पिछले कुछ महीनों से इंटरनेट नूट्रैलिटी या नेट नूट्रैलिटी खबरों में है लेकिन भारत में यह 15 मार्च 2015 को दूरसंचार नियामक प्राधिकरण द्वारा ओवर-द-टॉप (ओटीटी) सेवाओं के लिए नियामक फ्रेमवर्क पर परामर्श पत्र जारी करने के साथ सुर्खियों में आया.
यह पत्र इंटरनेट पर डेटा ट्रैफिक को जिस तरह से नियंत्रित किया जाता है, से संबंधित है, दूसरे शब्दों में, यह नियामकों को नेट नूट्रैलिटी के सिद्धांत को फिर से समझने की मंशा को बताता है जिसका पालन 1990 के दशक से प्रचलन मे आने के बाद इंटरनेट के सभी हितधारकों ने किया है.
नेट नूट्रैलिटी क्या है?
नेट नूट्रैलिटी या इंटरनेट नूट्रैलिटी का सिद्धांत इंटरनेट पर सभी डाटा को इंटरनेट सेवा प्रदाताओं (आईएसपी) द्वारा समान व्यवहार को दर्शाता है. यह शब्द कोलंबिया यूनिवर्सिटी के मीडिया लॉ प्रोफेसर टिम वू ने 2003 में सामान्य वाहक की लंबे समय की अवधारणा के विस्तार के रूप में दिया था.
सिद्धांत के अनुसार, बिना किसी प्राथमिकता वितरण या उपयोगकर्ता (व्यापार या घरेलू) के आधार पर भेदभावपूर्ण शुल्कों, सामग्री (वॉयस या वीडियो या डाटा), मंच, अनुप्रयोग (एप्लीकेशन), संलग्न उपकरण के प्रकार या संचार के साधन का प्रकार के विकल्प के बिना सरकार और आईएसपी को इंटरनेट पर प्रसारित होने वाले हर एक बिट (bit) के साथ समान व्यवहार करना चाहिए.
भारत में नेट नूट्रैलिटी पर वर्तमान बहस शुरु होने के कारण :
ट्राई (TRAI) द्वारा इरादतन नीति बदलाव के अलावा दूरसंचार बाजार में निम्नलिखित विकास के सिद्धांत के पालन पर राष्ट्रव्यापी बहस का नेतृत्व किया गया.
दिसंबर 2014 में भारत की प्रमुख दूरसंचार कंपनी भारती एयरटेल द्वारा स्काईप और वीबर जैसे सामाजिक नेटवर्किंग एप्लीकेशनों के इस्तेमाल के ग्राहकों से अतिरिक्त शुल्क लेने के फैसले की गंभीर आलोचना हुई और कंपनी को पुनर्विचार करने पर मजबूर होना पड़ा और अपने फैसले के कार्यान्वयन पर रोक लगानी पड़ी. कंपनी का तर्क था कि संचार संवाओं को उपलब्ध कराने के क्रम में ये एप्लीकेशन कंपनी के राजस्व को नुकसान पहुंचा रहे हैं.
फरवरी 2015 में रिलायंस कम्युनिकेशंस ने कुछ चुनींदा वेबसाइटों और एप्लीकेशनों को उपभोक्ताओं को मुफ्त में देने की पेशकश की. इसके लिए उसने सोशल नेटवर्किंग के दिग्गज फेसबुक के internet.org के साथ भागीदारी की.
06 अप्रैल 2015 को एयरटेल जीरो प्रोग्राम लांच किया गया था, इसके तहत एयरटेल के ग्राहक एयरटेल के साथ पंजीकृत कुछ चुनींदा वेबसाइटों और एप्लीकेशनों का प्रयोग मुफ्त में कर सकते थे.
उपरोक्त घटनाएं आईएसपी द्वारा कंटेंट प्रोवाइडरों के साथ नई भागीदारी बनाने की मंशा का संकेत देता है जो नेट नूट्रैलिटी के सिद्धांत के खिलाफ है.
नेट नूट्रैलिटी के पक्ष में तर्क:
सिद्धांत का प्राथमिक लाभ यह है कि यह कंटेंट प्रोवाइडरों चाहे वह गूगल और फेसबुक या पड़ोस के स्टार्टअप हो, के लिए इंटरनेट के उपयोग के मामले में एक समान स्तर को सुनिश्चित करता है.
जैसा कि भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग (सीसीआई) के अध्यक्ष ने हाल ही में पाया, आईएसपी द्वारा सिद्धांत को अपनाने में किसी भी प्रकार का समझौता सिर्फ अनुचित व्यापार प्रथा है, क्योंकि यह चुनींदा वेबसाइटों और अनुप्रयोगों के प्राथमिकता व्यवहार में शामिल है.
यह तर्क की सोशल नेटवर्किंग साइटें दूरसंचार कंपनियों के राजस्व को नुकसान पहुंचा रही हैं, बिल्कुल काल्पनिक है क्योंकि दूरसंचार कंपनियों द्वारा राजस्व का अनुमान कोरी कल्पना है और इसके तथ्यात्मक सबूत नहीं हैं.
सिद्धांत का उल्लंघन का नई कंपनियों (स्टार्ट– अप्स) पर बुरा प्रभाव पड़ेगा क्योंकि इंटरनेट दिग्गज जिनके पास अतिरिक्त धन होता है वे इंटरनेट पर प्राथमिकता के आधार पर डाटा डालने के लिए आईएसपी को उच्च फीस का भुगतान कर सकते हैं.
संक्षेप में सिद्धांत के समर्थकों का तर्क है कि सिद्धांत इंटरनेट के खुलेपन की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण है.
नेट नूट्रैलिटी सिद्धांत के विपक्ष में तर्क
आईएसपी का तर्क है कि सरकार से स्पेक्ट्रम खरीदने, ऑप्टिकल फाइबर केबल (ओएफसी) बनाने और अन्य अनिवार्य संरचनाओं के निर्माण में उन्हें अरबों डॉलर की लागत आती है. इसलिए, भौतिक दुनिया के सेवा प्रदाताओं को इंटरनेट सेवाओं के वैध आपूर्तिकर्ता के तौर पर कंटेंट प्रोवाइडर्स और उपभोक्ताओं पर उनके द्वारा प्राथमिकता के आधार पर इंटरनेट के उपयोग की मांग के आधार पर अतिरिक्त शुल्क लगाने के लिए अधिकृत किया जाना चाहिए.
आईएसपी का यह भी कहना है कि उपरोक्त पैमाना लोगों के हित में हैं क्योंकि यह उनके नेटवर्क को विस्तार देने और मजबूत बनाने के लिए काम करता है जो आगे चलकर देश के आखिरी छोर पर भी वांछित कनेक्टिविटी को सुनिश्चित करेगा.
दूरसंचारों (टेलीकॉमस) का तर्क है कि सोशल नेटवर्किंग साइटों के प्रति नूट्रैलिटी का रखरखाव नहीं किया जा सकता और इसमें तत्काल राजस्व साझा संबंध स्थापित किए जाने की जरूरत है क्योंकि ये एप्लीकेशन उनके द्वारा प्रदान किए जा रहे संचरना का प्रयोग कर बहुत राजस्व पैदा कर रहे हैं.
कुछ साइबर विशेषज्ञों ने तर्क दिया है कि वर्तमान प्रथा ने उपभोक्ताओं को वांछित सामग्री के प्राथमिकता डिलीवरी के विकल्प का लाभ उठाने से रोक दिया है. इसलिए वे तेज बैंडविड्थ के लिए अतिरिक्त पैसे का भुगतान कर रहे हैं जो अप्रासंगिक और वांछनीय सामग्री दोनों ही को समान स्पीड से डिलीवर करता है.
यह तर्क भी दिया जा रहा है कि सिद्धांत नई कंपनियों के विकास के अनुकूल नहीं है क्योंकि यह सामग्री के तेज डिलीवरी के आधार पर बने नए राजस्व मॉडलों को लागू करने में बाजार सक्षम नहीं है.
संक्षेप में सिद्धांत के विरोधियों का तर्क है कि इंटरनेट के समान पहुंच को बनाए रखने के प्रयास में नियामकों ने अभी तक वह तरीका चुना जो इंटरनेट को हम सभी के लिए अपेक्षाकृत धीमा और महंगा बना दिया जो देश में उच्च डाटा शुल्क और कम बैंडविड्थ प्रचलन से स्पष्ट है.
क्या कोई बीच का रास्ता है?
फेसबुक और ह्वाट्सएप्प जैसे कुछ एकाधिकार के प्रसार के कारण नेट नूट्रैलिटी के मूल सिद्धांत पर फिर से गौर करने की बजाए, ट्राई सीधे राजस्व की समस्या पर गौर कर सकती है. इसके लिए उसे बाहरी नेटवर्कों और भारतीय नेटवर्कों ( चूंकि अधिकांश एकाधिकार बाहरी नेटवर्कों से संचालित हैं) के बीच अंतरसंपर्क दरों को विनियमित करना होगा या सीसीआई को मामला भेजना होगा.
अंतरराष्ट्रीय आयाम
फरवरी 2015 में, अमेरिका के संघीय संचार आयोग ने इंटरनेट सेवाओं को जनोपयोगी सेवाओं में वर्गीकृत किया जिसका अर्थ है आईएसपी नेट नूट्रैलिटी सिद्धांत का उल्लंघन करने के लिए अधिकृत नहीं हैं.
यूरोप नेट नूट्रैलिटी के लिए 2013 के प्रस्ताव में सुधार लाने की कोशिश कर रहा है जिसमें विशेषाधिकार प्राप्त उपयोग की अनुमति विशिष्ट सेवाओं के लिए दी जाएगी.
साल 2014 में चिली ने एयरटेल जीरो प्रोग्राम के जैसे ही जीरो– रेटेड स्कीमों पर प्रतिबंध लगा दिया, जिसमें दूरसंचार उपभोक्ताओं को सोशल मीडिया का मुफ्त में इस्तेमाल करने की अनुमति है.
निष्कर्ष
चूंकि हमारा देश डिजिटल डिवाइड जैसे शहरी इलाकों की तुलना में ग्रामीण इलाकों में इंटरनेट की कम पहुंच, की समस्या से जूझ रहा है, नियामक के लिए यह जरूरी है कि वह इंटरनेट के खुलेपन को बरकार रखे और डिजिटल इंडिया प्रोग्राम के उद्देश्यों को प्राप्त करने में अपनी जिम्मेदारियों को निभाएं.
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