टोंक जिले के अंजुमन सोसायटी ऑफ खानदान–ए–अमीरिया (ASKeA) ने 6 अक्टूबर 2014 को ईद–उल–जुहा त्यौहार के अवसर पर ऊंट के बलि की अपनी 150 वर्ष पुरानी परंपरा समाप्त करने का फैसला किया. हालांकि, अंजुमन सोसायटी (ASKeA) परिवार नवाब हवेली में ईद–उल–जुहा त्यौहार को मनाने के लिए बकरे की बलि देने के लिए इकट्ठा हुए थे.
यह फैसला राजस्थान सरकार द्वारा ऊंट को राजकीय पशु के तौर पर अपनाने के बाद किया गया.
राज्य पशु के तौर पर ऊंट की घोषणा
जून 2014 में, राजस्थान की वसुंधरा राजे सरकार ने राजस्थान गोजातीय पशु (वध और अस्थायी प्रवासन या ऊंट के निर्यात का निषेध) अधिनियम, 1595 में संशोधन किया और ऊंट को राज्य पशु घोषित कर दिया. यह फैसला वर्ष 1995 में ऊंटों की संख्या 7.63 लाख का घटकर 2013 में 2.24 लाख हो जाने की वजह से किया गया. यह गिरावट वाकई चौंकाने वाली थी. प्रस्तावित बिल मसौदे के अनुसार ऊंट की हत्या या तस्करी करने पर तीन से सात वर्षों की जेल हो सकती है.
ऊंट के बलि की परंपरा
• ऊंट के बलि देने की परंपरा वर्ष 1864 में तत्कालीन टोंक शासक नवाब इब्राहिम अली खान चतुर्थ ने शुरु की थी.
• उस दौरान पूरा राज्य शरीयत कानून (इस्लामिक कानून) के तहत संचालित किया जाता था.
• ऊंटों की बलि इस बात को ध्यान में रख कर शुरु की गई थी कि टोंक के गरीब लोग ऊद उल–जुहा पर न तो बलि के मांस का खर्च वहन कर सकते हैं और न ही उसका आनंद ले सकते हैं.
• वर्ष 1990 तक, तत्कालीन नवाब दो ऊंटों की बलि दिया करते थे, एक ईदगाह में और दूसरा टोंक के अपनी हवेली में.
• वर्ष 1990 के बाद, ईदगाह में ऊंट की बलि को बंद कर दिया गया लेकिन एक ऊंट की बलि हवेली में दी जाती थी जिसके बाद उसका मांस लोगों में बांट दिया जाता था.
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