उच्चतम न्यायालय ने तलाक के बाद पति द्वारा पत्नी को दिए जाने वाले भरण-पोषण हेतु मानदंड निर्धारित कर दिए हैं. उच्चतम न्यायालय के अनुसार तलाक के बाद पति को अपनी मूल तनख्वाह का 25 प्रतिशत हिस्सा बतौर भरण-पोषण तलाकशुदा पत्नी को देना होगा. न्यायालय के अनुसार पति के वेतन का एक चौथाई हिस्सा समुचित और न्यायोचित भी होगा.
जस्टिस आर भानुमति और एमएम संतनागौदर की बैंच ने भरण-पोषण की इस धनराशी में कटौती करते हुए कहा कि परित्यक्ता महिला को इतनी रकम मिल सके जिससे वह अपना भरण-पोषण (गुजारा) कर सके. तलाक के बाद पुरुष पर भी उसके नए परिवार की जिम्मेदारी होती है.
उच्चतम न्यायालय ने यह मानक पश्चिम बंगाल के हुगली के एक मामले की सुनवाई करते समय निर्धारित किया. उच्चतम न्यायालय ने इसके साथ ही केस में पति को आदेश दिया कि वो अपनी 97 हजार की तनख्वाह से 20 हजार अपनी पत्नी को दे. यह धनराशी परित्यक्ता पत्नी के भरण पोषण हेतु होगी.
इसी मामले में इससे पहले कोलकाता हाईकोर्ट ने पूर्व पत्नी को 23 हजार रूपए देने के आदेश जारी किए थे. कोलकाता हाईकोर्ट द्वारा निर्धारित की गयी इस धनराशि को ज्यादा बताते हुए इस व्यक्ति ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की थी.
उच्चतम न्यायालय के अनुसार पति की नेट सैलरी का 25 प्रतिशत भाग उसकी पूर्व पत्नी को दिया जाना चाहिए. महिला को दी गई स्थायी भत्ते की राशि पार्टियों की स्थिति और पति या पत्नी के रखरखाव का भुगतान करने के लिए उपयुक्त होना चाहिए.
परित्यक्ता महिला अधिकार के बारे में-
- सामाजिक स्थितियों के अनुसार पत्नी का परित्याग करना क़ानून की नज़र में बड़ा मानसिक और सामाजिक उत्पीड़न है.
- कोई भी हिंदू पत्नी जिसका परित्याग किया गया हो. क़ानूनी तौर पर भरण पोषण की हक़दार है.
- हिन्दू विवाह क़ानून की धारा 24 भरण पोषण और गुज़ारा भत्ता का प्रावधान करती है.
- महिला को यह अधिकार हिन्दू दत्तक और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा-18 से भी मिलता है.
- हिन्दू विवाह क़ानून, 1955, धारा-9 वैवाहिक संबंधों की बहाली का प्रावधान करती है. यह धारा किसी पति-पत्नी को एक दूसरे के साथ रहने का अधिकार प्रदान करती है.
- भरण पोषण या गुज़ारा भत्ता– ऐसी महिला अपने पति के सामर्थ्य और सामाजिक हैसियत के अनुसार उसी स्तर के रहन-सहन के अधिकार की मांग कर सकती है.
- परित्यक्ता पत्नी चाहे तो जीवन निर्वाह के लिए पति से एकमुश्त खर्च मांग सकती है.
- ऐसी महिला के पास घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण क़ानून, 2005 के अन्तर्गत कार्रवाई का भी विकल्प है.
- किसी भी महिला के लिए इस तरह का सामाजिक-आर्थिक परित्याग और मानसिक उत्पीड़न असहनीय होगा और इस वजह से यह गंभीर घरेलू हिंसा के क़ानून के दायरे में आ सकता है.
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