भारत में जनजातीय आंदोलनों की सूची, पढ़ें

Jul 3, 2024, 18:56 IST

भारत में जनजातीय आंदोलन या विद्रोह क्रांतिकारी प्रवृत्तियों से प्रेरित थे। वे इस स्थिति का उपयोग समकालीन जनजातीय समाज में विद्यमान बुराइयों और दुर्भावनाओं से लड़ने और उन्हें समाप्त करने के लिए करना चाहते थे। इस लेख में हम ब्रिटिश भारत के दौरान हुए जनजातीय विद्रोहों का संपूर्ण सारांश दे रहे हैं, जो यूपीएससी, एसएससी, राज्य सेवाओं, सीडीएस, एनडीए, रेलवे आदि जैसी परीक्षाओं की तैयारी में उम्मीदवारों की मदद करेगा।

भारत के प्रमुख जनजातीय आंदोलन
भारत के प्रमुख जनजातीय आंदोलन

जनजातीय आबादी रूढ़िवादी होने के कारण अपने समाज की विद्यमान प्रमुख विशेषताओं को बनाये रखने में रुचि रखती थी। जनजातीय आंदोलन क्रांतिकारी प्रवृत्तियों से प्रेरित थे। वे इस स्थिति का उपयोग समकालीन जनजातीय समाज में विद्यमान बुराइयों और दुर्भावनाओं से लड़ने और उन्हें समाप्त करने के लिए करना चाहते थे। भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान जनजातीय विद्रोहों का संपूर्ण सारांश नीचे दिया गया है:

-रंगपुर, बंगाल का किसान विद्रोह (1783 ई.)

1757 ई. के बाद अंग्रेजों ने बंगाल पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया और उन्होंने राजस्व ठेकेदारों के माध्यम से किसानों से यथासंभव कर वसूलना शुरू कर दिया। जब कंपनी अधिकारियों द्वारा किसानों की शिकायतों का निवारण नहीं किया गया, तो उन्होंने कानून अपने हाथ में ले लिया। दिर्जिनरायन के नेतृत्व में उन्होंने स्थानीय कटघरों और ठेकेदारों के स्थानीय एजेंटों और सरकारी अधिकारियों की फसल के गोदामों पर हमला किया। इस विद्रोह में हिन्दू और मुसलमान दोनों ने कंधे से कंधा मिलाकर लड़ाई लड़ी। लेकिन, कंपनी की सशस्त्र सेनाओं ने स्थिति पर नियंत्रण कर लिया और विद्रोह को दबा दिया।

-भीलों का विद्रोह (1818-31 ई.)

भील लोग मुख्यतः खानदेश की पहाड़ी श्रृंखलाओं में संकेन्द्रित थे। 1818 ई. में खानदेश पर ब्रिटिश कब्जे से भील लोग क्रोधित हो गए, क्योंकि उन्हें अपने क्षेत्र में बाहरी लोगों के आक्रमण का संदेह था।

-मैसूर विद्रोह (1830-31 ई.)

इसकी शुरुआत टीपू सुल्तान की अंतिम हार के बाद हुई थी; अंग्रेजों ने मैसूर शासकों पर सहायक संधि लागू की थी, जिसके तहत उन्होंने मैसूर शासकों को राजस्व बढ़ाने के लिए मजबूर किया था। परिणामस्वरूप, मैसूर शासकों ने जमींदारों पर राजस्व की मांग बढ़ाने के लिए वित्तीय दबाव डाला, जिससे अंततः कृषकों पर राजस्व का बोझ बढ़ गया। नगर प्रांत में सरदार मल्ला (क्रेम्सी के एक आम रैयत के पुत्र) के नेतृत्व में किसानों ने जमींदारों की निरंकुश प्रवृत्ति के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया।  ब्रिटिश सेना ने विद्रोही किसानों से नगर का नियंत्रण पुनः प्राप्त कर लिया और विद्रोह को दबा दिया।

-कोल विद्रोह (1831-32 ई.)

सिंहभूम के कोल लोगों ने अपने सरदारों के अधीन लम्बी शताब्दियों तक अपनी संप्रभुता का आनंद उठाया। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के आगमन के बाद कोल जनजातियों की संप्रभुता ब्रिटिश कानून और व्यवस्था के कारण प्रभावित हुई, जिससे जनजातीय लोगों के बीच तनाव पैदा हो गया। वे तब क्रोधित हो गए जब अंग्रेजों ने आदिवासियों की भूमि व्यापारियों और साहूकारों जैसे बाहरी लोगों को हस्तांतरित कर दी, जिससे आदिवासी प्रमुखों की वंशानुगत स्वतंत्र शक्ति को बड़ा खतरा पैदा हो गया। उन्होंने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की निरंकुश कानून और व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह किया। यह विद्रोह रांची, हजारीबाग, पलामू और मानभूम तक फैल गया। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने विद्रोह को बेरहमी से दबा दिया और कोल जनजातीय क्षेत्रों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया।

-मप्पिला विद्रोह (1836-54 ई.)

सभी किसान विद्रोहों में इसका महत्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि यह विद्रोह औपनिवेशिक शासन को चुनौती देता है। मप्पिला लोग अरब प्रवासियों और धर्मांतरित हिंदुओं के वंशज थे, जो काश्तकार, भूमिहीन मजदूर, छोटे व्यापारी और मछुआरे थे। जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने मालाबार तट पर अपना शासन स्थापित किया, तो मप्पिलाओं के जीवन में विशेष रूप से भूमि राजस्व प्रशासन के माध्यम से कठिनाईयां आ गईं। उन्होंने राज्य और जमींदारों के खिलाफ विद्रोह किया।  ब्रिटिश सशस्त्र बलों ने विद्रोहियों को दबाने के लिए कार्रवाई की, लेकिन कई वर्षों तक उन्हें दबाने में असफल रहे।

-संथाल विद्रोह (1855-56 ई.)

यह विद्रोह सिद्धू और कान्हू के नेतृत्व में संथाल क्षेत्र के राजमहल पहाड़ियों में हुआ था। इसकी शुरुआत बाहरी लोगों, विशेषकर जमींदारों, पुलिस और साहूकारों के खिलाफ प्रतिक्रिया के रूप में हुई।

-रामोसी विद्रोह (1822-29 ई.)

यह दो चरणों में हुआ-पहला 1822 ई. में चित्तू सिंह के नेतृत्व में ब्रिटिश प्रशासन के नए स्वरूप के विरुद्ध। विद्रोह का दूसरा चरण 1825-26 और 1829 ई. के बीच हुआ।

-मुंडा विद्रोह (1899-1900 ई.)

बिरसा मुंडा के नेतृत्व में रांची के पास छोटानागपुर क्षेत्र में हुआ था । इस विद्रोह को उलगुलान विद्रोह के नाम से भी जाना जाता है, जिसका अर्थ है 'महा हंगामा'।

-जतरा भगत और ताना भगत आंदोलन (1914 ई.)

यह आन्दोलन 1914 ई. में जतरा भगत द्वारा शुरू किया गया था। यह एकेश्वरवाद, मांस, मदिरा और आदिवासी नृत्य से परहेज के लिए एक आंदोलन था। जतरा भगत और ताना भगत आंदोलनों ने उपनिवेशवाद-विरोध और आंतरिक सुधार दोनों पर जोर दिया।

भारत में आदिवासी विद्रोह सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक कारणों से हुआ, विशेष रूप से उनकी भूमि के अधिग्रहण के विरुद्ध तथा वन संसाधनों पर उनके अधिकार के लिए किए गए थे।

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Kishan Kumar
Kishan Kumar

Senior content writer

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