भारत ने विश्व व्यापार संगठन (WTO) के व्यापार सुविधा समझौते (TFA) पर हस्ताक्षर न करने का निर्णय लिया. भारत ने यह निर्णय 160 सदस्यों वाले डब्ल्यूटीओ के जिनेवा, स्विट्जरलैंड में हुए आम परिषद की बैठक में 24 जुलाई 2014 को किया.
यह निर्णय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सरकार के उस रुख के आधार पर लिया गया था जिसमें भारत तब तक टीएफए प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर करने को राजी नहीं होगा जब तक कि उसके खाद्य सुरक्षा की चिंता का समाधान नहीं हो जाता.
विश्व व्यापार संगठन से भारत की मांग
• भारत अपने लाखों लोगों के खाद्य सुरक्षा हेतु सार्वजनकि शेयर होल्डिंग मुद्दे के स्थायी समाधान के लिए ठोस रुपरेखा चाहता है.
• इसके अलावा भारत ने खाद्य सब्सिडी की गणना के लिए आधार वर्ष (1986) को भी बदलने की मांग की है.
विकसित देशों की प्रतिक्रिया
• 31 जुलाई 2014 तक टीएफए पर प्रोटोकॉल समाप्त करना.
• सार्वजनिक स्टॉकहोल्डिंग के मुद्दे पर बहस हो सकती है और इसके लिए 2017 तक किसी समझौते पर पहुंचा जा सकता है.
भारत की मांग के कारण
डब्ल्यूटीओ समझौते (एओए) के तहत , भारत जैसे विकासशील देश कृषि पर खाद्यान्न उत्पादन के कुल मूल्य का दस फीसदी ही सब्सिडी दे सकते हैं. हालांकि, इस सब्सिडी की गणना वर्तमान कीमतों की बजार 1986 के आधार वर्ष की कीमतों के आधार पर की जाएगी.
वर्ष 1986–88 की कीमतों पर सब्सिडी की गणना के कारण, भारत सरकार के खाद्य सुरक्षा विधेयक के तहत दी जाने वाली सब्सिडी डब्ल्यूटीओ के दस फीसदी की सीमा से अधिक हो जाती है. इसलिए विकसित देशों ने इसे खत्म करने की मांग की है.
लेकिन जब इसे वर्तमान मूल्य आधार के संदर्भ में सब्सिडी गणना और अमेरिकी द्वारा दिए जाने वाली सब्सिडी के संदर्भ में देखा जाता है तो विकसित देशों का बहस निर्थक लगता है. उदाहरण के लिए, अमेरिका बतौर कृषि सब्सिडी 120 बिलियन अमेरिकी डॉलर (7.2 लाख करोड़ रुपये) की सब्सिडी देता है जबकि भारत उसकी तुलना में सिर्फ 12बिलियन अमेरिकी डॉलर (72000करोड़ रुपए) की कृषि सब्सिडी देता है.
G–33 खाद्य सुरक्षा प्रस्ताव और भारत
भारत सहित विकासशील देशों के G–33 समूह ने दिसंबर 2013 में बाली के मंत्रीस्तरीय सम्मेलन में विकासशील देशों ने विकासशील देशों द्वारा भारत सहित विकासशील देशों के समूह G–33 ने सब्सिडी के दायरे में खाद्य सुरक्षा पहलों की रक्षा के स्पष्ट उद्देश्य के साथ खादय भंडार के अधिग्रहण का प्रस्ताव दिया था. यह प्रस्ताव दिसंबर 2013 में बाली में आयोजित विकासशील देशों के मंत्रीस्तरीय सम्मेलन में किया गया था.
G–33 प्रस्तावों में वर्ष 1986–88 के आधार पर दस प्रतिशत सब्सिडी सीमा की गणना का भी मुद्दा उठाया गया, उस समय कीमतें अपेक्षाकृत कम थीं. G–33 के गहन बातचीत के बाद विकसित देशों ने आखिरकार बाली पैकेज के लिए सहमति जताई.
बाली पैकेज
बाली पैकेज भारत और अन्य विकासशील देशों को जब तक वे अंतरराष्ट्रीय व्यापार समझौता खत्म नहीं करते तब तक बिना किसी कानूनी चुनौतियों के मुख्य खाद्य उपजों पर सब्सिडी देने की अनुमति देता है. यह अंतरिम शांति खंड (पीस क्लाज) भी प्रदान करता है.
शांति खंड (पीस क्लाज)
पीस क्लाज दिसंबर 2013 से शुरु होने वाले चार वर्ष की अंतरिम अवधि की सुविधा देता है जिसमें खाद्य सुरक्षा से जुड़े सभी मुद्दों पर चर्चा की जाएगी और 2017 तक एक स्थायी समाधान निकाल लिया जाएगा.
हालांकि पीस क्लाज में कई शर्तें हैं जैसे भारत को 2017 में खत्म हो रहे चार वर्षों की अवधि में एक बार डब्ल्यूटीओ के विवाद निपटान निकाय में ले जाया जा सकता है. इसके अलावा, निवारण रोधी/ सेफगार्ड क्लाज में यह कहा गया है कि इस क्लाज का इस्तेमाल करने वाले देशों को इन कार्यक्रमों के तहत प्राप्त स्टॉक की वजह से व्यापार न बिगाड़ना सुनिश्चित करना होगा.
व्यापार सुविधा समझौता (टीएफए)
टीएफए का उद्देश्य सीमा शुल्क प्रक्रिया को सरल बनान, पारदर्शिता बढ़ाना और लेनदेन के खर्च को कम करना है ताकि निर्बाध व्यापार सुनिश्चित हो सके. वर्ष 2015 से इसे औपचारिक रूप से लागू करने पर बाली में सहमति बनी.
अमेरिका और अन्य विकसित देश अपनी डगमगाई हुई अर्थव्यवस्था के सहारे की तलाश में टीएफए पर जोर लगा रहे हैं. अनुमान के अनुसार टीएफए के कार्यान्वयन से विश्व अर्थव्यवस्था में 1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर (60 लाख करोड़ रुपये ) जुड़ेंगें और 21 मिलियन रोजगार पैदा होगा.
भारत के रुख का नतीजा
भारत का नकारात्मका रुख का अर्थ है कि टीएफए प्रोटोकॉल दिसंबर 2013 में बाली में आयोजित मंत्रिमंडलीय सम्मेलन के 31 जुलाई 2014 की समय सीमा को हासिल नहीं कर पाएगा. ऐसा इसलिए क्योंकि भारत का रुख महत्वपूर्ण है और बिना इसके अनुमोदन के विश्व व्यापार संगठन टीएफए पर प्रोटोकॉल को नहीं अपना पाएगा. इससे डब्ल्यूटीओ के 19 वर्षों के इतिहास में पहले बड़े समझौते का जोखिम हो सकता है. इसके अलावा, भारतीय अर्थव्यवस्था के दृष्टिकोण से, इससे नरेंद्र मोदी सरकार के अधिक– व्यापारोन्मुख होने की नकारात्मक भावनाओं का जन्म हो सकता है.
इसके अलावा, इससे विकासशील देशों का वैश्विक व्यापार निकाय डब्ल्यूटीओ से नाता तोड़ने और खुद के मुक्त व्यापार नीतियों की तलाश का नेतृत्व कर सकती है जो कहीं अधिक महत्वाकांक्षी है. वास्तव में, अमेरिका और यूरोपीय संघ ने इस दिशा में छोटे देशों के साथ बातचीत शुरु कर दी है.
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