भारत के पहले विशिष्ट रक्षा उपग्रह जीसैट-7 का फ्रेंच गुयाना के कौरू अंतरिक्ष केंद्र से सफल प्रक्षेपण 30 अगस्त 2013 को किया गया. इस उपग्रह को रूक्मिणी नाम दिया गया. इस उपग्रह को एरियन-5 रॉकेट के माध्यम से अंतरिक्ष में प्रक्षेपित किया गया.
अब तक यह तकनीक केवल अमेरिका, रूस, फ्रांस, ब्रिटेन और चीन के पास थी. भारत छठां देश है, जो इस समूह में शामिल हो गया.
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा 31 अगस्त से 4 सितंबर 2013 के दौरान इस उपग्रह को तीन चरणों में भूमध्य रेखा से 36 हजार किलोमीटर की ऊंचाई पर भू-स्थिर कक्षा में ले जाने की कोशिश की जानी है. 14 सितंबर 2013 तक जी-सैट-7 को 74 डिग्री पूर्वी देशांतर की कक्षा में ले जाने की योजना है. इसके बाद उपग्रह के संचार उपकरण सक्रिय कर दिए जाने हैं.
रक्षा उपग्रह जीसैट-7 के प्रक्षेपण का उद्देश्य
इस उपग्रह के प्रक्षेपण का उद्देश्य भारत की समुद्री सीमा की निगरानी क्षमता में गुणात्मक सुधार करना है. इस उपग्रह द्वारा सितंबर 2013 के अंत तक कार्य करना शुरू किया जाना है. स्वदेश निर्मित इस संचार उपग्रह का इस्तेमाल भारतीय नौसेना द्वारा किया जाना है.
इस उपग्रह द्वारा अपनी जगह पर स्थिर रहकर कार्य किया जाना है. जो भी जहाज इसके दायरे में रहेगा, उससे इसका संपर्क बना रहेगा. इससे पूरे हिंद महासागर में नौसेना को अपने विभिन्न अंगों से सुरक्षित संचार में सहूलियत होनी है. इससे बाहर के उपग्रह और तकनीक पर भारत की निर्भरता में कमी आनी है साथ ही इससे नौसेना को अपनी गोपनीयता बनाए रखने में मदद प्राप्त होनी है.
रक्षा उपग्रह जी सैट-7 की मुख्य विशेषताएं
अत्याधुनिक संचार उपग्रह जीसैट-7 यूएचएफ, एस, सी और केयू बैंड के पेलोड उपकरणों से सुसज्जित है. भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के अनुसार जीसैट-7 एक उन्नत किस्म का संचार उपग्रह है जो संचार प्रणाली से संबंधित विभिन्न तरह के आंकड़े और व्यापक सेवायें उपलब्ध करा सकेगा. इस उपग्रह के पेलोड का डिजाइन इस तरह तैयार किया गया है कि वह भारतीय भूक्षेत्र सहित व्यापक महासागर क्षेत्र के बारे में संचार संबंधी सूचनायें उपलब्ध कराने में सक्षम है.
इस उपग्रह का निर्माण भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने किया है. इस उपग्रह को रूक्मिणी नाम दिया गया. इसका निर्माण 185 करोड़ की लागत से किया गया. इसके लॉन्च में 470 करोड़ की लागत आई. इस उपग्रह का वज़न दो हज़ार पचास किलोग्राम है. इसके निर्माण में भारत में विकसित तकनीक का इस्तेमाल किया गया.
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