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The main topic cover in this article is given below :
जैव विकास (Organic Evolution) :
जैव विकास धीमी गति से होने वाला वह क्रमिक परिवर्तन है, जिसके परिणामस्वरूप प्राचीनकाल के सरल जीवों (जन्तु तथा पौधों) से वर्तमान युग के जटिल जीवों की उत्पति हुई है|
यह एक ऐसा प्रक्रम है, जो निरन्तर चलता रहता है| इसके कारण जन्तुओं एवं पौधों की नई-नई जातियों की उत्पत्ति होती रहती है|
डार्विनवाद (Darwinism) :
चार्ल्स राबर्ट डार्विन (Charles Robert Darwin, 1809-1882) ब्रिटेन का प्रसिद्ध प्रकृतिवादी वैज्ञानिक (naturalist) था जिसने लैमार्क के पश्चात जैव विकास के सम्बन्ध में प्राकृतिक वरण (Theory of Natural seclection) सिद्धान्त प्रस्तुत किया| इसे भी कहते हैं|
सन 1831 में जब डार्विन 22 वर्ष के थे, उन्हें एच०एम०एस० बीगल (H.M.S. Begale) नामक जहाज पर यात्रा करने का अवसर प्राप्त हुआ| यात्रा के दौरान उन्होंने विभिन्न देशों के जीव-जन्तुओं एवं उनके जीवाश्मों को देखा और उन्हें एकत्र भी किया|
लैमार्कवाद (Lamarckism) :
जीन बैतिप्स्ट डी लैमार्क (Jean Baptiste de Lamarck, 1744-1829) फ्रांस के एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक थे। लैमार्क प्रथम वैज्ञानिक थे, जिन्होंने जैव विकास की व्याख्या वैज्ञानिक ढंग से की। इन्होंने जैव विकास सम्बन्धी अपने विचारों को फिलोसोफिक जूलोजिक (Philosophic zoologique) नामक पुस्तक में 1809 ईं० में प्रकाशित किया। इनका सिद्धान्त लैमार्कवाद के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
लैमार्कवाद निम्नलिखित तथ्यों पर आधारित है -
1. आकार में वृद्धि को प्रवृत्ति (Tendency to increase in size) - लैमार्क के अनुसार जीवधारियों में (अंगो के आकार में) वृद्धि की प्राकृतिक प्रवृति होती हैं।
2. वातावरण का सीधा प्रभाव (Direct effect of the environment) - जीवधारियों पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से वातावरण का प्रभाव पड़ता है, जिसके परिणामस्वरूप जीवधारी की शारीरिक रचना एवं स्वभाव में निरन्तर परिवर्तन होते रहते हैं।
3. अंगो का उपयोग तथा अनुपयोग (Use and discuse of organs) - वातावरण के अनुसार अधिक उपयोग में आने वाले अंग अधिक विकसित होने लगते हैं। इसके विपरीत, उपयोग में न आने वाले अंग धीरे - धीरे ह्वासित होकर लुप्त हो जाते हैं। कभी - कभी ये अंग अवशेषी अंग (vestigial organ) के रूप में रह जाते हैं।
उत्परिवर्तन (Mutation) :
हालैण्ड के वनस्पतिशास्त्री ह्यूगो डी व्रीज (Hugo de Vrise; 1901) ने विकासवाद के सम्बन्ध में अपना मत प्रकट किया| इसे उत्परिवर्तनवाद कहते हैं| जीवों में कभी – कभी अचानक विशेष लक्षण वाली सन्तानें उत्पन्न हो जाती हैं| जो अपने माता – पिता के लक्षणों से बहुत भिन्न होती हैं| इस प्रकार एक जाति से नई जाति की उत्पत्ति होती है|
ह्यूगो डी व्रीज ने सर्वप्रथम उत्परिवर्तन को ‘सान्ध्य प्रिमरोज’ (Evening primrose: Oenothera lamarckiana) नामक पौधे में देखा| प्रिमरोज के पौधों में कुछ ऐसे पौधे (सन्तान) उत्पन्न हुए जो अपने जनक पौधों से बिलकुल भिन्न थे| ऐसे पौधों को उत्परिवर्ती कहते हैं| इन पौधों को कई पीढ़ियों तक उगाकर देखा गया और पाया गया कि इनकी सन्तानों में भी उत्परिवर्ती पौधों की भांति समान गुण थे| टी० एच० मार्गन (T.H. Morgan) ने भी सन 1909 में फलमक्खी (Fruit fly - Drosophila) में विभिन्न प्रकार के उत्परिवर्तनों का अध्ययन किया था|
UP Board Class 10 Science Notes :activities of life or processes of life Part-V
उत्परिवर्तन के कारण (Reasons for Mutations) :
(1) युग्मक बनते समय क्रोमैटिड्स के स्थानान्तरण, उत्क्रमण, विलोपन तथा आवृति आदि के कारण गुणसूत्र उत्परिवर्तन होता है| गुणसूत्र पर जीन की स्थिति (locus) में परिवर्तन को जीन उत्परिवर्तन तथा गुणसूत्रों की संख्या में परिवर्तन को गुणसूत्र समूह (genomatic) उत्परिवर्तन कहते हैं|
(2) वातावरणीय प्रभाव जैसे रेडियोधर्मी पदार्थों, अन्तरिक्षी किरणों, पराबैंगनी किरणों, ताप अनियमितता आदि कारणों से उत्परिवर्तन होता है|
(3) शरीर की आन्तरिक स्थिति जैसे अनियमित हार्मोन्स – स्त्रावण, उपापचय त्रुटियों आदि के कारण उत्परिवर्तन हो जाते हैं|
(4) विभिन्न रासायनों तथा X – किरणों आदि के प्रभाव से कृत्रिम उत्परिवर्तन हो जाते हैं|
भेकशिशु तथा मछली में समानताएँ (Similarities between Tadpole and Fish) :
1. पानी में तैरने हेतु दोनों में पूंछ (tail) तथा पुच्छ पख (caudal fins) होते हैं|
2. श्वसन हेतु दोनों में गलफड़े या गिल्स (gills) होते हैं तथा ये गिल ढापन द्वारा ढके होते हैं|
3. दोनों में आखों पर निमेषक पटल (nictitating membrane) होती है|
4. दोनों का हृदय द्विवेश्मी होता है|
5. दोनों का शरीर धाररेखित (streamlined) होता है|
6. दोनों शाकाहारी होते हैं|
किसी स्तनी के भ्रूण का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि इसमें गिल्स तथा गिल दरारें पाई जाती हैं| इसका हृदय मछली सदृश द्विश्मी होता है| फिर हृदय उभयचर के समान त्रिवेश्मी, फिर सरीसृपों की तरह अपूर्ण रूप से चार वेश्मी और अन्त में स्तनियों के समान चार वेश्मी हो जाता है| इससे स्पष्ट है कि स्तनियों का विकास मत्स्य जैसे पूर्वजों से हुआ है|
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