UP Board Class 10 Science Notes :control and coordination in plants and animal Part-II

Nov 29, 2017, 15:59 IST

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UP Board class 10 science notes
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जिबरेलिन्स (Gibberellins) :

जिबरेलिन्स की खोज कुरोसावा (Kurosawa) नामक वैज्ञानिक ने सन् 1926 ई. में की थी।

याबुता तथा सूमिकी (Yabuta and Sumiki) ने इसे जिबरेला फूजीकुरोई (Gibberella fujikuroi) नामक कवक से प्राप्त किया था। इनके प्रभाव से तने के पर्व (internodes) लम्बे होते हैं।

उपयोग (Application) :

जिबरेलिंस निम्नलिखित जैविक क्रियाओं को प्रभावित करते हैं-

(1) कोशिका दीर्घीकरण (cell elongation) को प्रेरित करते हैं।

(2) अनिषेकफलन (parthenocarpy) - बिना निषेचन के ही अणडाशय से बीजरहित फल का विकास हो जाता हैं।

(3) कैम्बियम की सक्रियता को बढ़ा देते है जिससे पौधे की मोटाई में वृद्धि होती हैं।

(4) बोल्टिग प्रभाव (Bolting effect) - इसके द्वारा द्विवर्षी पौधे एकवर्षी हो जाते हैं। आनुवंशिक रूप से नाटे पौधे लम्बे हो जाते हैं।

(5) प्रसुप्ति (dormancy) भंग करना तथा बीजों में अंकुरण को बढाना।

(6) अंगूरों का आकार एवं गुच्छों की लम्बाई बढ़ाने में भी जिबरेलिन्स प्रयोग में लाए जाते हैं।

(7) पुष्प एवं फलों के विकास में जिबरेलिन्स सहायक होते हैं।

साइटोकाइनिन्स (Cytokinins) :

पौधों में ऐसे महत्वपूर्ण यौगिक पाए जाते है जो कोशिका विभाजन को प्रेरित करते हैं। इनमें सबसे प्रमुख पदार्थ काइनेटिन (kinetin) समझा जाता है। अब तो ऐसे पदार्थ ज्ञात हो चुके है जो काइनेटिन की तरह न्यूक्लिक अम्लों के अपघटन से बनते है तथा काइनेटिन समूह के ही यौगिक होते हैं। इस समूह के पदार्थों को ही जो काइनेटिन की तरह कार्य करने है, साइटोकाइनिन्स (cytokinins) कहा जाता है। काइनेटिन तथा जिएटिन (zeatin) नामक रसायन साइटोकाइनिन्स का कार्य करते हैं! साइटोंकाइनिन्स प्राकृतिक रूप से आक्सिन के साथ मिलकर उत्तक विभेदन को प्रभावित करते हैं।

 वृद्धिरोधक (growth Inhibitors) :

ये आँक्सिन तथा जिबरेलिन्स के प्रभाव को नष्ट या अवरोधित करते हैं। ये वृद्धि का संदमन करते हैं। पौधों में प्रसुप्तावस्था (dormancy) तथा जीर्णावस्था को प्रेरित करते हैं; जैसे ऐबसीसिक अम्ल या टरपोलाइनिक अम्ल (terpolinec aicd)। कुछ वृद्धिरोधक जैसे सोलेनिडीन (solanidine) आलू के कन्दों में कलिकाओं के प्रस्फुटन को रोकता हैं।

एथिलीन (Ethylene) :

यह एक गैसीय पादप हार्मोन है जो सामान्यतया वृद्धिरोधक का कार्य करता हैं। यह पौधों में पुष्पन को प्राय कम करता हैं। यह अनन्नास (pineapple) में पुष्पन को तीव्र करता हैं। यह विगलन को प्रेरित करने वाला हॉर्मोन हैं। यह मुख्य रूप से फलों को पकाने में सहायक होता हैं।

अन्त: स्रावी ग्रन्थियाँ (endocrine glands) - शरीर में पाई जाने वाली नलिकाविहीन ग्रन्थियाँ होती हैं। इनसे हॉमोंन्स (hormones) स्त्रावित होते हैं। हार्मोन्स का वितरण रक्त द्वारा होता हैं। ये शरीर के अन्त: वातावरण र्का स्थिर बनाए रखने में एवं जैविक क्रियाओं के संचालन में महत्वपूर्ण कार्य  करती|

अधिवृक्क या एड्रीनल ग्रन्थि की स्थिति तथा कार्य(Position and Functions of Adrenal gland) :

स्थिति - वृक्को के ऊपरी भाग से लगी टोपी सदृश्य रचना में एक-एक ग्रन्थि होती है जिन्हें अधिवृक्क (adrenal) ग्रन्थियाँ कहते हैं। प्रत्येक ग्रन्थि के दो भाग होते हैं - बाहरी भाग वल्कुट या कॉंर्टेंक्स (cortex) तथा भीतरी भाग म्ध्यांश या मेडयुला (medulla) कहलाता हैं।

अधिवृक्क ग्रन्थि के वल्कुट से ग्लुकोकार्टीकोएडस (glucocorticoids), मीनरेलोकार्टीकोएडस  (mineralocortiooids) तथा एड्रीनल लिग हॉर्मोन्स (sex hormones) स्त्रावित होते हैं।

कार्य - एड्रीनल ग्रन्थि के वल्कुट से स्त्रावित हार्मोन्स भोजन उपापचय, जल एवं खनिज सन्तुलन, रक्त दाब नियमन, पेशियों तथा जननागों आदि का उचित विकास करने में सहायक होते है।

एड्रिनल हार्मोन्स के अतिस्त्रावण से निम्नलिखित रोग हो जाते हैं-

1. कुशिंग रोग (Cushing’s disease) – यह रोग ग्लुकोकार्टीकाएड्स तथा मिनरेलोकॉर्टिकाँएड्स की अधिकता से होता है। इसके फलस्वरूप वक्ष भाग में वसा का असामान्य जमाव हो जाता है। प्रोटीन अपचयन बढ जाता है। पेशियों शिथिल हो जाती हैं। शरीर में जल तथा सोडियम का जमाव अधिक हो जाता है। रक्त दाब बढ़ जाता है।

2. एड्रीनल विरिलिज्म (Adrenal Virilism) - नर लिंग स्टेरॉएड का अधिक स्त्राव होने से स्त्रियों में पुरुषोचित लक्षण उत्पन्न होने लगते है, जैसे - आवाज भारी हो जाना, चेहरे पर दाढी- मूछ का उग आना आदि। लड़को में बाल्यावस्था में नर लिग हार्मोन्स की अधिकता से समय से पूर्व लैंगिक परिपक्वन हो जाता है।

3. हाइपरग्लाइसीमिया (Hyperglycemia) - एड्रीनल हॉर्मोन की अधिकता से रक्त में शर्करा की मात्रा बढ़ जाती है।

थायराक्तिन हॉर्मोन की कमी से होने वाला रोग :

1. जड़वामनता या क्रिटिनिज्म (Cretinism) - बाल्यावस्था में थायराक्सिं की कमी से शरीर की समस्त उपापचयी क्रियाएँ मन्द पढ़ जाती है, त्वचा मोटी तथा झुर्रीदार हो जाती है। शरीर की वृद्धि नहीं होती, मानसिक विकास भली भाँति नहीं हो पता तथा जननांग अल्पविकसित होते है। ऐसे बच्चे अल्प-बृद्धि वाले बौने रह जाते है।

2. मिक्सीडिमा (myxoedema) – वयस्क अवस्था में थाय्राक्सिन का अल्पस्त्रावण  होने से मिक्सीडीमा (myxoedema) रोग हो जाता है| इसमें शरीर का विकास तो सामान्य होता है, लेकिन समय से पूर्व बुढापे के लक्ष्ण प्रदर्शित होते हैं| मास्पेशियाँ शिथिल हो जाती है, जनन क्षमता कम हो जाती है|

3. घेंघा (Simple Goiter) – थाइराइड ग्रन्थि से हार्मोन्स की उचित मात्रा स्त्रावित न होने से ग्रन्थि रोग को नियन्त्रित किया जा सकता है|

थायराक्सिं हार्मोन्स की अधिकता से होने वाला रोग:

एक्सोफ्थेलिम्क ग्वायटर (Exohthalmic goiter) – थायराक्सिं के अतिस्त्रावण  से उपापचयी  क्रियाएँ तीव्र हो जाती हैं, अनावश्यक उर्जा के करण थकान अनुभव होती है| नेत्र उभर आते है| नेत्रों के पीछे श्लेष्म एकत्र हो जाने से नेत्र नेत्र गोलक उभरकर बाहर की ओर उठ जाते हैं| इस रोग को एक्सोफ्थेलिम्क ग्वायटर कहते हैं|

अग्नाशय (Pancreas) :

अग्नाशय (pancreas) एक मिश्रित ग्रन्थि है| इसके अग्नाशयिक पिण्डकों से अग्नाशयिक पाचक रस स्त्रावित होता है| यह ग्रन्थि का बहि:स्त्रावी (exocrine) भाग होता है| अग्न्याशिक पिण्डकों के बीच-बीच में कुछ विशेष प्रकार की कोशिकाओं के समूह होने के कारण यह एक: स्त्रावी ग्रन्थि (endocrine gland) भी है| इस कारण अग्नाशय को मिश्रित ग्रन्थि कहते हैं| इन कोशिकाओं के समूहों को लैंगरहैन्स के द्वीप (islets of Langerhans) कहते है| इसमें तीन प्रकार की कोशिकाएँ a-कोशिकाएँ , b-कोशिकाएँ तथा डेल्टा कोशिकाएँ होती हैं| a तथा b-कोशिकाओं से क्रमश: ग्लुकैगान (glucagon) तथा इन्सुलिन (insulin) नामक हार्मोन्स बनते हैं, जो शरीर में कार्बोहाइड्रेट उपापचय (carbohydrate metabolism) पर नियन्त्रण रखते हैं|

इन्सुलिन के कार्य (Function of Insulin) – रक्त में शर्करा की मात्रा लगभग 0.1% होती है| यह आवश्यकता से अधिक ग्लूकोस से ग्लाइकोजन स्न्श्लेष्ण एवं संचय को प्रेरित करता है| 

मधुमेह (Diabetes) – इन्सुलिन के अल्पस्त्रावण के कारण शरीर की कोशिकाएँ रक्त शर्करा का उपयोग नहीं कर पातीं , इस कारण रक्त में शर्करा की मात्रा बढ़ जाती है| अधिक मूत्र स्त्रावण के कारण निर्जलीकरण (dehydration) होने लगता है| वसाओं के अधिक उपयोग के कारण विषैले किटोनकाय (ketonc bodies) बनने लगते हैं|

हाइपोगलाईसिमिया (Hypoglycemia) – इन्सुलिन के अतिस्त्रावण के कारण शरीर की कोशिकाएँ रक्त में अधिक मात्रा में ग्लूकोस लेने लगती हैं, जिससे तंत्रिका कोशिकाओं को शर्करा कम मात्रा में उपलब्ध होती है, इससे थकावट तथा ऐठन महसूस होती है|

ग्लुकैगान का कार्य (Function of Glucagon) – यह आवश्यकता पड़ने पर संचित ग्लाइकोजन को रक्त शर्करा में बदलने के लिए प्रेरित करता है|

हार्मोन (Harmone) :

अन्त: स्त्रावी ग्रन्थियों द्वारा स्त्रावित विशिष्ट रासायनिक पदार्थ, जिनके द्वारा जीवधारी के शरीर में रासायनिक समन्वयन होता है, हार्मोन कहलाते है| हार्मोन के विशिष्ट लक्ष्ण निम्नलिखित हैं-

(1) रासायनिक रूप में हार्मोन्स प्रोटीन, स्टेराएड या ऐमीनो अम्ल होते हैं|

(2) हार्मोन कम अणु भार वाले (low molecular weight) एवं जल में घुलनशील अणु होते हैं|

(3) हार्मोन्स की केवल थोड़ी-सी मात्रा ही उनकी क्रिया के लिए पर्याप्त होती है|

(4) सभी हार्मोन् कोशा कला के आर-पार जा सकते हैं|

(5) एक विशिष्ट हार्मोन् विशिष्ट अंग या कोशिकाओं पर ही प्रभाव डालता है जिसे लक्ष्य कोशिकाएँ (target cells) कहते हैं| इस प्रक्रिया को अंग विशिष्टता (organ specificity) कहते हैं|

(6) हार्मोन शरीर में संचित नहीं होते हैं; अत: इनका स्न्श्लेष्ण शरीर में निरन्तर होता रहता है|

हॉर्मोन तथा एन्जाइम में अन्तर (Differences between Hormones and Enzymes) :

क्र.सं.

हार्मोन्स (Hormones)

एन्जाइम (Enzymes)

1.

 

 

2.

 

3.

 

 

 

 

4.

 

5.

 

 

 

 

रासायनिक स्वभाव में ये प्रोटीन्स, प्रोप्टोन्स, पेप्टाइडस, ऐमीनो अम्ल, स्टेराएडस अथवा इनके व्युत्पन्न होते हैं|

इनका आणविक भार कम होता है।

 

इनका उत्पादन तथा स्त्रावण अन्त: स्त्रावी ग्रन्थियों (endocrine glands) के द्वारा होता हैं| ये रुधिर के माध्यम से अपने कार्यकारी अंग में पहुँचते हैं|

 

ये रासायनिक क्रियाओं के बाद विघटित क्रियाओं के बाद विघटित (decompose) हो जाते हैं तथा इनका पुन: उपयोग नहीं किया जाता है|

ये उपापचयी क्रियाओं में सीधे भाग नहीं लेते हैं|

रासायनिक स्वभाव में ये कोलाइडी प्रोटीन्स (proteins) ही होते हैं|

 

इनका आण्विक भार बहुत अधिक होता है|

 

इनका उत्पादन तथा स्त्रावण बाह्यस्त्रावी ग्रन्थियों (exocrine glands) के द्वारा होता है तथा प्राय: नालिकाओं द्वारा कार्य स्थल पर पहुचाएं जाते हैं अन्यथा उसी स्थान पर कार्य करते हैं|

 

ये रासायनिक क्रियाओं के पश्चात पूर्ववत (as before) बचे रहते हैं; अत; इनका पुन; प्रयोग किया जाता है|

 

ये रासायनिक क्रियाओं में सीधे भाग तो नहीं लेते, किन्तु उन्हें उत्प्रेरित (catalyze) करते हैं|

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Education Desk

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