भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 21 अगस्त 2014 को केंद्र सरकार को एक नोटिस जारी करते हुए राज्यपालों को पद छोड़ो या बर्खास्तगी के लिए तैयार रहो, के मुद्दे पर जवाब देने को कहा . सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को इस मुद्दे पर जवाब देने के लिए छह सप्ताह का वक्त दिया.
न्यायालय ने कहा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 156 में कहा गया है कि राज्यपाल राष्ट्रपति के चाहने तक अपने पद पर बने रहेंगें और उन्हें सिर्फ राष्ट्रपति ही उनके पद से हटा सकते हैं.
नोटिस प्रधान न्यायधीश न्यायमूर्ति आरएम लोढ़ा की अध्यक्षता वाली पीठ ने उत्तराखंड के राज्यपाल अजीज कुरैशी की रिट याचिका पर सुनवाई के बाद जारी किया जिसमें उन्होंने आरोप लगाया है कि केंद्रीय गृह सचिव अनिल गोस्वामी ने उन्हें पद छोड़ने या बर्खास्त होने को तैयार रहने को कहा है. पीठ में न्यायधीश न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ एवं जस्टिस रोहिन्टम नरिमन भी थे.
विश्लेषण और टिप्पणी
राज्यपालों को हटाने या उन्हें पद छोड़ने को कहने की प्रक्रिया मई 2014 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में नई एनडीए सरकार की नियुक्ति के बाद शुरु हुई. नई सरकार बनने के बाद से पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, नगालैंड, मिजोरम और गोवा के राज्यपालों ने अपना इस्तीफा दे दिया.
संविधान के अनुच्छेद 155 के मुताबिक किसी राज्य का राज्यपाल राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है और जब तक राष्ट्रपति चाहें वह अपने कार्यालय में बना रहेगा. चूंकि राष्ट्रपति की इच्छा मंत्रियों के परिषद द्वारा दी गई सलाह पर निर्भर है, इसलिए सरकार में सत्तारुढ़ पार्टी इस संवैधानिक पद का इस्तेमाल महान उपेक्षा के साथ करती है.
नरेन्द्र मोदी सरकार का राज्यपालों को इस्तीफा देने के लिए कहने के फैसले में कुछ भी नया नहीं है. इससे पहले, राज्यपाल के इस संवैधानिक पद का कई राजनीतिक दलों ने दुरुपयोग किया है. इस तथ्य के बावजूद की सुप्रीम कोर्ट ने एसआर बोम्मई के फैसले में राज्यपाल को हटाने की इस प्रक्रिया के बारे में विस्तृत दिशानिर्देश जारी किया था.
वर्ष 2010 में एक बार फिर, बीजेपी के सांसदों ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी अदालत ने यह फैसला सुनाया है कि कोई भी सरकार सत्ता में बदलाव के साथ किसी भी राज्यपाल को मनमाने और अपनी मर्जी से नहीं हटा सकती क्योंकि वे केंद्र सरकार के कर्मचारी नहीं होते. अदालत ने यह भी कहा था कि उन्हें सिर्फ कदाचार या अन्य प्रकार की अनियमितताओं की वजह से बदला जा सकता है.
वर्ष 2010 में अदालत का फैसला वर्ष 2004 में यूपीए सरकार द्वारा बीजेपी–द्वारा नियुक्त राज्यपालों को बर्खास्त करने की पृष्ठभूमि में आया था.
इससे पहले, वर्ष 2004 में, सत्ता में आने के बाद यूपीए सरकार ने वाजपेयी सरकार द्वारा बनाए गए कई राज्यपालों को यह कह कर पद से हटा दिया था कि वे आरएसएस पृष्ठभूमि से ताल्लुक रखते हैं. तत्कालीन राज्यपालों को उनके कार्यकाल खत्म होने से पहले ही हटा दिया गया था. इसमें शामिल हैं
बाबू परमानंद– हरियाणा के राज्यपाल
विष्णु कांत शास्त्री– उत्तर प्रदेश के राज्यपाल
केदारनाथ साहनी– गोवा के राज्यपाल
कैलाशपति मिश्रा– गुजरात के राज्यपाल
इन सभी को 2 जुलाई 2004 को राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने केंद्रीय मंत्रियों की परिषद की सलाह पर बर्खास्त कर दिया था. इन राज्यपालों की बर्खास्तगी भारतीय संविधान के अनुच्छेद 156(1) के तहत की गई थी.
राज्यपाल के लिए संवैधानिक प्रावधान
अनुच्छेद 156, राज्य– भाग VI– अध्याय II– राज्यपाल की भूमिका और कार्यालय में उनके कार्यकाल को कार्यकारी परिभाषित करता है.
अनुच्छेद 156– राज्यों के राज्यपाल के कार्यालय की अवधि
राज्पाल राष्ट्रपति की इच्छा तक अपने पद पर बने रहेंगें.
राज्यपाल, राष्ट्रपति को संबोधित करते हुए अपने हस्ताक्षर सहित अपना पद त्याग सकता है.
इस अनुच्छेद के पूर्वगामी उपबंधों के अधीन, राज्यपाल पद धारण करने की तिथि से आगामी पांच वर्षों तक अपने कार्यालय में बना रहेगा– अपने कार्यकाल के समाप्त होने के बाद भी जब तक कोई दूसरा व्यक्ति इस पद को ग्रहण करने के लिए नहीं आता, राज्यपाल अपने पद पर बना रहेगा.
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