इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव को निर्देश दिया कि सभी सरकारी कर्मचारी, निर्वाचित जनप्रतिनिधि, न्यायपालिका के सदस्य एवं वे सभी अन्य लोग जिन्हें सरकारी खजाने से वेतन एवं लाभ मिलता है, अपने बच्चों को पढ़ने के लिए राज्य के माध्यमिक शिक्षा बोर्ड द्वारा संचालित प्राथमिक विद्यालयों में भेजें.
न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने यह फैसला सुनाते हुए यह भी कहा कि आदेश का उल्लंघन करने वालों के लिए दंडात्मक प्रावधान किए जाएं.
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने छह माह के भीतर मुख्य सचिव को यह सुनिश्चित करने को कहा है कि सरकारी, अर्ध सरकारी सेवकों, स्थानीय निकायों के जनप्रतिनिधियों, न्यायपालिका एवं सरकारी खजाने से वेतन, मानदेय या धन प्राप्त करने वाले लोगों के बच्चे अनिवार्य रूप से बेसिक शिक्षा परिषद के स्कूलों में पढ़ें. उत्तर प्रदेश सरकार को अगले शिक्षा सत्र से इस व्यवस्था को लागू करने को कहा गया.
यह आदेश उमेश कुमार सिंह एवं अन्य की ओर से दायर उस याचिका पर आया जिसमें उन्होंने उत्तर प्रदेश में वर्ष 2013 और वर्ष 2015 के लिए सरकारी प्राथमिक विद्यालयों एवं जूनियर हाईस्कूल के वास्ते सहायक शिक्षकों के चयन की प्रक्रिया को चुनौती दी थी.
जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए, कोर्ट ने कहा कि जब तक उच्च पदों पर बैठे अधिकारियों और न्यायाधीशों के बच्चे सरकारी स्कूलों में अनिवार्य रूप से नहीं पढ़ेंगे, तब तक इन स्कूलों की दशा नहीं सुधरेगी.
टिप्पणी और विश्लेषण
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय से राज्य के सरकारी स्कूलों में प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा की गुणवत्ता की बिगड़ती स्थिति को सुधारने में मदद मिलेगी.
स्वयंसेवी संगठन प्रथम द्वारा जारी वार्षिक शिक्षा रिपोर्ट (एएसईआर 2012) के अनुसार, देश में स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता खराब हालत में है और शिक्षा का स्तर लगातार गिरता जा रहा है.
इससे संबधित महत्वपूर्ण तथ्य
- वर्ष 2008 में कक्षा 3 के केवल 50 प्रतिशत छात्र कक्षा 1 की पाठ्य पुस्तक पढ़ पाते हैं. लेकिन वर्ष 2012 में यह घटकर 30 प्रतिशत हो गया.
- वर्ष 2012 में, कक्षा 3 के 50 प्रतिशत बच्चे 100 तक अंको की पहचान करने में सक्षम नहीं थे.
- इसके अलावा सरकारी स्कूलो में पांचवी कक्षा में पढ़ने वाले 46 फीसदी बच्चे ऐसे हैं जो दूसरी कक्षा के सवालों को हल नहीं कर पाते हैं.
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