सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने 3 अगस्त 2014 को केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि वह कन्या भ्रूण हत्या पर अंकुश लगाने के लिए सभी राज्यों के साथ उनके द्वारा उठाए गए कदमों से संबंधित आंकड़ा उपलब्ध कराए.
सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्देश पूर्व गर्भाधान और प्रसव पूर्व निदान तकनीक (पीसीपीएनडीटी) अधिनियम, 1994 के तहत स्थापित राष्ट्रीय निरीक्षण एवं निगरानी समिति (एनआईएमसी) के सदस्य डॉ. साबू मैथ्यू जॉर्ज द्वारा दायर एक याचिका के जवाब में दिया.
प्रसव पूर्व लिंग परीक्षण के बाद मादा भ्रूण की हत्या कर देने से लड़कियों का जन्म नहीं हो पाता.
राष्ट्रीय निरीक्षण एवं निगरानी समिति (एनआईएमसी) का गठन गैरकानूनी तरीके से चलाए जाने वाले मेडिकल क्लीनिकों के निरीक्षण के लिए किया गया था. पूर्व गर्भाधान और प्रसव पूर्व निदान तकनीक (पीसीपीएनडीटी) अधिनियम, 1994 का उल्लंघन करने वालों को तीन से पांच वर्ष की कैद का प्रावधान है.
आंकड़ों के मुताबिक भारत के 35 में से 22 राज्यों में इस अधिनियम के अस्तित्व में आने के बाद से इसके उल्लंघन का एक भी मामला सामने नहीं आया. शपथ पत्र के मुताबिक भारत में 19 प्रतिशत बच्चों के जन्म का पंजीकरण नहीं हो पाता. हमारे देश में अभी भी 50 लाख (पांच मिलियन) लोगों का जन्म-पंजीकरण नहीं हुआ है जो जन्म एवं मृत्यु के पंजीकरण अधिनियम, 1969 का वास्तव में गंभीर उल्लंघन है.
पृष्ठभूमि
वर्ष 2006 में पंजाब में एक डॉक्टर के घर के कुंए से बड़ी संख्या में कन्या भ्रूणों के पाए जाने के बाद स्वयं सेवी संगठन वॉलेंटरी हेल्थ एसोसिएशन ऑफ पंजाब ने एक जनहित याचिका (पीआईएल) दायर की थी. इसमें पूर्व– गर्भाधान और प्रसव पूर्व निदान तकनीक अधिनियम, 1994 के प्रभावी कार्यन्वयन की मांग की गई थी.
अनुमानों के मुताबिक, हर वर्ष करीब पांच लाख कन्या भ्रूणों की हत्या की जा रही है. यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2007 से अब तक भारत एक करोड़ से अधिक लड़कियों को खो चुका है. रिपोर्ट के रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1991 के बाद से भारत के 80 फीसदी जिलों में लिंग अनुपात में बहुत अंतर दर्ज किया गया है. भारत का लिंगानुपात वर्ष 1981 में जहां 100 महिलाओं पर 104.0 पुरुष थे वही वर्ष 2001 में 107.8 और वर्ष 2011 में 109.4 पुरुष रहे.
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