विश्व हिंदी दिवस: शर्म नहीं शक्ति है हिंदी

जब देश और दुनिया की तमाम बड़ी कंपनियां हिंदी को अपने असीमित बाजार के रूप में देख रही हैं, तब हम क्यों खुद ही अपनी हिंदी की शक्ति को नहीं समझ पा रहे हैं। क्या सिर्फ हिंदी भाषी क्षेत्र में पैदा होने और पलने-बढ़ने से ही अच्छी हिंदी आ जाती है। हम क्यों न इसे बोझिलता और कथित विद्वता से दूर रखते हुए व्यावहारिक रुख अपनाएं और सरल, सहज और बोलचाल की शुद्ध शैली अपनाते हुए इसे जन-जन से जोड़ें और फैलाएं। बेहद अपनत्व वाली अपनी भाषा की ताकत को समझते हुए उसे आगे बढ़ाना क्यों जरूरी है.

Sep 13, 2018, 18:30 IST
Importance of Hindi language for Students
Importance of Hindi language for Students

जब देश और दुनिया की तमाम बड़ी कंपनियां हिंदी को अपने असीमित बाजार के रूप में देख रही हैं, तब हम क्यों खुद ही अपनी हिंदी की शक्ति को नहीं समझ पा रहे हैं। क्या सिर्फ हिंदी भाषी क्षेत्र में पैदा होने और पलने-बढ़ने से ही अच्छी हिंदी जाती है। हम क्यों इसे बोझिलता और कथित विद्वता से दूर रखते हुए व्यावहारिक रुख अपनाएं और सरल, सहज और बोलचाल की शुद्ध शैली अपनाते हुए इसे जन-जन से जोड़ें और फैलाएं। बेहद अपनत्व वाली अपनी भाषा की ताकत को समझते हुए उसे आगे बढ़ाना क्यों जरूरी है, हिंदी दिवस के मौके पर बता रहे हैं अरुण श्रीवास्तव...

हिंदी का बाजार तेजी से बड़ा और व्यापक होता जा रहा है। हम हिंदी भाषियों से कहीं ज्यादा इसे देश और दुनिया की तमाम कंपनियां समझ रही हैं। विश्वास न हो तो आप खुद ट्विटर, वाट्सएप, फेसबुक, यूट्यूब, ब्लॉग्स, किंडल आदि का सर्वे कर लें, आपको सब जगह हिंदी देखकर आसानी से समझ में आ जाएगा। विडंबना यह है कि हिंदी क्षेत्र में रहने के बावजूद हिंदी भाषा-भाषी लोग खुद ही कालिदास की तरह अपनी भाषा को क्षति पहुंचाने पर तुले हैं। हिंदी पट्टी के तमाम लोगों को हिंदी बोलने और अपने बच्चों को हिंदी का संस्कार देने में शर्म महसूस होती है। इतना ही नहीं, हिंदी के नाम पर करोड़ों कमाने वाले बॉलीवुड के ज्यादातर सेलिब्रिटी भी आम बोलचाल में हिंदी की बजाय अंग्रेजी का प्रयोग करके खुद के रईस और बुद्धिजीवी होने का दिखावा करते हैं। हम अपनी भाषा हिंदी को भले ही दोयम दर्जे का समझें, लेकिन कामकाज के सिलसिले में भारत आये और भारतीय संस्कृति से प्रभावित होकर यहीं बस जाने वाले तमाम ऐसे विदेशी हमें मिलेंगे-दिखेंगे, जो बेहिचक हमसे कहीं अधिक अच्छी हिंदी बोलते हैं। इनमें भारत को अपना घर और हिंदी को अपनी भाषा स्वीकार कर लेने वाले फादर कामिल बुल्के का नाम हममें से हर किसी को याद होगा, जिनके द्वारा तैयार किया गया अंग्रेजी-हिंदी कोश आज भी लोकप्रिय है। आज भी ऐसे तमाम विदेशी देश में हैं। क्या उन्हें ऐसा करते देखकर भी हमें अपनी हिंदी पर शर्म आती है? दुनिया के ज्यादातर देश अपनी भाषा पर गर्व करते हैं। विदेश से उनके यहां कोई प्रतिनिधिमंडल आए या वे खुद किसी देश की यात्रा पर जाएं, वे अपनी भाषा में ही बात करना पसंद करते हैं और ऐसा करते हुए उन्हें कोई शर्म नहीं महसूस होती।

घातक है अतिआत्मविश्वास

हिंदी क्षेत्र के ज्यादातर लोग आमतौर पर यह मानकर चलते हैं कि चूंकि उनकी मातृभाषा हिंदी है, इसलिए उन्हंर इसे पढ़ने-समझने पर ज्यादा मेहनत करने की जरूरत नहीं है। अक्सर वे इस आत्मविश्वास के शिकार होते हैं कि हिंदी तो उन्हें आती ही है। पर लेखकों, साहित्यकारों, सचेत पत्रकारों, शिक्षकों आदि को छोड़ दें, तो बहुत कम हिंदी भाषी ऐसे मिलेंगे जो अपनी इस भाषा में पूरी तरह शुद्ध लिख सकें। हिंदी से लगाव रखने वालों को तब बहुत बुरा लगता है, जब हिंदी पट्टी में ही उन्हें बेहद अशुद्ध तरीके से लिखा किसी दुकान या कार्यालय का बोर्ड दिख जाता है। इतना ही नहीं, इन दिनों तमाम प्रकाशन संस्थानों, मीडिया हाउसेज को जगह होने के बावजूद अच्छी हिंदी जानने वालों की तलाश में अच्छी-खासी मशक्कत करनी पड़ रही है। इसके बावजूद उन्हें पर्याप्त संख्या में कुशल और काम में माहिर लोग नहीं मिल पा रहे हैं। यह स्थिति तब है, जब हमारे यहां डिप्लोमा और डिग्री कोर्स करने वाले संस्थानों की संख्या लगातार बढ़ रही है और उनके यहां से हर साल बच्चे भी उत्तीर्ण होकर निकल रहे हैं। फिर ऐसा क्या है, जिसकी वजह से डिग्री रखने वाले सभी युवा अच्छी हिंदी नहीं लिख पाते।

अनदेखी पड़ रही भारी

दरअसल, ज्यादातर स्कूलों-कॉलेजों-संस्थानों में आज भी किताबी पढ़ाई पर कहीं ज्यादा जोर है। संस्थानों का लक्ष्य विद्यार्थियों को परीक्षा उत्तीर्ण कराना होता है, न कि जीवन और करियर की परीक्षा में सफल कराना। उन्हें अपनी भाषा में मौलिक रूप से सोचने और मनपसंद दिशा में बढ़ने के लिए प्रेरित ही नहीं किया जाता। इसके लिए जितना दोष शिक्षकों का है, उतना ही दोष विद्यार्थियों और उनके माता-पिता का भी है। आज इस बात पर हर किसी को ध्यान देने की जरूरत है कि हिंदी भाषा में सोचकर भी नवप्रवर्तन किया जा सकता है। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि हम अपनी भाषा पर आत्ममुग्ध होने की बजाय इस पर अपनी अच्छी पकड़ बनाने की कोशिश करें। हिंदी भाषा की अपनी कमजोरियां तलाशकर उन्हें दूर करने पर ध्यान दें।

सरलता-सहजता पर हो जोर

हिंदी भाषा पर अपनी पकड़ मजबूत बनाने का यह मतलब कतई नहीं है कि हम अपनी बातचीत और लेखन में क्लिष्ट-कठिन शब्दों का प्रयोग करने लगें। इससे तो हम अपनी भाषा से किसी को भी प्रभावित नहीं कर सकेंगे। इसके विपरीत क्लिष्ट-बोझिल भाषा का उपयोग करके हम दूसरों को इससे विमुख होने का रास्ता ही दिखाएंगे। किसी भी भाषा का मतलब है संवाद स्थापित करना। चाहे वह लिखित भाषा हो या मौखिक। हमारी भाषा अगर सरल-सहज होगी, तभी वह सामने वाले को प्रभावित कर सकेगी। मुझे लगता है कि सरल-सहज बोलना और लिखना भी एक कला है और थोड़े से अभ्यास से इस कला में आसानी से पारंगत हुआ जा सकता है। इसके लिए अपनी दिनचर्या में सरल-सहज शब्दों को शामिल करें।

हो भाषा की कट्टरता

अपनी भाषा से लगाव रखने का मतलब यह नहीं है कि हम दूसरी भाषाओं का सम्मान न करें। अगर आप सजग दक्षिण भारतीय लोगों पर गौर करें, तो पाएंगे कि उनमें से अधिकतर लोग दक्षिण की चार प्रमुख भाषाएं (तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम) जानने के अलावा अंग्रेजी और हिंदी भी जानते हैं। तमाम यूरोपवासी भी अपनी भाषा पर अच्छी पकड़ रखते हुए दूसरी भाषाएं सीखने को उत्सुक रहते हैं। फिर हम ही क्यों पीछे रहें। अपनी हिंदी को मजबूत रखने के साथ-साथ हम अपने देश की दूसरी भाषाओं के साथ-साथ अंग्रेजी को भी स्वीकार करें। उन्हें शौक से सीखें। ऐसा करने से हमारी महत्ता ही बढ़ेगी। हम समय के साथ कदम मिलाकर चल सकेंगे। देश की दूसरी भाषाओं का साहित्य और संस्कृति काफी समृद्ध है। दूसरी भाषा को सीखकर हम उसके दुर्लभ साहित्य का हिंदी में अनुवाद और हिंदी-संस्कृति से उस भाषा में अनुवाद करके अपनी गौरवपूर्ण विरासत को आगे बढ़ा सकते हैं। कुछ गिने-चुने लोग ऐसा कर भी रहे हैं। लेकिन इसमें काफी संभावनाएं हैं।

पकड़ें बाजार की नब्ज

अमेजन, वॉलमार्ट जैसी कंपनियों के अलावा दुनिया की तमाम कंपनियां हमारे देश में अपने पांव तेजी से पसारना चाहती हैं। चूंकि हिंदीभाषियों की आबादी काफी है, इसलिए इन कंपनियों को हिंदी भाषा के अच्छे जानकार लोगों की आगे लगातार जरूरत होगी। लेकिन इस अवसर को पकड़ने के लिए आपको कथित कट्टरता से बाहर निकलते हुए अंग्रेजी और दूसरी भाषाओं पर भी अपनी पकड़ बनानी होगी। ऐसा करने से आप न केवल हिंदी को आगे बढ़ाने में मदद करेंगे, बल्कि भावी पीढ़ी भी आपसे प्रेरित होकर अपनी हिंदी को अपनाएगी और उससे प्यार करेगी। हिंदी के साथ यह अटूट रिश्ता तो बनाएं।

Dainik Jagran
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Content Writer

Gaurav Kumar is an education industry professional with 10+ years of experience in teaching, aptitude training and test prep. He’s a graduate in Computer Science, postgraduate in Yoga Therapy and has previously worked with organizations like Galgotia College of Engineering and The Manya Group. At jagranjosh.com, he writes and manages content development for School and General Knowledge sections. He can be reached at gaurav.kumar@jagrannewmedia.com

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