वर्ष 2014 में भारतीय ऋण पत्रों की विदेशी निवेशकों में अच्छी मांग रही. इस दौरान रिकार्ड कुल 19 अरब अमेरिकी डालर की भारतीय ऋण प्रतिभूतियों की खरीदारी हुई जो पिछले वर्ष के मुकाबले 20 प्रतिशत अधिक है. इसकी घोषणा भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड ने दिसंबर 2014 में की.
विदेशी बाजारों में बॉंड जारी करने वाली कंपनियों में 3.3 अरब अमेरिकी डालर की बॉंड बिक्री के साथ रिलायंस इंडस्ट्रीज सबसे उपर रही. इसके बाद तीन अरब अमेरिकी डालर ओएनजीसी और आवीएल ने जुटाये. भारतीय स्टेट बैंक ने कुल 1.25 अरब अमेरिकी डालर और टाटा स्टील ने 1.5 अरब अमेरिकी डालर की पूंजी विदेशी बाजारों से जुटाई. वर्ष 2012 से 2014 के बीच रिलायंस ने विदेशी मुद्रा बॉंड अथवा कर्ज के जरिये कुल 10 अरब अमेरिकी डालर जुटाये.
कमजोर व्यवसायिक (कापरेरेट) तथा सावरेन रेटिंग के बावजूद तथाकथित ‘बेकार’ (जंक) बांड की खरीद में भी तेजी देखी गई. कबाड़ अथवा जंक बॉंड को बोल चाल की आम भाषा में अधिक मुनाफा कमाने या फिर गैर-निवेश श्रेणी के तौर पर इस्तेमाल में लाया जाता है. ये बांड आम तौर पर सुनिश्चित आय वाले ऋणपत्र होते हैं, जिनकी रेटिंग कम होती है और निवेश श्रेणी के बॉंड के मुकाबले इनमें जोखिम भी ज्यादा होता है. वर्ष 2014 में अंतरराष्ट्रीय निवेशकों ने भारतीय कंपनियों द्वारा जारी पांच अरब अमेरिकी डालर के ऐसे कबाड़ श्रेणी के बांड खरीदे. कंपनियों को अपनी कार्यशील पूंजी के लिए सस्ती पूंजी जुटाने के लिये विदेशी बाजारों का रख करना पड़ा. उनके समक्ष महंगे घरेलू कर्ज को चुकाने के लिये विदेशी बाजारों से सस्ता धन जुटाने का यह बेहतर विकल्प रहा.
दूसरी ओर ज्यादा से ज्यादा कंपनियों द्वारा विदेशी बाजारों से पूंजी जुटाने के कारण देश का कुल विदेशी ऋण सकल घरेलू उत्पाद के मुकाबले एक चौथाई से थोड़ा अधिक या 500 अरब अमेरिकी डालर से कुछ अधिक हो गया. अमेरिकी केंद्रीय बैंक द्वारा अप्रैल 2014 में ब्याज दर बढ़ाने के संकेत के बीच निवेश बैंकरों को वर्ष 2015 की पहली तिमाही के दौरान ऋण बाजार में गतिविधियां तेज होने की उम्मीद है. विदेशी मुद्रा कोष जुटाने की प्रक्रिया में वर्ष 2013 के दौरान 60 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई और इस दौरान यह राशि 15 अरब अमेरिकी डालर रही.
बाजार के आंकड़े के मुताबिक विदेशी मुद्रा बांड पर कूपन दर 3.25 प्रतिशत (एसबीआई के लिए) की निम्न दर से लेकर कबाड़ श्रेणी में आने वाले बॉंड के लिये 8.75 प्रतिशत रही. ऐसे बॉंड मदरसन सुमी और रोल्टा जैसी कंपनियों ने वर्ष 2014 के दौरान जारी किये. भारतीय उद्योगों के लिये कार्यशील पूंजी में डालर ऋण जुटाने की जरूरत इसलिए भी थी कि रूपये में जुटाए गए मंहगे ऋण का भुगतान किया जा सके. अन्य कंपनियों के अलावा विविधीकृत क्षेत्रों की कंपनियों, एस्सार समूह और दूरसंचार क्षेत्र की प्रमुख कंपनी भारती एयरटेल ने रुपए में लिए मंहगे ऋण के भुगतान के लिए विदेशी बाजारों से पांच अरब अमेरिकी डालर जुटाए.
इस दौरान संबंधित कंपनियों को वित्तीय लागत के लिहाज से औसतन छह प्रतिशत की बचत हुई. निवेश बैंकरों ने विदेशी मुद्रा में जुटाए ऋण में वृद्धि की वजह देश में उंची ब्याज दरों को बताया, इसके अलावा अमेरिकी केंद्रीय बैंक द्वारा वर्ष 2015 की शुरूआत में ब्याज दर बढ़ाए जाने के संकेत को भी इसकी वजह बताया गया. उन्होंने इस वर्ष शुरूआत में आम चुनाव में निर्णायक जीत के बाद सत्ता में आई नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली नयी सरकार बनने के बाद निवेशकों के रुझान में सुधार को भी इसका श्रेय दिया.
विदित हो कि सभी निवेश श्रेणियों में भारतीय कंपनियों और बैंकों ने वर्ष 2014 में रिकार्ड 19 अरब अमेरिकी डालर जुटाए, जिनमें रिलायंस इंडस्ट्रीज का स्थान प्रमुख रहा जिसका विदेशी मुद्रा में ऋण बढ़कर 3.3 अरब अमेरिकी डालर हो गया. यह लगातार तीसरे वर्ष रहा जब रुपये में कर्ज महंगा बना रहा और यही वजह रही कि विदेशी बाजारों से पूंजी जुटाने की तरफ झुकाव बढ़ा.
Comments
All Comments (0)
Join the conversation