समान नागरिक संहिता: एक देश, एक कानून

Oct 26, 2016, 11:50 IST

परिभाषा- समान नागरिक कानून से अभिप्राय कानूनों के ऐसे समूह से है जो देश के समस्त नागरिकों (चाहे वह किसी धर्म या क्षेत्र से संबंधित हों) पर लागू होता है.

Josh Formपरिभाषा- समान नागरिक कानून से अभिप्राय कानूनों के ऐसे समूह से है जो देश के समस्त नागरिकों (चाहे वह किसी धर्म या क्षेत्र से संबंधित हों) पर लागू होता है. यह किसी भी धर्म, संप्रदाय या जाति के सभी निजी कानूनों से ऊपर होता है। इस कानून की प्रकृति सार्वजनिक कानूनों की प्रकृति से अलग है.

इन कानूनों में विवाह, तलाक, रखरखाव, गोद लेने, कस्टडी, ग्रहण और उत्तराधिकार और संरक्षण के कानूनों को शामिल किया गया है. समान नागरिक संहिता को महिला-पुरूष दोनों के लिए एक समान और समतावादी कानून के रूप में स्वीकार किया जाता है.

समान नागरिक संहिता की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
समान नागरिक संहिता के बारे में एक बहस की शुरूआत औपनिवेशिक काल के दौरान तब शुरू हुई थी जब 1840 में लेक्स लोकी रिपोर्ट ने भारतीय कानूनों की संहिताकरण और एकरूपता की आवश्यकता का प्रस्ताव रखा था, लेकिन तब यह न सिर्फ मुसलमानों बल्कि हिंदुओं के भी विरोध के कारण लागू नहीं हो सका. यह कानून अपराधों, सबूतों और अनुबंध से संबंधित था, लेकिन इसमें यह सुझाव दिया गया था कि इस तरह के संहिताकरण के दायरे में हिंदुओं और मुसलमानों के निजी कानूनों को नहीं रखा जाएगा.

अंग्रेजों ने उन सभी मामलों के बारे में योजना बनायी जिनके द्वारा विभिन्न धार्मिक ग्रंथों और रीति-रिवाजों को नियंत्रित किया जा सकता है. उस अवधि के दौरान निजी कानूनों को विरासत, उत्तराधिकार, विवाह और धार्मिक अनुष्ठानों से संबंधित निर्णय लेने का अधिकार था. हिंदू कानून महिलाओं के खिलाफ होने वाले भेदभाव पर आधारित थें. हिन्दू महिलाओं को तलाक, पुनर्विवाह और विरासत की अनुमति नहीं थी. ईश्वर चन्द्र विद्यासागर और कुछ ब्रिटिश समाज सुधारकों ने विधायी प्रक्रियाओं के माध्यम से सुधारों की वकालत की औऱ इस तरह के रीति-रिवाजों तथा प्रथाओं को गैर-कानूनी घोषित करवाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उनके प्रयासों की वजह से ही 1856 में हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम पारित हुआ. उसके बाद ब्रिटिश सरकार द्वारा 1923 का विवाहित महिलाओं के लिए संपत्ति अधिनियम और हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1928 को पारित किया गया था, जिसने हिंदू महिलाओं को संपत्ति के अधिकार की अनुमति प्रदान की.

1923 में हिंदू महिला संपत्ति अधिनियम को कानूनी अधिकार बनाया गया. इस अधिनियम को देशमुख बिल के रूप में भी जाना जाता है. इस अधिनियम को बी.एन राव कमेटी ने प्रस्तावित किया था जिसने समान हिंदू कानून की आवश्यकता पर बल दिया. समिति ने सिफारिश करते हुए कहा था कि समान नागरिक संहिता समय की जरूरत है और इस कानून से महिलाओं को समान अधिकार मिलेंगे लेकिन इसका मुख्य लक्ष्य उन हिन्दू कानूनों में सुधार करना था जो हिंदू ग्रंथों पर आधारित थे.

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एक सार्वजनिक कानून (पब्लिक लॉ) क्या है?

सार्वजनिक कानून राज्य और व्यक्ति के बीच संबंधों से संबंधित है. सार्वजनिक कानून में तीन उप प्रभाग शामिल हैं: संवैधानिक, प्रशासनिक और आपराधिक कानून.

एक निजी कानून (पर्सनल लॉ) क्या है?

पर्सनल लॉ निजी मामलों और एक समाज में रहने वाले लोगों के संबंधों से संबंधित है. इन मामलों में विवाह, तलाक, संपत्ति, उत्तराधिकार आदि शामिल हैं.

आजादी के बाद समान नागरिक संहिता

1. एक हिंदू पर्सनल लॉ के रूप में समान नागरिक संहिता
आजादी के बाद भारतीय संसद में हिंदू विधेयक पेश किया गया। इस पर संसद के विभिन्न सत्रों में 1947-1954 के बीच चर्चा की गई थी. समान नागरिक संहिता के बारे में संसद में भिन्न भिन्न राय रखने वाले लोग थें. नेहरू और अम्बेडकर ने इसका दृढ़ता से समर्थन किया था, लेकिन समाज के रूढ़िवादी तबके ने इस पर आपत्ति जताई और अपनी आपत्तियों को मुख्य रूप से बनाए रखा तथा कहा कि यह हिंदू नागरिक संहिता धार्मिक शिक्षाओं के खिलाफ है.

एक कानून मंत्री के रूप में अम्बेडकर पर इस बिल का ब्यौरा तैयार करने की जिम्मेदारी थी. राजेंद्र प्रसाद और सरदार वल्लभ भाई पटेल सहित संसद के कई वरिष्ठ सदस्यों ने इस बिल का विरोध किया. कट्टरपंथी और परंपरावादी जो हिन्दू कोड बिल के खिलाफ थे, उन्होंने समान नागरिक संहिता की मांग की, लेकिन उनका प्रस्ताव काफी देरी से आया था तब तक यह बिल संसद में कानूनी रूप धारण करने के लिए तैयार हो चुका था. आखिरकार 1956 में यह विधेयक अपने निम्न संस्करण में पारित हो गया. इस विधेयक (बिल) को चार कानूनों में विभाजित किया गया था- हिंदू विवाह अधिनियम, उत्तराधिकार अधिनियम, अल्पसंख्यक और संरक्षकता अधिनियम और प्रदत्त और रखरखाव अधिनियम.

संसद ने एक निर्णय लिया कि समान नागरिक संहिता का विचार संविधान में शामिल किया जाएगा. इसलिए अनुच्छेद 44 को संविधान में जोड़ा गया, जो यह बताता है कि "भारत के किसी भी राज्यक्षेत्र में समान नागरिक संहिता लागू करने की ज़िम्मेदारी केद्र सरकार की होगी." दूसरी तरफ मुस्लिम समुदाय के लिए एक अन्य कानून को संचालित किया गया था.   

2- भारत में मुस्लिम पर्सनल लॉ
1937 में मुस्लिम पर्सनल लॉ एक्ट की स्थापना की गयी थी. यह व्यक्तिगत मामलों में भारत में रहने वाले सभी मुस्लिमों को शरीयत के इस्लामी कोड कानून के तहत अधिकार प्रदान करता है. इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार 1973 में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की स्थापना की गयी थी. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) मूल रूप से शरीया कानून का समर्थन करता है और कोई भी कानून जो इसके मूल सिद्धांतों में हस्तक्षेप करना चाहता है उससे स्वयं की रक्षा करता है.

शरीया कानून क्या है?

शरीया एक धार्मिक कानून है जिसे इस्लामी आस्था के सदस्यों द्वारा संचालित किया जाता है. यह इस्लाम के धार्मिक उपदेशों, विशेष रूप से कुरान और हदीस से लिया गया है. शरीया शब्द की उत्पति अरबी भाषा के शरी अ से हुई है जिसका अर्थ है एक धार्मिक कानून का नैतिक रूप. यह धार्मिक भविष्यवाणी से निकला है और मानव निर्मित कानूनों का विरोध करता है.

यूसीसी संदर्भ में शाहबानो प्रकरण का महत्व :
शाह बानो प्रकरण न्याय और समानता के संदर्भ में मुस्लिम महिलाओं के लिए एक मील का पत्थर था. इसने भारत में पर्सनल लॉ पर एक नई राजनीतिक बहस को जन्म दिया. शाहबानो एक 60 वर्षीय महिला थी जिसके पति ने दूसरी शादी करने के लिए उसे तलाक दे दिया था. इस उम्र में अपने पांच बच्चों के साथ पति से अलग हुई शाह बानो के पास कमाई का कोई जरिया नहीं था, लिहाजा उन्होंने दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 125 के अंतर्गत अपने पति से भरण पोषण भत्ता दिए जाने की मांग की. न्यायालय ने शाह बानो के पक्ष में फैसला दिया। यह इस तरह को कोई पहला मामला नहीं था जब मुस्लिम महिला को अपने पति से गुजारा भत्ता मिला हो लेकिन इसे मुस्लिम समाज के रूढिवादी लोगों ने इस्लाम पर हमला माना. शाहबानों के पति ने इस फैसले के खिलाफ अपील की और अंततः यह मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा. शाह बानो के पक्ष में आए न्यायालय के फैसले का भारी विरोध हुआ. आखिरकार राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम धर्मगुरुओं के दबाव में आकर मुस्लिम महिला अधिनियम, 1986 पारित कर दिया. इस अधिनियम के जरिये शाह बानो के पक्ष में आया न्यायालय का फैसला भी पलट दिया गया. इस अधिनियम का सबसे विवादास्पद प्रावधान यह था कि एक मुस्लिम महिला के पास तलाक के बाद इद्दत की अवधि (लगभग 3 महीने) तक भरण पोषण का खर्चा मांगने का अधिकार है. बाद की जिम्मेदारी महिला के रिश्तेदारों या वक्फ बोर्ड की होगी.

यह अधिनियम भेदभावपूर्ण माना जाता था क्योंकि यह कानून मुस्लिम महिलाओं को बुनियादी रखरखाव जैसी सुविधाएं जो धर्मनिरपेक्ष कानून के तहत अन्य धर्मों की महिलाओं मिलती है,नहीं देता है. मुंबई के एक वकील फ्लाविया एग्नेस का कहना है कि इस कानून में उदार व्याख्या की कमी है. इस कानून की धारा 3 (1) के खंड ए के अनुसार एक तलाकशुदा औरत अपने पूर्व पति से इद्दत की अवधि के दौरान एक उचित और निष्पक्ष मेंटिनेंस पाने की हकदार होगी.

हालांकि 1986 में आए अधिनियम ने उम्मीद से बेहतर काम किया लेकिन अभी भी कई लोगों के लिए मुस्लिम महिलाओं के तलाक का मामला अन्य की तुलना में एक चिंता का विषय बना हुआ है.

हमें क्यों एक समान नागरिक संहिता की आवश्यकता है?
समान नागरिक संहिता की आवश्यकता का मूल अर्थ बिना किसी समुदाय की परवाह किए बिना इन सभी निजी कानूनों को एक धर्मनिरपेक्ष कानूनों में तब्दील करना जो भारत के हर नागरिक पर लागू होता है. समान नागरिक संहिता के आधार की अभी भी ठीक तरीके से व्याख्या नहीं की जा रही है. इसमें निजी कानूनों का सबसे आधुनिक और प्रगतिशील संस्करण भी शामिल होगा और यह उन कानूनों का स्थान लेगा जिनका कोई मतलब नहीं है.

समान नागरिक संहिता की संवैधानिक वैधता:

  1. अनुच्छेद 14 भारत के किसी भी राज्यक्षेत्र में रहने वाले हर व्यक्ति को कानूनों के समान संरक्षण के लिए समानता प्रदान करता है. यह किसी भी धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव नहीं करता है.
  2. अनुच्छेद 15 धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या इनमें से किसी के आधार पर भी होने वाले भेदभाव पर प्रतिबंध लगाता है.
  3. अनुच्छेद 16 लोक नियोजन के विषय पर अवसर की समानता प्रदान करता है.
  4. अनुच्छेद 17 को भेद-भाव (अछूत) को समाप्त करता है.
  5. अनुच्छेद 44 कहता है कि "भारत के किसी भी राज्यक्षेत्र में समान नागरिक संहिता लागू करने की ज़िम्मेदारी केद्र सरकार की होगी."

समान नागरिक संहिता की बहस भारतीय संविधान में निहित धर्मनिरपेक्षता और धर्म की स्वतंत्रता को लेकर है. संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है कि भारत एक 'धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य है." इसका मतलब यह है कि इस देश का कोई धर्म नहीं  है. इसलिए अगर  इस आधार पर देखा जाए तो समान नागरिक संहिता के खिलाफ किसी भी धर्म से आने वाली आपत्ति को गैरकानूनी घोषित किया जा सकता है. एक धर्मनिरपेक्ष देश में धर्म के आधार पर किसी के खिलाफ कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता है.

भारतीय संविधान मजबूती से लैंगिक समानता का पक्ष लेता है. उदाहरण के लिए संविधान के अनुच्छेद 44 में सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता की परिकल्पना की गई है और कहा गया है कि, "भारत के किसी भी राज्यक्षेत्र में समान नागरिक संहिता लागू करने की ज़िम्मेदारी केद्र सरकार की होगी." हालांकि संविधान बनने के 65 साल बाद भी आदर्श समान नागरिक संहिता को अभी तक हासिल नहीं किया जा सका है.

तीन तलाक को लेकर हुए हालियां विवाद:

तीन तलाक की अवधारणा:

सुन्नी धर्मशास्त्र के कई विद्वानों और जायदी धर्मशास्त्र के कुछ विद्वानों ने तीन तलाक का समर्थन किया है.

पति के संदर्भ में यदि वह अपनी पत्नी से तीन बार यह कहता है कि "मैं तुम्हें तलाक देता हूं" (अरबी, तलाक में)।

एक तलाक के लिए शिया और सुन्नी में अलग-अलग नियम हैं। तलाक के तीन चरण हैं:

1.शुरूआत

2.सुलह

3.पूरा करना

तीन तलाक मुसलमानों की एक रीति है जिसमें एक मुस्लिम व्यक्ति अपनी पत्नी से लगातार तीन बार एक साथ यह कहकर कानूनी रूप से अपनी शादी तोड़ सकता है कि "मैं तुम्हें तलाक देता हूं."

क्या गलत है?
इस तीन बार तलाक कहने के कानून ने मुस्लिम महिलाओं की जिंदगी को एक अन्यायपूर्ण और अनुचित ढंग से प्रभावित किया है.

मुस्लिम महिला फाउंडेशन की अध्यक्ष नाजनीन अंसारी ने अपने लाभ हेतु शरीयत कानूनों का इस्तेमाल करने के लिए मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की निंदा की। नाजनीन कहती हैं, "जब मुस्लिम महिलाओं की स्वतंत्रता की बात होती है तो तभी इन धार्मिक गुरूओं को शरीयत का ध्यान क्यों आता है?" नाजनीन पूछती हैं, "क्यों नहीं ये मौलवी बलात्कार और इसी तरह के अन्य अपराधों के लिए शरीयत कानून को लागू करते हैं? कई मुस्लिम महिलाएं अपनी असहमति और तीन तलाक के खिलाफ मोर्चा खोलने के लिए आगे आ रहीं है. कई महिलाओं ने विभिन्न अदालतों में केस दायर कर रखे हैं. कई मुस्लिम महिला विचारक मुस्लिम महिलाओं के खिलाफ भेदभाव को एक बेंचमार्क के रूप में देखती हैं. कोई भी कानून जो महिलाओं के प्रति भेदभावपूर्ण रवैया दर्शाते हैं वह पूरे समाज के लिए सही नहीं हो सकते हैं.”

सुप्रीम कोर्ट का क्या स्टैंड है?
वर्तमान में भारत के सर्वोच्च न्यायालय में इस बात को लेकर प्रक्रिया चल रही है कि तीन तलाक संवैधानिक घोषित किया जाए या फिर असंवैधानिक. सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक के मुद्दे पर केंद्र सरकार से उसका पक्ष पूछा है जिसके जवाब में सरकार ने कहा है कि किसी भी लोकतांत्रिक देश में इस तरह के भेदभाव पूर्ण प्रथा का समर्थन नहीं किया जा सकता है.

'तीन तलाक' पर चल रही बहस के बीच सरकार का रूख स्पष्ट है कि निजी कानून संवैधानिक रूप से आज्ञाकारी और लैंगिक समानता के अनुरूप होने चाहिए और गरिमा के साथ जीने के अधिकार के मानदंडों के अनुरूप भी होने चाहिए। एक बार फिर से समाज के कई रूढ़िवादी तबकों द्वारा सरकार और सुप्रीम कोर्ट के इस दृष्टिकोण पर आपत्ति जताई जा रही है. इनके विचार मूल रूप से अनुमान पर आधारित हैं जो उनकी धार्मिक पुस्तकों में लिखे गए हैं औऱ जिन्हें कभी नहीं  बदला जा सकता है और ना ही संशोधित किया जा सकता है. इस तर्क का हवाला देते हुए ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट मंस एक जवाबी हलफनामा दायर किया है. अभी तक इस पूरे मामले में कोई स्पष्ट निष्कर्ष नहीं निकला है.

हालांकि, हमारे संविधान के संस्थापक सदस्यों ने संविधान को सर्वोच्च प्राधिकारी माना है और किसी भी समुदाय के धार्मिक कानूनों को संविधान से ऊपर नहीं रखा जा सकता है. समान नागरिक संहिता धर्मनिरपेक्षता की सच्ची भावना है जो एक लोकतांत्रिक राष्ट्र का एक अहम और अनिवार्य हिस्सा है.

उपरोक्त अध्ययन से पता चलता है कि इस तरह के मुद्दों से निपटने के लिए एक मानवीय दृष्टिकोण की आवश्यकता है. प्रत्येक नागरिक एक सम्मानजनक जीवन और उपचार पाने का हकदार है. इसलिए  समान नागरिक संहिता का कानून भारत में लैंगिक न्याय और समानता की दिशा में एक बड़ा कदम होगा जो हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूत करेगा.

Sharda Nand is an Ed-Tech professional with 8+ years of experience in Education, Test Prep, Govt exam prep and educational videos. He is a post-graduate in Computer Science and has previously worked as a Test Prep faculty. He has also co-authored a book for civil services aspirants. At jagranjosh.com, he writes and manages content development for Govt Exam Prep and Current Affairs. He can be reached at sharda.nand@jagrannewmedia.com
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