भारतीय दंड संहिता की धारा 377 और इसकी संवैधानिक प्रासंगिकता

Feb 9, 2016, 14:01 IST

धारा 377 को निरस्त करने वाले आंदोलन का प्रारम्भ 1991 में एड्स भावभेद विरोधी आंदोलन के साथ हुआ था.ऐतिहासिक प्रकाशन लेस दैन गेः ए सिटिजन्स रिपोर्ट में धारा 377 के साथ जुड़ी समस्याओं को बताया गया और इसे निरस्त करने की मांग की गई.

परिचय

भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 377, अध्याय XVI, को भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान 1860 में पेश किया गया था. यह "प्रकृति के आदेश के खिलाफ" यौन गतिविधियों को आपराध की श्रेणी में रखता है. इसमें कहा गया है कि कोई भी स्वेच्छा से प्रकृति के आदेश के खिलाफ किसी भी पुरुष, महिला या पशु के साथ शारीरिक संबंध करता है तो उसे आजीविन कारावास की सजा दी जाएगी या उसके कारावास की सजा को बढ़ाया जा सकता है जो दस वर्षों का होगा और उसे जुर्माना भी देना होगा. धारा 377 के दायरे में किसी भी प्रकार के यौन शिश्न प्रविष्टि संघ भी आता है. इसलिए आम सहमति के साथ किए जाने वाले मुखमैथुन या गुदा प्रवेश जैसे विषमलैंगिक कृत्य इस कानून के तहत दंडनीय हो सकते हैं.

इसकी शुरुआत

धारा 377 को निरस्त करने वाले आंदोलन की शुरुआत 1991 में एड्स भावभेद विरोधी आंदोलन के साथ शुरु किया गया था.ऐतिहासिक प्रकाशन लेस दैन गेः ए सिटिजन्स रिपोर्ट, में धारा 377 के साथ जुड़ी समस्याओं को बताया गया और इसे निरस्त करने की मांग की गई.

जैसा कि मामला सालों तक चला, अगले दशक में नाज फाउंडेशन (भारत) ट्रस्ट के नेतृत्व में इसे पुनर्जीवित किया गया. इस कार्यकर्ता समूह ने 2001 में, दिल्ली उच्च न्यायालय में सहमती के साथ वयस्कों  के बीच समलैंगिक संभोग को वैध करने की मांग के साथ एक जनहित याचिका (पीआईएल) दायर की.

दिल्ली उच्च न्यायालय का ऐतिहासिक निर्णय

2 जुलाई 2009 को दिए गए ऐतिहासिक फैसले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने वयस्कों के बीच आम सहमति से की जाने वाली समलैंगिक गतिविधियों को वैध कर, 150 साल पुरानी धारा को बदल दिया गया. धारा को खत्म करने की वजह बताते हुए अदालत ने कहा कि धारा का सार संविधान में दिए नागरिकों के मौलिक अधिकारों के खिलाफ है.

105– पृष्ठों के फैसले में मुख्य न्यायाधीश अजीत प्रकाश शाह और जस्टिस एस. मुरलीधर की खंडपीठ ने कहा कि अगर संशोधन न किया जाए तो आईपीसी की धारा 377 भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 का उल्लंघन करेगी. हालांकि अदालत ने यह स्पष्ट किया कि " धारा 377 के प्रावधान गैर– सहमति शिश्न, गैर– योनी यौन संबंध और नाबालिगों से जुड़े शिश्न गैर– योनी यौन संबंध पर प्रभावी बना रहेगा. "

इसके अलावा यह भी तर्क दिया गया कि गरिमा के साथ जीने का अधिकार और निजता/ गोपनीयता का अधिकार, दोनों ही अनुच्छेद 21 के दायरे में आते हैं. आईपीसी की धारा 377 व्यक्ति की गरिमा का उल्लंघन करता है और उसके/की कामुकता के कारण उसके/की प्रमुख/मूल पहचान को आपराधिक बना देता है और इस प्रकार संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन करता है.

सुप्रीम कोर्ट का दिसंबर 2013 का फैसला

हालांकि 11 दिसंबर 2013 को दिल्ली उच्च न्यायालय के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने सुरेश कुमार कौशल बनाम नाज फाउंडेशन मामले में निरस्त कर दिया और परिणामस्वरुप धारा 377 को फिर से पूरी तरह बहाल कर दिया गया.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस बहस का यह अंत नहीं है और उसने संसद को धारा 377 के बने रहने या निरस्त किए जाने के संबंध में फैसला लेने को कहा.
प्रत्युत्तर स्वरुप केंद्र सरकार ने 21 दिसंबर 2013 को फैसले का संविधान की धारा 14, 15 और 21 के तहत मिले अधिकारों के उल्लंघन का हवाला देते हुए समीक्षा याचिका दायर की.

इसके अलावा नाज फाउंडेशन ने भी धारा 377 पर सुप्रीम कोर्ट के दिए फैसले के खिलाफ समीक्षा याचिका दायर की.

मुकदमेबाजी का जवाब देते हुए 28 जनवरी 2014 को सुप्रीम कोर्ट ने समीक्षा याचिका खारिज कर दी. धारा 377 के संवैधानिक होने और उम्र और पक्षों की सहमति की परवाह किए बगैर यौन कृत्यों के लिए इसका लागू होना, बताकर समीक्षा याचिका को खारिज किया गया था.

नई प्रगति

15 अप्रैल 2015 को राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण बनाम भारत संघ के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के पहचान के अधिकार को मान्यता प्रदान की. सुप्रीम कोर्ट ने इस बात का विशेष रुप से उल्लेख किया कि धारा 377 का प्रयोग ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को परेशान और शारीरिक शोषण के लिए किया जा रहा है.

एनएएलएसए फैसले के बाद संसद सदस्य तिरुचि शिवा ने राइट्स ऑफ ट्रांसजेंडर पर्सन्स बिल, 2014 शीर्षक से संसद में निजी सदस्य विधेयक पेश किया था. इस विधेयक को राज्य सभा ने पारित कर दिया था और अभी यह लोकसभा में लंबित है.

एनएएलएसए फैसले के साथ– साथ राइट्स ऑफ ट्रांसजेंडर पर्सन्स बिल, 2014 में सुप्रीम कोर्ट और संसद दोनों ही ने ट्रांसजेंडर व्यक्तियों समेत सभी नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए प्रतिबद्धता दिखाई है. एक और राज्य संस्था, भारतीय विधि आयोग ने साल 2000 में अपनी 172वीं रिपोर्ट में धारा 377 को हटाए जाने की सिफारिश की है.

5– सदस्य वाली संविधान पीठ धारा 377 की समीक्षा करेंगी

2 फरवरी 2016 को नाज फाउंडेशन और सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के लिए आने वाले अन्य उपचारात्मक याचिका (क्युरेटिव पीटिशन) की अंतिम सुनवाई थी. भारत के मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यों की पीठ ने कहा कि जमा की गईं सभी 8 उपचारात्मक याचिकाओं की समीक्षा संभावित कारणों और गहराई से सुनवाई हेतु 5 सदस्यीय  संवैधानिक पीठ करेगी.

28 जनवरी 2014 को सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद माता– पिता, नागरिक समाज, वैज्ञानिक एवं एलजीबीटी अधिकार संगठनों द्वारा मार्च 2014 में दायर की गईं आठ उपचारात्मक याचिकाओं पर खुली अदालत में सुनवाई में दो वर्ष लग गए.

धारा 377 के निरस्त किए जाने के खिलाफ तर्क

• ईसाई धर्मप्रचारकों से संबंधित चर्च गठबंधन इस तर्क के साथ याचिकाकर्ताओं का विरोध कर रहे थे कि बाइबल में समलैंगिकता घृणित कार्य है.
• इस बात को दृढ़तापूर्वक कहा गया कि समलैंगिकता को वैध करना अनैतिक तस्कर निवारण अधिनियम,1956 को बेमानी करना होगा.
• अगर इसकी अनुमति दी जाती है तो यौन संचारित बीमारियों जैसे एड्स का प्रसार बढ़ेगा और लोगों को नुकसान होगा.
• यह स्वास्थ्य के लिहाज से बड़ा खतरा पैदा करेगा और समाज के नैतिक मूल्यों को कम कर देगा.

निष्कर्ष

धारा 377 एलजीबीटी व्यक्तियों की गरिमा और आत्म सम्मान पर लगातार गहरा प्रभाव डाल रही है और देश भर में एलजीबीटी लोगों के पारिवारिक जीवन के शांतिपूर्ण आनंद के लिए खतरा बनी हुई है.

इसलिए सभी हितधारकों को एलजीबीटी की गरिमा और अधिकारों के लिए मिलकर काम करना चाहिए.

इसके अलावा आईपीसी की धारा 377 में इस प्रकार संसोधन किया जाना चाहिए कि जस्टिस वर्मा समीति की सिफारिशों के अनुसार लिंग और कामुकता की परवाह किए बगैर बलात्कार के दायरे में सभी व्यक्ति आ सकें.

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