भारतीय संविधान के भाग III में मौलिक अधिकारों का वर्णन किया गया है. मौलिक अधिकार उन अधिकारों को कहा जाता है जो व्यक्ति के संतुलित जीवन जीने की प्रक्रिया हेतु स्वाभाविक और नसैर्गिक रूप से आवश्यक हैं. व्यक्ति के इन अधिकारों की रक्षा के प्राविधान के तहत भारतीय संविधान में यहाँ के नागरिकों को कुछ मौलिक अधिकार प्रदान किये गए हैं और जिनमें कुछ विशेष मामलों को छोड़कर राज्य द्वारा हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता है. ये भारत के हर नागरिक को बिना किसी भेदभाव के प्रदान किए गए हैं औऱ इसके तहत सभी नागरिकों को समान अधिकार प्राप्त हैं.
ये अधिकार हर भारतीय मूल के निवासी को शांति और सद्भाव से रहने की अनुमति प्रदान करते हैं. ये वो अधिकार हैं जिसके तहत हर भारतीय के पास सराहना करने, अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करने, धार्मिक स्वतंत्रता और विश्वास,जन्मस्थान, जाति और यौन अभिविन्यास का विशेषाधिकार प्राप्त है. इन अधिकारों को मौलिक अधिकार कहा जाता है. इनमें समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, संवैधानिक उपचारों का अधिकार, शोषण के विरुध अधिकार, सांस्कृतिक तथा शिक्षा सम्बंधित अधिकार शामिल हैं.
कोई भी जो अपने नागरिकों से इन मौलिक अधिकारों को छीनता है वह भारतीय दंड संहिता में निर्दिष्ट कानूनों के तहत सजा पाने का हकदार है. इसलिए इनकी स्थापना के पीछे एक ऐसे भारत की परिकल्पना थी जहां सभी को बराबरी का दर्जा मिले, सभी का समान अधिकार हो और सभी के पास समान अवसर प्राप्त हों.
हाल ही में भारत में यह देखने को मिला है कि अपने क्षुद्र राजनीतिक लाभ के लिए राजनीतिक दलों और उनके नेताओं द्वारा समय-समय पर इसका उल्लंघन किया गया है. खानपान और मांस को लेकर समाज को विभाजित करने की राजनीति हमें यह बता रही है कि किस कदर भारतीय राजनीति का पतन होते जा रहा है? ये प्रतिनिधि खुले तौर पर न केवल हमारे खानपान को तय कर रहे हैं बल्कि हमारे अतीत की त्रुटियां भी निकाल रहे हैं। शराब और मांस पर प्रतिबंध लगाने के विवाद से भारत का नाम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बुरी तरह प्रभावित हुआ है.
इस माहौल में लोग न्यायपालिका की तरफ देख रहे हैं, सामान्य दिनचर्या में हो रहे अपने हस्तक्षेप के बारे में पूछ रहे हैं और पूछने की हिम्मत कर रहे हैं, 'माई लॉर्ड, मेरे मौलिक अधिकार कहाँ हैं’?
डिक्लेरेशन ऑफ इंडिपेंडेस के मुख्य लेखक और जनक थॉमस जेफरसन ने एक बार कहा था, "जब लोग सरकार से डरने लगते हैं तब वहाँ अत्याचार होता है; जब सरकार जनता से डरती है, तब वहां आज़ादी रहती है". हाल के इस परिपेक्ष्य में ये कथन बिलकुल सटीक बैठता है. ऐसे ही परिस्थिति के मद्देनज़र पिछले वर्ष 2015 में महाराष्ट्र के न्यायपालिका ने हस्तक्षेप किया था औऱ बंबई उच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र पशु संरक्षण अधिनियम 1978 में संशोधन की संवैधानिकता को चुनौती दी थी. यह संशोधन पशुओं के स्लॉटर को विनियमित करने और बीफ की खपत से संबंधित था.
वहीं शराब की खपत पर प्रतिबंध से संबंधित पटना उच्च न्यायालय द्वारा दिया गया हालिया फैसला भी महत्वपूर्ण रहा जिसने बिहार सरकार द्वारा पूरे राज्य में शराब बंदी के खिलाफ निर्णय दिया. इस निर्णय को बंबई उच्च न्यायालय के आदेश के साथ पढ़ा जाने पर महसूस होता है कि यह निर्णय प्रणाली संतुलित है और इसने हमारे मौलिक अधिकार को सबसे ऊपर रखते हुए न्याय व्यवस्था को बनाये रखा.
यह आदेश न्याय प्रणाली पर हमारे विश्वासों को और अधिक गहरा करते हैं और यह बताते हैं कि एक राज्य का संवैधानिक ढांचे के भीतर अपने नागरिकों के साथ कैसा संबंध होना चाहिए. यह निश्चित रूप से यह बताता है कि कोई भी भारतीय नागरिक अपने इच्छा के अनुसार अपने खाद्य और पेय पदार्थों का चयन कर सकते हैं.
बंबई उच्च न्यायालय के फैसले में अदालत ने इक्विटी के लिए विशेषाधिकार दलील खारिज कर दी. [कोर्ट के फैसले के मुताबिक राज्य में गाय और बैल को काटने पर लगाई गई राज्य सरकार की पाबंदी जारी रहेगी लेकिन बीफ का व्यापार (अगर महाराष्ट्र से बाहर से लाया जाता है, जिन राज्यों में इसकी इजाजत है) अपराध की श्रेणी में नहीं होगा। हालांकि दूसरे राज्यों से आनेवाले व्यापारियों के पास बीफ के पूरे लीगल दस्तावेज होने चाहिए. इसके अतिरिक्त अदालत ने इस दलील को भी खारिज कर दिया जिसमें कहा गया था कि मुसलमान न अपने विशेष अधिकारों से धर्म के नाम पर कानून का उल्लंघन कर रहे हैं. अदालत ने पाया कि गायों की उपज के लिए धार्मिक दायित्व अनिवार्य नहीं है। वकील की मुख्य चिंता को कोर्ट ने सुना और निर्णय दिया कि कोर्ट के पास किसी के व्यवसाय संबंधित मामलों में दखल देने का विशेषाधिकार है.
यहां एक बार फिर अदालत ने दलीलों के आधार पर निर्णय दिया कि कैसे कृषि प्रधान अर्थव्यस्था में बैल जैसे जानवर की भी महत्ता है, उदाहरण के रूप में दूध, बैल की उपयोगिता और और कृषि व्यवसाय के लिए खाद आदि. इसे देखते हुए अदालत इस निष्कर्ष पर पहुंची कि किसी भी उम्र के डेयरी पशुओं के कत्ल पर पूर्ण प्रतिबंध होगा तथा भैंसों और गायों के बछड़ों के सबंध में स्थिति यथावत रहेगी जबकि जंगली बैल और बैल पर प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता. जब जानवर दूध देने की स्थिति में नही रहेगा या नए जानवर को जन्म देने की स्थिति में नहीं रहेगा तो ऐसी स्थिति में कसाई को छूट मिल सकती है.
इसी तरह शराब की खपत पर पटना उच्च न्यायालय के निर्णय में तथ्यों के अलावा दो जजों की खंडपीठ ने इस बात पर सहमति जताई कि बगैर किसी वैध जांच के शराब का बहिष्कार नहीं किया जा सकता है. जजों में राज्य के नीति निर्देशक तत्व (डीपीएसी) बनाम मौलिक अधिकारों के विशेष मुद्दे पर भी मतभेद था. अदालत ने दलील दी कि हमारे संविधान के संस्थापक ने शराब की खपत को एक मौलिक अधिकार के रूप में नहीं देखा था तभी उन्होंने इसे एक डीपीएसपी के रूप में रखा. यह सोच की एक जटिल रेखा थी जिस पर पटना हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस सिंह ने ध्यान दिया जिसके फलस्वरूप मिनर्वा मिल्स मामले की तरह एक डीपीएसपी में मौलिक अधिकारों को सुरक्षित रखने को कहा.
दोनों निर्णयों को अपने आप में मील का पत्थर माना गया। इससे पहले कोर्ट के सामने इस तरह का कोई व्यक्तिगत स्वतंत्रता के प्रतिबंध से सम्बंधित मामले नहीं आये थे. अतीत में इस मुद्दे पर हुए निर्णय, अक्सर इनकार वाले मामले ही रहे जिनमें रोजगार के केन्द्र बिन्दु को विशेषाधिकार के माध्यम से देखा गया और यह पाया गया है कि उत्पादन पर अवरोध तथा शराब की बिक्री पर राज्य द्वारा प्रतिबंध लगाना उचित था जिसके लिए राज्य मजबूर थे. इस बार किसी भी मामले में आवेदक द्वारा व्यक्तिगत स्वतंत्रता के परिप्रेक्ष्य का विशेष रूप से उल्लेख किया गया था, जिसमें शराब के सौदागरों के साथ ही लोगों की पात्रता को भी वैरीफाई किया गया था और आवेदक द्वारा शराब की पेय मात्रा को भी इसमें शामिल किया गया था.
हालांकि कानून और संविधान के विशेषज्ञों की राय बॉम्बे हाइकोर्ट और पटना हाइ कोर्ट के फैसले पर अलग हो सकती है और इन फैसलों से व्यक्तिगत स्वास्थ्य, विश्वासों और पेशे पर हानिकारक प्रभाव हो सकता है. गोमांस पर बॉम्बे हाइकोर्ट की टिप्पणी एक औद्योगिक देश के रूप में भारत को बदल सकती है वहीं शराब की खपत पर प्रतिबंध को लेकर की गयी टिप्पणी सामाजिक व्यवस्था और नियमों को बदल सकती है. लेकिन पटना हाइकोर्ट के जस्टिस सिंह की टिप्पणी. "व्यक्तिगत स्वतंत्रता की अवधारणा दुनिया भर में बदल रही है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बाधाएं टूट रही हैं" महत्वपूर्ण है. और इसलिए हम कह सकते हैं कि एक राज्य अपने किसी भी नागरिक पर यह प्रतिबंध नहीं लगा सकता है कि उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं.
इस निर्णय से यह प्रतिबंध वाली बहस आगे बढ़ेगी जहां न सिर्फ बाधाओं के समाप्त होने की बल्कि उससे समाज, व्यक्ति और कानून को एक सकारात्मक आकार मिलने की भी संभावना बढ़ेगी.

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