सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति ए. के. पटनायक और न्यायमूर्ति वी. गोपाल गौडा की पीठ ने 16 मई 2014 को अक्षरधाम मंदिर (गुजरात) हमले के सभी छः आरोपियों को बरी करने का आदेश दिया. पीठ ने इस मामले की गुजरात पुलिस द्वारा ‘ढीली जांच’ को आधार बना कर आरोपियों को बरी करने का आदेश दिया.
विदित हो कि वर्ष 2002 में गुजरात के गांधीनगर में स्थित अक्षरधाम मंदिर पर हुए आतंकी हमले में इन आरोपियों को ‘पोटा कानून’ के तहत गुजरात उच्च न्यायालय ने सजा सुनाई थी, जिसमें तीन आरोपियों (अदम अजमेरी, शाह मिया उर्फ चांद खान और मुफ्ती अब्दुल कयूम) को फांसी एवं तीन को कैद (मोहम्मद सलीम शेख को उम्रकैद और अब्दुल मियां कादरी को 10 साल और अल्ताफ हुसैन को 5 साल की कैद) की सजा दी गई थी. 24 सितंबर 2002 को अक्षरधाम मंदिर पर हुए इस आतंकी हमले में 32 लोग मारे गए थे.
पोटा कानून से संबंधित मुख्य तथ्य
पोटा (POTA-Prevention of Terrorism Act) भारतीय संसद द्वारा वर्ष 2002 में निर्मित आतंकवाद निरोधक क़ानून है. पोटा के तहत ऐसी कोई भी कार्रवाई जिसमें हथियारों या विस्फोटक का इस्तेमाल हुआ हो तथा जिसमें किसी की मौत हो जाए या कोई घायल हो जाए आतंकवादी कार्रवाई मानी जाएगी. इनके अलावा ऐसी हर गतिविधि जिससे किसी सार्वजनिक संपत्ति को नुक़सान पहुंचा हो या सरकारी सेवाओं में बाधा आई हो या फिर उससे देश की एकता और अखंडता को ख़तरा हो, वह भी इसी श्रेणी में आती है.
पोटा कानून के तहत गिरफ़्तारी महज़ शक के आधार पर पुलिस द्वारा की जा सकती है. इसके साथ ही साथ इस कानून के तहत पुलिस को यह भी अधिकार है कि वह बिना वॉरंट के किसी की भी तलाशी ले सकती है और टेलीफ़ोन तथा अन्य संचार सुविधाओं पर भी नज़र रखी जा सकती है. इस कानून के तहत अभियुक्त को तीन महीने तक अदालत में आरोप-पत्र दाख़िल किए बिना भी हिरासत में रखा जा सकता है और उसकी संपत्ति ज़ब्त की जा सकती है.
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