्णय के खिलाफ याचिका डाली थी जिसके तहत वर्ष 2015-16 के लिए एमएमबीबीएस छात्रों की प्रवेश पर रोक लगा दी गई थी.
याचिकाकर्ता ने इसे मौलिक अधिकारों का हनन बताते हुए संविधान के अनुछेद 32 के तहत सीधे उच्चतम न्यायालय में अपील की जिसे न्यायलय द्वारा ख़ारिज कर दिया गया.
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