चीन, विश्व का एक ऐसा विकासशील देश जो हमेशा विश्व को कुछ ना कुछ नया देता रहा है. कभी मोबाइल, कभी खिलौने, कभी इलेक्ट्रॉनिक गैजेट और कभी उसके अविष्कार परन्तु अर्थशास्त्रियों की माने तो इस बार चीन विश्व को मंदी का नकरात्मक तौहफा दे सकता है.
अमेरिका के बाद विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था चीन जो पिछले कई दशकों से 10.6 और 9.5 जैसे आंकड़ो को अपनी विकास दर में स्थान देती थी अब अपनी विकास दर को 4 प्रतिशत तक अनुमानित करने के लिए मजबूर है. विदित हो चीन विश्व के पाँच बड़े आयातक और निर्यातक देशों में शामिल है अर्थात वह बहुत कुछ बेच कर और बहुत कुछ खरीद कर दूसरे देशों की अर्थव्यस्था को सहारा देता है अब जब ऐसे मजबूत राष्ट्र की अर्थव्यवस्था कमजोर होती है तो वह अन्य राष्ट्रों को भी अपनी चपेट में ले लेती है और यदि ऐसा हुआ तो वर्ष 2008 की तरह अमेरिका जनित वैश्विक मंदी के हालात फिर से पैदा हो जाएंगे पर इस बार इस मंदी का जन्मदाता होगा चीन.
वर्ष 2015 के अगस्त माह के अंतिम सोमवार( 24 अगस्त 2015) को मुंबई दलाल स्ट्रीट में ‘ब्लैक मंडे’ का नाम दिया गया क्योंकि अकेले उस दिन ही शेयर बाजार में आई गिरावट से निवेशकों को सात लाख करोड़ रुपए का घाटा हुआ. उस दिन रुपए की कीमत डॉलर की तुलना में 4 प्रतिशत गिरी. भारत की इस दशा के पीछे जिम्मेदार थी चीन के शेयर बाजार में आई भारी गिरावट.
अब प्रश्न ये उठता है की चीन का शेयर बाजार अचानक इतना अस्थिर क्यों हो गया ? इस अस्थिरता का सीधा कारण चीन द्वारा किया गया अवमूल्यन था विदित हो चीन अब तक अपनी मुद्रा में 4 प्रतिशत तक अवमूल्यन कर चुका है. अब अगला प्रश्न यह है की अवमूल्यन किया क्यों गया ? पर इससे पहले जान लेते हैं की अवमूल्यन है क्या ?
मुद्रा का अवमूल्यन क्या है ?
अवमूल्यन को अंग्रेजी में “Devaluation” कहा जाता है अर्थात “degrading the value of currency”. इस अवधारणा के तहत कोई देश अपनी मुद्रा की विनमय दर में जानबूझ कर कमी कर देता है.
उदाहरण के लिए यदि 1 डॉलर 5 युवान के बराबर है. अब यदि अमेरिका चीन को 1 डॉलर देगा तो उसे 5 युवान मिलेगा और वह 5 युवान से चीन से एक फोन(माना एक फोन की कीमत 5 युवान है) ले सकता है. परन्तु माने अवमूल्यन के बाद 1 डॉलर, 10 युवान के हो बराबर हो जाएगी. अब अमेरिका 1 डॉलर देकर 2 फोन(यदि एक फोन 5 युवान है) खरीद सकता है.
उपर्युक्त उदाहरण यह दिखाता है की अवमूल्यन निर्यात को बढ़ाता है जबकि यह आयत को घटाता भी है.
इस स्थिति से अन्य देशों को नुकसान होता है क्योंकि सारे खरीदार एक देश की तरफ भागते हैं. इस स्थिति से निपटने के लिए अन्य देश भी अपनी मुद्रा का अवमूल्यन करते हैं और अंततः एक एसी स्थिति जन्म लेती है जब सरे देश अपनी मुद्रा का अवमूल्यन कर लेते हैं.
यह ठीक वैसी ही स्थिति है जब प्याज ना बिकने के कारण एक सब्जी वाला अपनी प्याज का दाम कम कर लेता है जिससे उसकी माँग बढ़ जाती है परन्तु और दुकानदारों की माँग घाट जाती है अतः अन्य दुकानदार अपनी प्याज की कीमत भी कम कर लेते हैं और जब पूरा बाजार अपनी प्याज की कीमत कम कर लेता है तो किसी को लाभ नहीं होता.
अब प्रश्न है अवमूल्यन क्यों किया गया ?
क्योंकि चीन को डॉलर की आवश्यकता है. डॉलर ही क्यों ? - क्योंकि डॉलर टायर करेंसी है अर्थात एसी करेंसी जिसका उपयोग सारे देश करते हों और वह प्रचलन में भी सबसे ज्यादा हो. डॉलर लेने के लिए चीन से निर्यात का होना आवश्यक है और निर्यात बढ़ाने का एक तरीका है अवमूल्यन(जैसे ऊपर बताया गया है).
चीन द्वारा डॉलर की इतनी माँग अचानक बढ़ने के पीछे एक कारण उसकी नीति भी है क्योंकि चीन ने विभिन्न कार्यों की पूर्ती जैसे कामगारों को मजदूरी, विकास करने के लिए भारी ऋण लिया है, चीन वर्तमान में मुद्रास्फीति के दंश को भी झेल रहा है और इसके पीछे कारण है इसके उत्पादों की पिछले कुछ दशको में भारी माँग जिसके कारण वहां के मजदूरों ने भी अपनी मजदूरी दर बढ़ा दी है. वर्तमान में अपने कुल सकल घरेलु उत्पाद का 200 प्रतिशत से अधिक चीन को ऋण चुकाने के लिए देना पड़ता है.
चीन की अर्थव्यवस्था के कमजोर होने के पीछे एक कारण चीन की आधारभूत संरचना के निवेश में आई कमी भी है. चीन ने पिछले दो दशकों में रेल, सड़क, बिजली समेत अनेक प्रकार की आधारिक संरचना में भारी निवेश किया है, लेकिन अब वहां निवेश की गति बहुत धीमी हो गई, जिसके चलते चीन में वृद्धि घटने लगी है.
क्या किया जा सकता है ?
• चीन से माँग घटने का एक कारण है चीन की विशेषज्ञता का कम होना. उदाहरण के लिए आज से 40 वर्ष पूर्व कार का निर्माण अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी और इटली जैसे देशों के द्वारा किया जाता था परन्तु अब भारत जैसे विकास शील देशों की टाटा जैसी कम्पनियों ने भी वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान बनाई है, जिससे भारत में कार की माँग जो पहले अमेरिका और जर्मनी द्वारा पूरी की जाती थी अब भारत स्वयं ही पूरी कर लेता है अतः माँग घटना तो स्वाभाविक है. पिछले कई दशकों में मोबाईल और कम्प्यूटर जैसे क्रन्तिकारी अविष्कारों की संख्या वैश्विक स्तर पर घटी है. भविष्य में नए आविष्कार माँग को एक नया मार्ग दे सकते हैं जिससे इस सुस्त वृद्धि को रफ़्तार मिल सकती है. इसके अतिरिक्त सभी देशों को अपनी नीतियों पर पुनःविचार करने की आवश्यकता है.
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