भारत में आरक्षण का इतिहास: एक समग्र विश्लेषण

Dec 27, 2016, 17:40 IST

भारत में आजादी से पहले ही नौकरियों और शिक्षा में पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण देने की शुरुआत हो चुकी थी। इसके लिए विभिन्न राज्यों में विशेष आरक्षण के लिए समय-समय पर कई आंदोलन हुए हैं| इस लेख में हम भारत में आरक्षण के इतिहास और वर्तमान स्थिति का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे आरक्षण के संबंध में आपकी समझ और विकसित होगी|

भारत में आरक्षण का इतिहास बहुत पुराना है| यहां आजादी से पहले ही नौकरियों और शिक्षा में पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण देने की शुरुआत हो चुकी थी। इसके लिए विभिन्न राज्यों में विशेष आरक्षण के लिए समय-समय पर कई आंदोलन हुए हैं| जिनमें राजस्थान का गुर्जर आंदोलन, हरियाणा का जाट आंदोलन और गुजरात का पाटीदार (पटेल) आंदोलन प्रमुख हैं| इस लेख में हम भारत में आरक्षण के इतिहास और वर्तमान स्थिति का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे आरक्षण के संबंध में आपकी समझ और विकसित होगी|

आरक्षण का अर्थ

आरक्षण (Reservation) का अर्थ है अपना जगह सुरक्षित करना| प्रत्येक व्यक्ति की इच्छा हर स्थान पर अपनी जगह सुरक्षित करने या रखने की होती है, चाहे वह रेल के डिब्बे में यात्रा करने के लिए हो या किसी अस्पताल में अपनी चिकित्सा कराने के लिए, विधानसभा या लोकसभा का चुनाव लड़ने की बात हो तो या किसी सरकारी विभाग में नौकरी पाने की।

भारत में आरक्षण की शुरूआत एवं इसके विभिन्न चरण

भारत में आरक्षण की शुरूआत 1882 में हंटर आयोग के गठन के साथ हुई थी| उस समय विख्यात समाज सुधारक महात्मा ज्योतिराव फुले ने सभी के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा तथा अंग्रेज सरकार की नौकरियों में आनुपातिक आरक्षण/प्रतिनिधित्व की मांग की थी।

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1891 के आरंभ में त्रावणकोर के सामंती रियासत में सार्वजनिक सेवा में योग्य मूल निवासियों की अनदेखी करके विदेशियों को भर्ती करने के खिलाफ प्रदर्शन के साथ सरकारी नौकरियों में आरक्षण के लिए मांग की गयी।
1901 में महाराष्ट्र के सामंती रियासत कोल्हापुर में शाहू महाराज द्वारा आरक्षण की शुरूआत की गई| यह अधिसूचना भारत में दलित वर्गों के कल्याण के लिए आरक्षण उपलब्ध कराने वाला पहला सरकारी आदेश है।
1908 में अंग्रेजों द्वारा बहुत सारी जातियों और समुदायों के पक्ष में, प्रशासन में जिनका थोड़ा-बहुत हिस्सा था, के लिए आरक्षण शुरू किया गया|
1909 और 1919 में भारत सरकार अधिनियम में आरक्षण का प्रावधान किया गया|
1921 में मद्रास प्रेसीडेंसी ने जातिगत सरकारी आज्ञापत्र जारी किया, जिसमें गैर-ब्राह्मणों के लिए 44 प्रतिशत, ब्राह्मणों के लिए 16 प्रतिशत, मुसलमानों के लिए 16 प्रतिशत, भारतीय-एंग्लो/ईसाइयों के लिए 16 प्रतिशत और अनुसूचित जातियों के लिए 8 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई थी|
1935 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने प्रस्ताव पास किया, (जो पूना समझौता कहलाता है) जिसमें दलित वर्ग के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र की मांग की गई थी|
1935 के भारत सरकार अधिनियम में आरक्षण का प्रावधान किया गया था|
1942 में बी. आर. अम्बेडकर ने अनुसूचित जातियों की उन्नति के समर्थन के लिए अखिल भारतीय दलित वर्ग महासंघ की स्थापना की| उन्होंने सरकारी सेवाओं और शिक्षा के क्षेत्र में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की मांग की|

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1946 के कैबिनेट मिशन प्रस्ताव में अन्य कई सिफारिशों के साथ आनुपातिक प्रतिनिधित्व का प्रस्ताव दिया गया था|

क्यों समान नागरिक संहिता भारत के लिए जरुरी है

26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ| भारतीय संविधान में सभी नागरिकों के लिए समान अवसर प्रदान करते हुए सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछले वर्गों या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की उन्नति के लिए संविधान में विशेष धाराएं रखी गयी हैं। इसके अलावा 10 सालों के लिए उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए अलग से निर्वाचन क्षेत्र आवंटित किए गए थे| (हर दस साल के बाद सांविधानिक संशोधन के जरिए इन्हें बढ़ा दिया जाता है)|
1953 में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए कालेलकर आयोग का गठन किया गया था| इस आयोग के द्वारा सौंपी गई अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों से संबंधित रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया गया, लेकिन अन्य पिछड़ी जाति (OBC) के लिए की गयी सिफारिशों को अस्वीकार कर दिया गया|
1979 में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए मंडल आयोग की स्थापना की गई थी| इस आयोग के पास अन्य पिछड़े वर्ग (OBC) के बारे में कोई सटीक आंकड़ा था और इस आयोग ने ओबीसी की 52% आबादी का मूल्यांकन करने के लिए 1930 की जनगणना के आंकड़े का इस्तेमाल करते हुए पिछड़े वर्ग के रूप में 1,257 समुदायों का वर्गीकरण किया था|
1980 में मंडल आयोग ने एक रिपोर्ट पेश की और तत्कालीन कोटा में बदलाव करते हुए इसे 22% से बढ़ाकर 49.5% करने की सिफारिश की| 2006 तक पिछड़ी जातियों की सूची में जातियों की संख्या 2297 तक पहुंच गयी, जो मंडल आयोग द्वारा तैयार समुदाय सूची में 60% की वृद्धि है।
1990 में मंडल आयोग की सिफारिशों को विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा सरकारी नौकरियों में लागू किया गया। छात्र संगठनों ने इसके विरोध में राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन शुरू किया और दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र राजीव गोस्वामी ने आत्मदाह की कोशिश की थी|

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1991 में नरसिम्हा राव सरकार ने अलग से अगड़ी जातियों में गरीबों के लिए 10% आरक्षण की शुरूआत की|
1992 में इंदिरा साहनी मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण को सही ठहराया|
1995 में संसद ने 77वें सांविधानिक संशोधन द्वारा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की तरक्की के लिए आरक्षण का समर्थन करते हुए अनुच्छेद 16(4)(ए) का गठन किया| बाद में आगे भी 85वें संशोधन द्वारा इसमें पदोन्नति में वरिष्ठता को शामिल किया गया था।
12 अगस्त 2005 को उच्चतम न्यायालय ने पी. ए. इनामदार और अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य के मामले में 7 जजों द्वारा सर्वसम्मति से फैसला सुनाते हुए घोषित किया कि राज्य पेशेवर कॉलेजों समेत सहायता प्राप्त कॉलेजों में अपनी आरक्षण नीति को अल्पसंख्यक और गैर-अल्पसंख्यक पर नहीं थोप सकता है। लेकिन इसी साल निजी शिक्षण संस्थानों में पिछड़े वर्गों और अनुसूचित जाति तथा जनजाति के लिए आरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए 93वां सांविधानिक संशोधन लाया गया। इसने अगस्त 2005 में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को प्रभावी रूप से उलट दिया|
2006 से केंद्रीय सरकार के शैक्षिक संस्थानों में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण शुरू हुआ।
10 अप्रैल 2008 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने सरकारी धन से पोषित संस्थानों में 27% ओबीसी (OBC) कोटा शुरू करने के लिए सरकारी कदम को सही ठहराया| इसके अलावा न्यायालय ने स्पष्ट किया कि "क्रीमी लेयर" को आरक्षण नीति के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए|

आरक्षण क्यों दिया जाता है?

भारत में सरकारी सेवाओं और संस्थानों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं रखने वाले पिछड़े समुदायों तथा अनुसूचित जातियों और जनजातियों के सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए भारत सरकार ने सरकारी तथा सार्वजनिक क्षेत्रों की इकाइयों और धार्मिक/भाषाई अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों को छोड़कर सभी सार्वजनिक तथा निजी शैक्षिक संस्थानों में पदों तथा सीटों के प्रतिशत को आरक्षित करने के लिए कोटा प्रणाली लागू की है। भारत के संसद में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के प्रतिनिधित्व के लिए भी आरक्षण नीति को विस्तारित किया गया है।

आरक्षण की वर्तमान स्थिति

वर्तमान में भारत की केंद्र सरकार ने उच्च शिक्षा में 49.5% आरक्षण दे रखा है और विभिन्न राज्य आरक्षणों में वृद्धि के लिए क़ानून बना सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार 50% से अधिक आरक्षण नहीं दिया जा सकता है, लेकिन राजस्थान और तमिलनाडु जैसे कुछ राज्यों ने क्रमशः 68% और 87% तक आरक्षण का प्रस्ताव रखा है, जिसमें अगड़ी जातियों के लिए 14% आरक्षण भी शामिल है।

भारतीय संविधान के महत्वपूर्ण संशोधन

आरक्षण के प्रकार

जाति आधारित आरक्षण

केंद्र सरकार द्वारा वित्त पोषित उच्च शिक्षा संस्थानों में उपलब्ध सीटों में से 22.5% अनुसूचित जाति (दलित) और अनुसूचित जनजाति (आदिवासी) के छात्रों के लिए आरक्षित हैं (अनुसूचित जातियों के लिए 15%, अनुसूचित जनजातियों के लिए 7.5%)| ओबीसी के लिए अतिरिक्त 27% आरक्षण को शामिल करके आरक्षण का यह प्रतिशत 49.5% तक बढ़ा दिया गया है| अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) में 14% सीटें अनुसूचित जातियों और 8% अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित हैं। इसके अलावा, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के विद्यार्थियों के लिए केवल 50% अंक लाना अनिवार्य है।

प्रबंधन कोटा

जाति-समर्थक आरक्षण के पैरोकारों के अनुसार प्रबंधन कोटा सबसे विवादास्पद कोटा है। प्रमुख शिक्षाविदों द्वारा भी इसकी गंभीर आलोचना की गयी है क्योंकि जाति, नस्ल और धर्म पर ध्यान दिए बिना आर्थिक स्थिति के आधार पर यह कोटा है, जिससे जिसके पास भी पैसे हों वह अपने लिए सीट खरीद सकता है। इसमें निजी महाविद्यालय प्रबंधन की अपनी कसौटी के आधार पर तय किये गये विद्यार्थियों के लिए 15% सीट आरक्षित कर सकते हैं। इस कसौटी में महाविद्यालयों की अपनी प्रवेश परीक्षा या कानूनी तौर पर 10+2 के न्यूनतम प्रतिशत शामिल होते हैं।

लिंग आधारित आरक्षण

महिलाओं को ग्राम पंचायत (जिसका अर्थ है गांव की विधानसभा, जो कि स्थानीय ग्राम सरकार का एक रूप है) और नगर निगम चुनावों में 33% आरक्षण प्राप्त है। बिहार जैसे राज्य में ग्राम पंचायत में महिलओं को 50% आरक्षण प्राप्त है|

संसद एवं विधानमंडल में महिलाओं को 33% आरक्षण देने के उद्देश्य से 9 मार्च 2010 को 186 सदस्यों के बहुमत से महिला आरक्षण विधेयक को राज्य सभा में पारित किया गया था, लेकिन यह विधेयक लोकसभा में अटका पड़ा है|

धर्म आधारित आरक्षण

कुछ राज्यों में धर्म आधारित आरक्षण भी लागू है| जैसे- तमिलनाडु सरकार ने मुसलमानों और ईसाइयों के लिए 3.5-3.5% सीटें आवंटित की हैं, जिससे ओबीसी आरक्षण 30% से 23% कर दिया गया, क्योंकि मुसलमानों या ईसाइयों से संबंधित अन्य पिछड़े वर्ग को इससे हटा दिया गया।

केंद्र सरकार ने अनेक मुसलमान समुदायों को पिछड़े मुसलमानों में सूचीबद्ध कर रखा है, इससे वे आरक्षण के हकदार होते हैं।

राज्य के स्थायी निवासियों के लिए आरक्षण

कुछ अपवादों को छोड़कर, राज्य सरकार के अधीन सभी नौकरियां उस राज्य में रहने वाले सभी निवासियों के लिए आरक्षित होती हैं। पीईसी (PEC) चंडीगढ़ में, पहले 80% सीट चंडीगढ़ के निवासियों के लिए आरक्षित थीं और अब यह 50% है।

पूर्वस्नातक के लिए आरक्षण

जेआईपीएमईआर (JIPMER) जैसे संस्थानों में स्नातकोत्तर सीट के लिए आरक्षण की नीति उनके लिए है, जिन्होंने जेआईपीएमईआर (JIPMER) से एमबीबीएस (MBBS) पूरा किया है| (एम्स) में इसके 120 स्नातकोत्तर सीटों में से 33% सीट 40 पूर्वस्नातक छात्रों के लिए आरक्षित हुआ करती हैं (इसका अर्थ है जिन्होंने एम्स से एमबीबीएस पूरा किया उन प्रत्येक छात्रों को स्नातकोत्तर में सीट मिलना तय है।)

आरक्षण के लिए अन्य मानदंड

स्वतंत्रता सेनानियों के बेटे/बेटियों/पोते/पोतियों के लिए आरक्षण
शारीरिक रूप से विकलांग व्यक्ति के लिए आरक्षण
खेल हस्तियों के लिए आरक्षण
शैक्षिक संस्थानों में अनिवासी भारतीयों (एनआरआई (NRI)) के लिए छोटे पैमाने पर सीटें आरक्षित होती हैं। उन्हें अधिक शुल्क और विदेशी मुद्रा में भुगतान करना पड़ता है (नोट: 2003 में एनआरआई आरक्षण आईआईटी से हटा लिया गया था)|
सेवानिवृत सैनिकों के लिए आरक्षण
शहीदों के परिवारों के लिए आरक्षण
अंतर-जातीय विवाह से पैदा हुए बच्चों के लिए आरक्षण
सरकारी उपक्रमों/सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (PSU) के विशेष स्कूलों (जैसे सेना स्कूलों, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (PSU) के स्कूलों आदि) में उनके कर्मचारियों के बच्चों के लिए आरक्षण|
वरिष्ठ नागरिकों/पीएच (PH) के लिए सार्वजSनिक बस परिवहन में सीट आरक्षण|

आरक्षण के संबंध में संवैधानिक प्रावधान:-

संविधान के भाग तीन में समानता के अधिकार की भावना निहित है। इसके अंतर्गत अनुच्छेद 15 में प्रावधान है कि किसी व्यक्ति के साथ जाति, प्रजाति, लिंग, धर्म या जन्म के स्थान पर भेदभाव नहीं किया जाएगा। अनुच्छेद 15(4) के मुताबिक यदि राज्य को लगता है तो वह सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े या अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के लिए विशेष प्रावधान कर सकता है।
अनुच्छेद 16 में अवसरों की समानता की बात कही गई है। अनुच्छेद 16(4) के मुताबिक यदि राज्य को लगता है कि सरकारी सेवाओं में पिछड़े वर्गों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है तो वह उनके लिए पदों को आरक्षित कर सकता है।
अनुच्छेद 330 के तहत संसद और 332 में राज्य विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए सीटें आरक्षित की गई हैं।

अंत में हम यह कह सकते हैं कि भारत में आरक्षण की शुरूआत सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को समृद्ध बनाने के लिए हुई थी| लेकिन समय के साथ आरक्षण वोट बैंक की राजनीति का शिकार बनती चली गई| वर्तमान समय में हर राजनितिक दल सत्ता प्राप्ति के लिए आरक्षण शब्द का उपयोग कर रहे हैं, जिसके कारण आरक्षण का मूल उद्देश्य समाप्त होता जा रहा है|

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