फाइनेंशियल रेज्योलुशन एंड डिपॉजिट इंश्योरेंस (एफआरडीआई) विधेयक: क्यों है इस बहस को समझने की जरुरत

पिछले कुछ हफ्तों में, फाइनेंशियल रेज्योलुशन एंड डिपॉजिट इंश्योरेंस (एफआरडीआई) विधेयक, 2017, पर देश भर में बहुत चर्चा का माहौल बना हुआ है, जो फ़िलहाल संसद में विचाराधीन भी है. प्रस्तावित कानून के समर्थन में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का मजबूत समर्थन होने के बावजूद, विधेयक के प्रावधानों के खिलाफ आलोचना, और विशेष रूप से ‘बेल-इन’ प्रावधान के खिलाफ जनाक्रोश बढ़ गया है.

Dec 22, 2017, 11:40 IST
Financial Resolution and Deposit Insurance Bill: Understanding the Debate
Financial Resolution and Deposit Insurance Bill: Understanding the Debate

पिछले कुछ हफ्तों में, फाइनेंशियल रेज्योलुशन एंड डिपॉजिट इंश्योरेंस (एफआरडीआई) विधेयक, 2017, पर देश भर में बहुत चर्चा का माहौल बना हुआ है, जो फ़िलहाल संसद में विचाराधीन भी है. प्रस्तावित कानून के समर्थन में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का मजबूत समर्थन होने के बावजूद, विधेयक के प्रावधानों के खिलाफ आलोचना, और विशेष रूप से ‘बेल-इन’ प्रावधान के खिलाफ जनाक्रोश बढ़ गया है. ऐसे में इस विधेयक की प्रमुख विशेषताओं को जानना और उनके प्रावधानों पर बहस को समझना आवश्यक है.

एफआरडीआई विधेयक, 2017 - मुख्य विशेषताएं

जैसा कि बिल का शीर्षक बताता है, एफआरडीआई विधेयक 2017 दिवालिएपन की स्थिति से निपटने के लिए बैंकों, बीमा कंपनियों और अन्य वित्तीय क्षेत्र की संस्थाओं के लिए एक व्यापक कानूनी रिजोल्यूशन फ्रेमवर्क प्रदान करने का प्रयास करता है एक बार अधिनियमित किए जाने पर, यह मौजूदा जमा बीमा और क्रेडिट गारंटी निगम को निरस्त करके रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) के तहत रेज़ोल्यूशन कॉर्पोरेशन (Resolution Corporation) के निर्माण का मार्ग प्रशस्त करेगा. निगम 1961 में भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की सहायक कंपनी के रूप में संसद द्वारा बनाया गया था.

एफआरडीआई विधेयक 2017 के अनुसार, रेज़ोल्यूशन कॉर्पोरेशन का प्राथमिक जनादेश वित्तीय प्रणाली की स्थिरता और लचीलेपन की रक्षा करना है और संकट से जूझ रहे वित्तीय संस्थाओं की समस्या को सुलझाने में लगे समय और लागत में कमी करना. साथ ही यह कॉर्पोरेशन, जमाकर्ताओं के हितों की हद तक यथासंभव रक्षा करने का प्रयास करेगा.

प्रस्तावित विधेयक रेज़ोल्यूशन कॉर्पोरेशन को समय-समय पर वित्तीय संस्थाओं का आकलन करने और संकट प्रभावित कंपनियों को परिभाषित श्रेणियों के आधार पर वर्गीकृत करने का बल देगा. व्यवहार्यता के लिए सामग्री जोखिम, व्यवहार्यता के लिए शीघ्र जोखिम और व्यवहार्यता के लिए महत्वपूर्ण जोखिम दिवालिया घोषित संस्थाओं की तीन श्रेणियां होगी.

कमज़ोर संस्थाओं के ख़राब प्रदर्शन को नियंत्रित करने के लिए यह कॉर्पोरेशन निर्देश जारी कर सकता है. अगर एक बार, किसी संस्था को 'व्यवहार्यता के लिए महत्वपूर्ण जोखिम' के रूप में घोषित किया गया, तो निगम उस संस्था के प्रबंधन को अपने अन्दर लेकर दो साल के भीतर संकल्प प्रक्रिया को पूरा करेगा.

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‘बेल-इन’ प्रावधान

विधेयक के इस प्रावधान का पुरजोर विरोध हो रहा है क्योंकि यह वित्तीय संस्थाओं (बैंक, बीमा कंपनियां, आदि) और उसके ग्राहकों (जमाकर्ताओं) के बीच दशकों के लंबे संबंधों को बदलना चाहते हैं. विधेयक की धारा-52 के अनुसार, जिसमें ‘बेल-इन’ प्रावधान का प्रस्ताव है, जमाकर्ताओं के पैसे को रेज़ोल्यूशन कॉर्पोरेशन बीमार बैंकों के पुनर्पूंजीकरण के लिए इस्तेमाल कर सकता है. इस प्रावधान से जमाकर्ताओं, जो कि ज्यादातर कम और मध्यम आय वाले समूह हैं, में एक भय का माहौल बन गया है.
बेल-इन प्रावधान को न केवल लोगों द्वारा बल्कि अनेक नीति विशेषज्ञों द्वारा भी गलत बताया जा रहा है. विशेषज्ञों का तर्क है कि विधेयक में बेल-इन क्लॉज़ स्विट्ज़रलैंड स्थित वित्तीय स्थिरता बोर्ड (एफएसबी) के दिशानिर्देशों की एक अंधी प्रति है.
एफआरडीआई विधेयक के आलोचकों के मुताबिक, 2008-09 में उपसमूह संकट से उबरने के लिए अमेरिकी सरकार द्वारा अपनाई गई बेलआउट रणनीति की खामियों की पृष्ठभूमि में एफएसबी के नियमों का प्रारूप तैयार किया गया था. जबकि बेलआउट रणनीति सुनिश्चित करती है कि यह जिम्मेदारी सरकार के ऊपर हो, जबकि बेल-इन प्रावधान में, जमाकर्ताओं के निधियों का उपयोग करके बैंकों को बचाया जाएगा.

आलोचकों का कहना है कि पश्चिम के विपरीत, जहां बैंकों में अधिकतर जमाकर्ता उच्च आय वर्ग और निजी संस्थाएं हैं, भारत में बैंक सामान्य नागरिकों से बड़े रकम जुटाते हैं. इसलिए, यह तर्क दिया गया है कि एफआरडीआई विधेयक में बेल-इन प्रावधान से सरकार सामान्य जमाकर्ताओं की रक्षा के लिए जिम्मेदारी को कम कर रही है.

विधेयक के खिलाफ एक और आलोचना बीमा राशि पर 1लाख रुपये की सीमा का निरंतरता है. समीक्षकों के मुताबिक, विधेयक मुद्रास्फीति के कारण धन के घटते मूल्य पर विचार करने में विफल रहा और 1993 में तय हुई बीमा सीमा के साथ ही इसे जारी रखा जा रहा है.

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निष्कर्ष

बैंक 1969 और 1980 में राष्ट्रीयकरण के बाद से भारत के अर्थव्यवस्था के केंद्र में हैं, जिसने मध्यम वर्ग के संसाधनों को एकत्रित करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. बाजार उन्मुख अर्थव्यवस्था के उभरने के कारण निवेश के अवसरों में वृद्धि के बावजूद, आम नागरिकों ने बचत के लिए बैंकों पर निर्भर रहना जारी रखा है इस विश्वास के साथ कि किसी भी स्थिति में सरकार बैंकों का बचाव करेगी. भारी नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स (एनपीए) के कारण बैंकों की बढ़ती जोखिम ने एफआरडीआई विधेयक के खिलाफ जमाकर्ताओं के गुस्से को और तेज कर दिया है.

मौजूदा विवाद को सुलझाने और जमाकर्ताओं के बीच विश्वास की कमी पुनः बहल करने के लिए, सरकार को स्पष्ट रूप से और सरल तरीके से बिल के तर्क के बारे में जनता से संवाद करना चाहिए, विशेष रूप से बेल इन प्रावधान के बारे में. इसके अलावा, सरकार को मौजूदा 1लाख बीमा कवर को बढ़ाना चाहिए, जिसे 24 साल पहले तय किया गया था.

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