सर्वोच्च न्यायालय ने 23 जुलाई 2014 को दिए गए एक निर्णय में जांच आयोगों हेतु अवमानना नियम को अमान्य घोषित किया. सर्वोच्च न्यायालय ने इस सम्बन्ध में कहा कि, “जांच आयोग अदालतें नहीं हैं, इसलिए इसकी अवमानना नहीं हो सकती, चाहे इसके अध्यक्ष उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय के कार्यरत न्यायाधीश ही क्यों न हों.” सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति आरएम लोढ़ा की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने अपने इस फैसले में कहा कि, “आयोगों का गठन जांच आयोग कानून, 1952 के तहत किया जाता है. महज इस इसलिए कि जांच आयोग का अध्यक्ष सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश है, यह कोर्ट की विस्तारित शाखा नहीं बन जाती.”
संविधान पीठ के अनुसार, आयोग एक ‘तथ्यांवेषी निकाय’ होता है, जिसका काम सरकार को किसी मुद्दे पर उचित कार्रवाई के लिए फैसला लेने में मदद करना है. ऐसे आयोग पक्षों के अधिकारों का निर्णय नहीं करते और न ही उनके पास कोई न्यायिक शक्ति होती है. वहीं सरकार आयोग की सिफारिशों पर अमल करने के लिए भी बाध्य नहीं है. पीठ के अनुसार, जांच आयोग द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया कानूनी होती है और इसके पास हलफ दिलाने की शक्तियां होती है, लेकिन इससे जांच आयोग को न्यायालय का दर्जा नहीं दिया जा सकता. इसलिए आयोगों पर अवमानना कानून, 1971 लागू नहीं होता.
विदित हो कि संविधान पीठ ने यह फैसला एक जांच आयोग के खिलाफ भाजपा नेता अरुण शौरी के टिप्पणियां करने पर अवमानना का मुकदमा चलाने संबंधी याचिका पर दिया. सर्वोच्च न्यायालय के कार्यरत न्यायाधीश कुलदीप सिंह की अध्यक्षता में गठित आयोग ने वर्ष 1990 में कर्नाटक के पूर्व मुख्य मंत्री आरके हेगड़े के खिलाफ जांच की थी. इस सम्बन्ध में आयोग द्वारा अरुण शौरी पर लगाये गए अवमानना के आरोप को सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया.
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