भारत में सूखा प्रबंधन : एक अवलोकन

Dec 29, 2015, 17:18 IST

भारत में वर्षा और जलवायु परिस्थितियों में उच्च अस्थायी और स्थानिक विविधताओं की वजह से अलग– अलग तीव्रता में लगभग हर वर्ष सूखा पड़ता है.

किसी इलाके में जब पानी की उपलब्धता सांख्यिकीय आवश्यकताओं से नीचे हो जाती है तो उस स्थिति को सूखा कहते हैं. भारत में वर्षा और जलवायु परिस्थितियों में उच्च अस्थायी और स्थानिक विविधताओं की वजह से अलग– अलग तीव्रता में लगभग हर वर्ष सूखा पड़ता है.
जब वर्षा सामान्य स्थितियों में –20% से –59% ( पूर्व चेतावनी), –60% से 99% (सूखा) और –1005 (भयंकर सूखा) हो तो सूखे की घोषणा की जाती है. देश के करीब 68% इलाके में अलग– अलग डिग्री के सूखे का खतरा है. 35% इलाका जहां 750 मिमी से 1125 मिमी के बीच वर्षा होती है उसे सूखा प्रवण और 750 मिमी से कम वर्षा वाले 33% इलाकों को समय पूर्वक सूखा प्रवण इलाका माना जाता है.

सूखे का वर्गीकरण :

  • सूखे को मौसमी सूखा, जलविज्ञान संबंधी सूखा (हाइड्रोलॉजिकल) और कृषि सूखा में वर्गीकृत किया जाता है.
  • मौसम विज्ञान संबंधी सूखे को दीर्घकाल औसत के संबंध में वर्षा में कमी के आधार पर वर्गीकृत किया गया है–25% और उससे कम सामान्य, 26– 50% मध्यम और 50% से अधिक गंभीर.
  • जलविज्ञान संबंधी (हाइड्रोलॉजिकल) सूखा तब होता है जब सतह और उप सतह में जल का स्तर इतना कम हो जाए कि सामान्य और विशेष जरूरतों के लिए पानी की कमी होने लगे.
  • कृषि सूखे की पहचान– मौसम संबंधी सूखे का लगातार 4 सप्ताह, 15/5 से 15/10 के लिए 50 मिमी साप्ताहिक वर्षा, बाकी बचे वर्ष के लिए ऐसे 6 लगातार सप्ताह और खरीफ के मौसम में 80% फसल की बुआई.

सूखे का कारण

  • दक्षिण– पश्चिम मानसून से भारत में वर्षा की मात्रा और पैटर्न जैसे जलवायु परिवर्तन सूखे के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं. इसके अलावा दक्षिणी दोलन के अल नीनो (ईएनएसओ) चरण ने भी भारत में सूखे को प्रभावित किया है.
  • भूमि–उपयोग में परिवर्तन, कृषि के अनुचित तरीके और जल निकासी के मुद्दे. ये सभी मिट्टी के जल अवशोषण क्षमता को कम करते हैं.
  • प्राकृतिक संसाधनों में कमी, खराब जल प्रबंधन, वनों की कटाई ने सूखे की स्थिति और जोखिम को बढ़ा दिया है.

सूखे का प्रभाव

सूखे का आर्थिक, पर्यावरण और सामाजिक प्रभाव बदलता रहता है. सूखे की वजह से कृषि में होने वाला नुकसान किसानों की आमदनी और उनके क्रय शक्ति को प्रभावित करता है और उन्हें बेरोजगार बना देता है. साल 2002 के सूखे, जो भारत के गंभीर सूखों में से एक था, ने, इसके 56% भौगोलिक क्षेत्र को प्रभावित किया. साथ ही इसकी वजह से 18 राज्यों के 300 मिलियन लोग और 150 मिलियन पशु प्रभावित हुए.
पेयजल आपूर्ति की कमी और खाद्य असुरक्षा, चारे की कमी, पशुओं की बिक्री में कमी, मिट्टी की नमी और भू– जल तालिका का कम होना, कुपोषण, भुखमरी आदि इसके अन्य परिणाम हैं.
राजस्थान, बुंदेलखंड, कर्नाटक और ओडीशा के इलाके सूखा संबंधित अभाव और संघर्ष के विशेष उदाहरण हैं जबकि छत्तीसगढ़, पंजाब, हरियाणा आदि जैसे राज्यों में सूखा अनुचित कृषि प्रथाओं और खराब जल प्रबंधन का नतीजा है.
भारत में सूखा प्रबंधन
सूखे की स्थितियों की निगरानी और प्रबंधन के लिए केंद्रीय कृषि मंत्रालय नोडल मंत्रालय है.
वर्षों से भारत की सूखा प्रबंधन रणनीतियों ने समग्र विकास में अपना योगदान दिया है. उदाहरण के लिए 1965–1967 में आए सूखे ने 'हरित क्रांति' को प्रोत्साहित किया, इसके बाद 1972 में ग्रामीण गरीबों के लिए सूखा रोजगार सृजन कार्यक्रम बनाए गए.
पिछले कुछ वर्षों में भारत ने अपना फोकस राहत केंद्रित दृष्टिकोण से हटाकर वर्तमान सूखा प्रबंधन रणनीति पर कर दिया है. इसमें संस्थागत तंत्र, रोजगार सृजन और सामाजिक कल्याण प्रथाएं, सामुदायिक भागीदारी और ईडब्ल्यूएस का संचालन शामिल है.

संस्थागत तंत्र

भारत ने एक संस्थागत तंत्र बनाया है जो मंत्रालयों के बीच समन्वित कार्रवाई सुनिश्चित करता है. सूखे से प्रभावित लोगों को तत्काल राहत प्रदान करने के लिए राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया कोष (एनडीआरएफ) और राज्य आपदा प्रतिक्रिया कोष ( एसडीआरएफ) का गठन 2005 आपदा प्रबंधन अधिनियम के तहत किया गया है. सूखे के प्रतिकूल वित्तीय प्रभावों से निपटने के लिए 1999 में राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना (एनएआईएस) और 2007 में मौसम आधारित फसल बीमा योजना की शुरुआत की गई थी.
विभिन्न राज्यों में सूखा से निपटने के लिए किए जाने वाले प्रयासों में समन्वय स्थापित करने के लिए सूखा प्रबंधन समूह का गठन किया गया था. राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्रकोष्ठ विभिन्न राज्यों में सूखे की स्थिति की निगरानी करता है, सरकार का राष्ट्रीय आपदा आकस्मिक कोष गंभीर प्रकृति के आपदाओं से संबंधित है.
सूखा संभावित क्षेत्र विकास कार्यक्रम और रेगिस्तान विकास कार्यक्रम एकीकृत आकलन के आधार पर तैयार योजनाओं का उपयोग करते हैं.
इंटरनेशनल क्रॉप रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर सेमी– एरिड ट्रॉपिक्स (आईसीआरआईएसएटी); सेंट्रल एरिड जोन रिसर्च इंस्टीट्यूट; इंडियन ग्रासलैंड एंड फोडर रिसर्च इंस्टीट्यूट; इंडियन काउंसिल ऑफ फॉरेस्ट्री रिसर्च एंड ट्रेनिंग आदि जैसे अनुसंधान संस्थान कुछ ऐसे संस्थान हैं जो सूखा प्रबंधन में शामिल हैं.
रोजगार सृजन और सामाजिक कल्याण प्रथाएं
भारत सरकार के कई कार्यक्रम सूखे की स्थिति में समुदायों में लचीलेपन के निर्माण में मदद करते हैं.

राष्ट्रीय हरित मिशन का उद्देश्य वन क्षेत्र की गुणवत्ता में सुधार करना है. वर्तमान में 2012–17 की अवधि के लिए 2.8 मिलियन हेक्टेयर (एमएचए) खराब जमीन और उस पर निर्भर करने वाले लोगों की आजीविका में सुधार लाने के लिए 2.14 अरब डॉलर का खर्च होगा.
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) का जमीन, पानी और वनीकरण गतिविधियों पर बहुत अधिक फोकस है. इसी प्रकार एकीकृत वाटरशीड प्रबंधन कार्यक्रम (आईडब्ल्यूएमपी) का लक्ष्य वर्षा सिंचित/ खराब क्षेत्र के 750 लाख हेक्टेयर भूमि का विकास करना है.
भारत का राष्ट्रीय जल नीति मसौदा पानी की कमी, इसके वितरण में असमानता और जल संसाधनों के संबंध में योजना, प्रबंधन और उसके उपयोग की कमी जैसे मुद्दों को संबोधित करता है.
अन्य कार्यक्रमों में वर्षा वाले क्षेत्रों के लिए राष्ट्रीय वाटरशीड विकास परियोजना, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन, राष्ट्रीय बागवानी मिशन, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, राष्ट्रीय लघु सिंचाई मिशन शामिल हैं.

समुदाय की भागीदारी

समुदाय की भागीदारी का दृष्टिकोण सरकार के प्रयासों की प्रभावकारिता में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं.
इसके तहत ग्राम सभा/ पंचायत अनुसंशित राहत कार्य, जिला और ब्लॉक स्तर की समितियां राहत कार्यों की मंजूरी और निगरानी में शामिल होती हैं और प्रशिक्षण एवं प्रोत्साहन में स्वयंसेवी संगठन महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.
ड्राउट अर्ली वार्निंग सिस्टम्स (ईडब्ल्यूएस) का संचालन
ईडब्ल्यूएस के दो घटक हैं– सूखे का अनुमान और सूखे की निगरानी. आईएमडी और मध्यम रेंज के मौसम पूर्वानुमान का राष्ट्रीय केंद्र सूखे की तैयारी और पूर्व चेतावनी के लिए मौसम संबंधी सूचना समर्थन का प्रस्ताव देता है.
सूखे की निगरानी की सीमाओं को पार करने के लिए नेशनल एग्रीकल्चरल ड्रॉउट असेसमेंट एंड मॉनिटरिंग सिस्टम (एनएडीएएमएस) परियोजना प्रसार, गंभीरता के स्तर और कृषि सूखे के निरंतरता पर करीब– करीब वास्तविक जानकारी मुहैया कराता है.

निष्कर्ष

सूखा प्रबंधन प्रथाओं ने बड़े पैमानों पर लोगों के लिए प्रतिकूल परिणामों को कम कर दिया. हालांकि, इन प्रयासों को वर्षा जल संचयन और भूजल पुनर्भरण, बेसिन या सूक्ष्म स्तर पर जल का संरक्षण आदि की तरह ही पर्यावरण संरक्षण और प्रबंधन पर अधिक जोर देने की जरूरत है. जलवायु परिवर्तन प्रभावों के आलोक में पूर्व चेतावनी प्रणाली के लिए क्षमता निर्माण और कौशल को बढ़ाने की जरूरत है. राष्ट्रीय वास्तविक समय सूखा निगरानी और मौसम पूर्वानुमान के लिए टॉप– डाउन अप्रोच की जरूरत है. साथ ही राष्ट्रीय कवरेज देने के लिए मौजूदा क्षेत्रीय एवं स्थानीय प्रणालियों पर बनी बॉटम– अप अप्रोच की जरूरत है.

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