सर्वोच्च न्यायालय ने शस्त्र अधिनियम में अनिवार्य मृत्युदंड के कानून को असंवैधानिक करार दिया. सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति एके गांगुली और न्यायमूर्ति जेएस खेहर की पीठ ने यह निर्णय 1 फरवरी 2012 को दिया.
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति एके गांगुली और न्यायमूर्ति जेएस खेहर की पीठ ने शस्त्र अधिनियम में जोड़े गए अनिवार्य मृत्युदंड के कानून को असंवैधानिक बताते हुए रद्द भी कर दिया. पीठ ने अपने तर्क में बताया कि यह कानून मौलिक अधिकारों का हनन करने के साथ ही मृत्युदंड पर न्यायपालिका को सजा तय करने के दिए गए विवेकाधिकार को समाप्त करती है.
न्यायाधीश न्यायमूर्ति एके गांगुली और न्यायमूर्ति जेएस खेहर की पीठ ने शस्त्र अधिनियम की धारा 27(3) को संविधान के अनुच्छेद 14 व अनुच्छेद 21 के अधिकारों का हनन करने वाला कानून बताया. साथ ही यह भी स्पष्ट किया कि न्यायपालिका के मृत्युदंड देने या नहीं देने के विवेकाधिकार को सीमित करने वाला कोई भी कानून असंवैधानिक है.
वर्ष 1993 में सीआरपीएफ के एक जवान ने अपने वरिष्ठ अधिकारी पर गोलियां चलाई थीं, जिससे वरिष्ठ अधिकारी की मौत हो गई थी. इस मामले में पंजाब की सत्र अदालत ने आरोपी जवान दलबीर सिंह को उम्रकैद की सजा सुनाई थी, लेकिन पंजाब उच्च न्यायालय ने उसे अभियोजन पक्ष द्वारा मुक़दमे को साबित नहीं कर पाने की स्थिति में बरी कर दिया था. इस मामले में पंजाब सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील की थी. सर्वोच्च न्यायालय ने दलबीर सिह को बरी करने के उच्च न्यायालय के निर्णय को बरकरार रखते हुए सशस्त्र कानून की धारा 27(3) की वैधानिकता की समीक्षा भी कर दी.
ज्ञातव्य हो कि आतंकवादी और राष्ट्र विरोधी गतिविधियों पर काबू करने के लिए शस्त्र अधिनियम में वर्ष 1988 में (पंजाब में आतंकवाद के दौर में स्वचलित हथियारों के बढ़ते उपयोग को रोकने के लिए) अनिवार्य मृत्युदंड को जोड़ा गया था. इसके तहत शस्त्र अधिनियम की धारा 27 (3) के अनुसार जो भी व्यक्ति प्रतिबंधित हथियारों या प्रतिबंधित गोला बारूद का उपयोग करता है और उससे किसी की हत्या करता है, उसे मृत्युदंड दिए जाने का प्रावधान था.
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