'मानसून ' शब्द अरबी शब्द 'मौसम' से बना है और इसका अर्थ होता है हवा की दिशा में मौसमी बदलाव. भारत में दक्षिण– पश्चिम मानसून जून की शुरुआत में पहुंचता है और सितंबर तक रहता है. इसी समय भारत को सबसे अधिक वर्षा जल प्राप्त होता है.
खास वर्ष में भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि और मुद्रास्फीति की संभावनाओं का पता लगाने में मानसून का आगमन और उसकी असमानता बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. हालांकि, 2015 के जून औऱ जुलाई के महीने में कुछ इलाकों में बहुत कम वर्षा के साथ सामान्य से 9% कम वर्षा हुई. इसके अलावा, भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (एमआईडी) के अनुसार, वर्षा के मौसम के आखिरी दो महीनों, अगस्त–सितंबर 2015 के दौरान वर्षा 84% तक कम होगी.
दीर्ध कालिक औसत के लिए जब वर्षा 96% से 104% के बीच हो तो उसे सामान्य कहा जाता है. केरल, जहां मानसून सबसे पहले आता है और जहां आमतौर पर राष्ट्रीय औसत से बहुत अधिक वर्षा दर्ज की जाती है, वहां भी इस मौसम में 30% कम वर्षा दर्ज की गई.
अब तक वर्षा अपने वितरण में असमान रही है, जिसका अर्थ है जहां कुछ इलाकों में बहुत अधिक और यहां तक कि जानलेवा बाढ़ तक आई वहीं दूसरी तरफ कई इलाकों में सूखा पड़ा. फिर भी, वर्षा के मामले में देश का करीब 35% क्षेत्र वर्षा की कमी वाली श्रेणी में है, जबकि 35% क्षेत्र में सामान्य वर्षा हुई है.
बाकी के 30% क्षेत्र में वर्षा सामान्य से अधिक हुई है.
विभिन्न मानकों पर असमान मानसून का प्रभाव
विकास पर प्रभाव - चालू वर्ष में कृषि क्षेत्र में पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष 5% के कमी का अनुमान है. यह भारत के कुल जीडीपी विकास से 0.7% अंक भी कम कर देगा. यह गैर– कृषि क्षेत्र की मांग पर बुरा प्रभाव डालेगा.
कृषि पर प्रभाव- बतौर कृषि प्रधान देश भारत की जहां करीब 60% आबादी आज भी अपनी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर करती है और यह क्षेत्र जीवीए में करीब 16% का योगदान देता है, मानसून के महत्व को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. हमारे देश के फसल क्षेत्र का कुल 40% पूरी तरह से मानसून पर निर्भर करता है. बुआई के लिए जुलाई का महीना बहुत महत्वपूर्ण होता है और खाद्यान्न उत्पादन से इसका बहुत गहरा संबंध है. भले ही संचयी वर्षा ( 24 जुलाई 2015 तक) सामान्य से सिर्फ 4.1% कम हुई हो, हमारा मानना है कि जुलाई के पहले तीन सप्ताह में वर्षा में कमी कुछ हद तक खाद्यान्न उत्पादन को प्रभावित करेगी. मुख्य खरीफ फसल-धान की बुआई-उत्तरपश्चिम इलाकों, जहां से कुल चावल उत्पादन का 29% आता है, में अच्छी वर्षा हुई है और वहां धान की फसल भी अच्छी है. आंध्र प्रदेश और तेलंगाना जैसे राज्यों में धान की बुआई बुरी तरह से प्रभावित हुई है. न सिर्फ वर्षा की कमी बल्कि असमान वर्षा भी मुद्दा बन गया है. पश्चिम बंगाल में बाढ़ ने धान की बुआई को प्रभावित किया. हालांकि, महाराष्ट्र और गुजरात में कम वर्षा और जलाशयों में जलस्तर के कम होने की वजह से मोटे अनाज, दालें और तिलहन की फसले प्रभावित हो सकती हैं. इसके अलावा मानसून में कमी मिट्टी को सामान्य की तुलना में अधिक सूखा बना देंगी और सिंचाई के लिए कम पानी मिलेगा. ये सभी कारक इस बात की तरफ इशारा करते हैं कि रबी या सर्दी के मौसम में भी उत्पादन कम होगा.
ग्रामीण मांग पर प्रभाव- मार्च और अप्रैल 2015 में पहले से ही अपर्याप्त मानसून से जूझ रहे इलाकों में बेमौसम और गर्मी से पहले की बारिश ने फसलों को नुकसान पहुंचाया था. लगातार दूसरे वर्ष कमजोर मानसून भारतीय सिंचाई प्रणाली की प्रभावकारिता को कम करेगा और खेती एवं किसानों को नुकासन पहुंचाएगा. ग्रामीण वेतन वृद्धि में पहले ही 8% की गिरावट हो चुकी है. यह ग्रामीण मांग को प्रभावित करेगा.
खाद्य मुद्रास्फीति पर प्रभाव- खराब मानसून खाद्य पदार्थों की कीमतों को बढ़ा सकता है, जिसमें लगातार बढ़ोतरी हो रही है. खुदरा मूल्य सूचकांक अप्रैल 2015 के 4.8% की तुलना में जून 2015 में 5.4% पर पहुंच चुका था.
एफएमसीजी सेक्टर पर प्रभाव-खराब मानसून का एफएमसीजी सेक्टर पर कई हानिकारक प्रभाव पड़ेंगे. मांग कम होगी– ऐसा मुख्य रूप से ग्रामीण इलाकों में होगा– और इनपुट लागत में काफी बढ़ोतरी हो जाएगी. फिलहाल ग्रामीण इलाकों में एफएमसीजी उत्पादों की बिक्री करीब 11–13% होती है लेकिन कमजोर मानसून इसे 8–10% पर ला सकता है.
उर्जा क्षेत्र पर प्रभाव- चूंकि कई पनबिजली बांधों में पानी का स्तर सामान्य से कम होगा, तो बिजली भी कम उत्पादित होगी.
91 जलाशयों में जल स्तर 87.09 बिलियन क्यूबिक मीटर (बीसीएम) को छू चुका है, जो एक साल पहले के 100.36 बीसीएम से 13.2% और यहां तक कि सामान्य 10 वर्ष के औसत 90.68 बीसीएम से भी कम है. मई और जून की तपती गर्मी के दौरान बारिश ठंडा करने वाले कारक का काम करती है और बिना पर्याप्त वर्षा के बिजली का उपयोग अधिक हो जाएगा.
निष्कर्ष
वर्तमान स्थिति में मानसून की कमी से निपटने के लिए बहुआयामी रणनीति बनाने की जरूरत है जिसमें सूखा का सामना करने और जलवायु अनुकूल फसलों की किस्मों की खोज, सिंचाई पारिस्थितिकी को विकसित कर वर्षा पर निर्भरता को कम करना, गैर-कृषक गरीबों के लिए रोजगार के अवसर बढ़ाना, खेती के कौशल में सुधार, फार्म-टू-फोर्क ट्रांजैक्शन चेन में बड़ा परिवर्तन करने आदि शामिल किया जाना चाहिए.
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