भारत के ‘फ्रॉगमैन’ कहे जाने वाले दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एसडी बिजू ने मेढकों की सात नई प्रजातियों की खोज की. इसकी घोषणा अक्टूबर 2014 के चौथे सप्ताह में की गई. प्रो. बिजू और उनकी टीम ने श्रीलंका ग्लोबल बायोडायवर्सिटी हॉटस्पॉट के पश्चिमी घाटों से सुनहरी पीठ (गोल्डन बैक) वाले मेढकों की सात नई प्रजातियों का पता लगाया.
इस खोज के साथ ही प्रो. बिजू ने मेढकों की इस प्रजाति के बारे में फैली गलत धारणाओं और मान्यताओं को ख़ारिज कर दिया, जिसके तहत अब तक यह माना जा रहा था कि भारत और श्रीलंका में पाए जाने वाले 'सुनहरे मेढक' एक ही प्रजाति के हैं. लेकिन एकीकृत तरीके से की गई इस खोज में शोध टीम ने यह पाया गया है कि भारत और श्रीलंका में पाए जाने वाले ये मेढक अलग-अलग प्रजाति के हैं.
प्रो. बिजू ने इनके संबंध में बताया कि डीएनए और रुपात्मक अध्ययन के बाद यह पाया गया कि करीब 150 वर्षों तक भारत में इन मेढ़कों की प्रजाति की गलत पहचान हो रही थी. खोज में यह खुलासा हुआ है कि भारत में पाए जाने वाले इन मेढकों की प्रजाति श्रीलंकाई मेढकों से बिल्कुल अलग है. उन्होंने बताया कि अक्सर वैज्ञानिक उभयचर जीवों का पता लगाने के लिए प्राकृतिक जंगलों में ही जाते थे. जबकि सुनहरे मेढक शहरी आबादी वाले इलाकों में पाए जाते हैं.
इस खोज ने उभयचर व्यवस्था को लेकर वर्षों से चली आ रही समस्याओं का भी समाधान कर दिया. अब तक महज कुछ प्रजातियों के बारे में ही लोगों को जानकारी थी, उसमें भी भारतीय और श्रीलंकाई मेढकों के बारे में अलग-अलग जानकारी का अभाव था. प्रो. बिजू और उनकी टीम ने रूपात्मक (morphological) और आनुवांशिक (genetic) अध्ययन के जरिए वर्षों से चली आ रही इस आधी अधूरी जानकारी व समस्या का समाधान किया. इस अध्ययन से यह भी साफ हो गया कि मुख्यभूमि और द्वीप में अलग तरह के जीव होते हैं और दोनों को संरक्षित किया जाना जरुरी है.
विदित हो कि जर्मन-ब्रिटिश जीव विज्ञानी एल्बर्ट गुंथेर ने सबसे पहले श्रीलंका के पश्चिमी घाटों में पाए जाने वाले सुनहरे मेढ़कों की प्रजाति के बारे में बताया था. सुनहरी पीठ वाले मेढक हाइलराना टेम्पोरलिस को सबसे पहले श्रीलंका में वर्ष 1864 में देखा गया था. इन्हें धीरे-धीरे श्रीलंका ग्लोबल बायोडायवर्सिटी हॉटस्पॉट के पश्चिमी घाटों में देखे जाने के साथ ही साथ भारत में भी देखा जाने लगा. दक्षिण भारत के साथ ही ये सबसे ज्यादा महाराष्ट्र में पाए जाते हैं.
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