राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, ओडिशा ने आर्थिक रूप से व्यावहारिक प्रौद्योगिकी विकसित की है जिसमें आम बहुलक, कम घनत्व वाले पॉलीथीन (एलडीपीई) को तरल ईंधन में बदला जा सकता है.
इस खोज से कचरे के रूप में निकाले गए प्लास्टिक की थैलियों और दूसरे उत्पादों का इस्तेमाल ईंधन की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए किया जा सकेगा. इस पर किया गया अध्ययन अंतरराष्ट्रीय जरनल इंवायरमेंट एंड वेस्ट मैनेजमेंट में प्रकाशित हुआ है.
एलडीपीई का इस्तेमाल कंटेनर, चिकित्सा और प्रयोगशाला उपकरण, कंप्यूटर उपकरणों और प्लास्टिक की थैलियों को बनाने में होता है.
इस प्रक्रिया में प्लास्टिक के कचरे को 400 से 500 डिग्री सेल्सियस पर केओलिन उत्प्रेरक के साथ (एल्यूमीनियम और सिलिकॉन युक्त मिट्टी खनिज) गर्म किया जाता है. इससे प्लास्टिक की लंबी श्रृंखला को थर्मो– कैटेलेटिक डिग्रेडेशन की प्रक्रिया द्वारा तोड़ा जाता है. इस प्रक्रिया के फलस्वरुप बड़ी मात्रा में बेहद छोटे, कॉर्बन युक्त अणु जारी होते हैं.
विश्लेषणात्मक विधि गैस क्रोमोटोग्राफी– मास स्पेक्ट्रोमेट्री (जीसी– एमएस) का इस्तेमाल इन उत्पाद अणुओं में किया जाता है और उससे उनके तरल ईंधन के घटक जो कि मुख्य रूप से 10 से 16 कार्बन परमाणुओं वाला पैराफिन और ऑल्फिन में पाया गया था. यह तरल ईंधन को पारंपरिक पेट्रोकेमिकल ईंधनों से बहुत समान बनाता है.
काओलिन एक उत्प्रेरक का काम करता है और एक बड़ा प्रतिक्रियाशील सतह प्रदान करता है जिसपर बैच रिएक्टर में पॉलिमर अणुओं को उच्च तापमान पर गर्म किया जाता है.
दुनियाभर में पुनर्चक्रण (रिसाइक्लिंग) की प्रक्रिया चल रही है लेकिन ज्यादातर पॉलिथीन करचे खुले मैदानों में फेंक दिए जाते हैं या फिर समुंद में डाल दिए जाते हैं.
अगर इस प्रक्रिया को बड़े पैमाने पर लागू किया जाए तो इससे मैदानों पर पड़ने वाला दवाब कम हो सकता है. साथ ही विश्व में ईंधन की आपूर्ति के लिए पेट्रोकेमिकलों की बढ़ती मांग को भी कम कर सकते हैं.
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