भारत के कुटीर उद्योग पर एक संक्षिप्त विवरण

Jul 5, 2018, 17:21 IST

कुटीर उद्योग सामूहिक रूप से उन उद्योगों को कहते हैं जिनमें उत्पाद एवं सेवाओं का सृजन अपने घर में ही किया जाता है न कि किसी कारखाने में। कुटीर उद्योगों में कुशल कारीगरों द्वारा कम पूंजी एवं अधिक कुशलता से अपने हाथों के माध्यम से अपने घरों में वस्तुओं का निर्माण किया जाता है। इस लेख में हमने, भारत के कुटीर उद्योग पर एक संक्षिप्त विवरण दिया है जिसका प्रयोग विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में अध्ययन सामग्री के रूप में किया जा सकता है।

A brief account on the Cottage Industries in India HN
A brief account on the Cottage Industries in India HN

औपनिवेशिक काल के दौरान भारतीय कुटीर उद्योगों तेजी से गिरावट आई थी क्युकी अंग्रेजी सरकार ने बिलकुल भारतीय उद्योगों की कमर तोड़ दी थी जिसके वजह से परम्परागत कारीगरों ने अन्य व्यवसाय अपना लिया था। किन्तु स्वदेशी आन्दोलन के प्रभाव से पुनः कुटीर उद्योगों को बल मिला और वर्तमान में तो कुटीर उद्योग आधुनिक तकनीकी के समानान्तर भूमिका निभा रहे हैं। अब इनमें कुशलता एवं परिश्रम के अतिरिक्त छोटे पैमाने पर मशीनों का भी उपयोग किया जाने लगा है।

कुटीर उद्योग सामूहिक रूप से उन उद्योगों को कहते हैं जिनमें उत्पाद एवं सेवाओं का सृजन अपने घर में ही किया जाता है न कि किसी कारखाने में। कुटीर उद्योगों में कुशल कारीगरों द्वारा कम पूंजी एवं अधिक कुशलता से अपने हाथों के माध्यम से अपने घरों में वस्तुओं का निर्माण किया जाता है। इस प्रकार का उद्योग सामुदायिक विकास कार्यक्रम, गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम और एकीकृत ग्रामीण विकास से जुड़ा हुआ होता है। कुटीर उद्योगों को निम्नलिखित वर्गों में रखा जाता है: (1) ग्रामीण कुटीर उद्योग; और (2) नगरीय कुटीर उद्योग।

भारत के कुटीर उद्योग के प्रसिद्ध केंद्र

गुजरात में दूध आधारित उद्योग, हैंडलूम और पावर लॉम उद्योग, तिलहन उद्योग और खाद्य प्रसंस्करण; राजस्थान में पत्थर काटने, कालीन बनाने और हस्तशिल्प उद्योग; उत्तर प्रदेश में हैंडलूम और पावर लॉम, दूध उत्पाद (मुख्य रूप से तारई क्षेत्र); महानगरों के बाहरी इलाके में खाद्य प्रसंस्करण, हैंडलूम और पावर लॉम, दूध उत्पाद इत्यादि।

1. हैंडलूम

(1) मलमल: मेरठ, मथुरा, मदुरई, वाराणसी, अंबाला  

(2) छिंट: मछलीपट्टनम

(3) दुर्ररी: आगरा, झांसी, अलीगढ़, अंबाला

(4) खादी: अमरोहा, कालीकट, पुणे

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2. रेशम वस्त्र

कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और जम्मू-कश्मीर भारत के रेशम उत्पादक राज्य हैं।

भौगोलिक चिन्‍ह या संकेत (जीआई) के आधार पर भारत में रेशम के प्रकार

(1) चंदेरी रेशम की साड़ी: यह चंदेरी कपास और रेशम से बनाया जाता है। यह मध्य प्रदेश के अशोकनगर जिले चंदेरी में स्थित है। हल्के और चमकदार दिखने वाले चंदेरी रेशम की साड़ियों को भारत में भौगोलिक संकेतों के तहत सूचीबद्ध किया गया है।

(2) बनारसी साड़ी: यह भारत की बेहतरीन साड़ीयो में से एक है जिसको सोने और चांदी की ज़ारी तथा बारीक बुने हुए रेशम से बनाया जाता है। बनारसी की साड़ीयो के चार अलग-अलग प्रकार हैं जिन्हें तंचोई, ऑर्गेंज और कटान के नाम से जाना जाता है। बनारसी साड़ी का मुख्य केंद्र बनारस है। बनारसी साड़ी मुबारकपुर, मऊ, खैराबाद में भी बनाई जाती हैं। यह माना जा सकता है कि यह वस्त्र कला भारत में मुगल बाद्शाहों के आगमन के साथ ही आई। पटका, शेरवानी, पगड़ी, साफा, दुपट्टे, बैड-शीट, मसन्द आदि के बनाने के लिए इस कला का प्रयोग किया जाता था।

(3) असम रेशम: यह मुगा रेशम के नाम से जाना जाता है तथा यह अपनी स्थायित्व के लिए जाना जाता है। असम के मुगा रेशम पारंपरिक असमिया पोशाक मेकेला चोडार और असम रेशम साड़ियों जैसे उत्पादों में उपयोग किया जाता है। इसका उत्पादन असम में होता है और भारत में भौगोलिक संकेतों के तहत सूचीबद्ध भी किया गया है।

(4) संबलपुरी रेशम की साड़ी: संबलपुर, बरगढ़, सोनपुर और बेरहमपुर में बनाया जाता हैनिर्मित हैं और भारत के भौगोलिक संकेतों के तहत सूचीबद्ध भी हैं।

(5) कांचीपुरम रेशम की साड़ी: तमिलनाडु के कांचीपुरम क्षेत्र में बनाया जाता है और ये भारत सरकार द्वारा भौगोलिक संकेत के तहत सूचीबद्ध भी किया गया है।

(6) बालूचरी साड़ी: यह पश्चिम बंगाल के विष्णुपुर व मुर्शिदाबाद में बनती हैं। इन साड़ियों पर महाभारत व रामायण के दृश्यों के अलावा कई अन्य दृश्य कढ़ाई के जरिए उकेरे जाते हैं। देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी इन साड़ियों ने अपनी अलग पहचान कायम की है। यह साड़ी तस्सर रेशम से बनती है तथा इसको बनाने में कम से कम एक सप्ताह का वक्त लगता है। दो लोग मिल कर इसे बनाते हैं।

(7) कोनराड रेशम साड़ी: मंदिर साड़ी के रूप में भी जाना जाता है, जो ज्यादातर मंदिर में लगे देवी-देवताओं के लिए बुना जाता है। कोनराड, मैसूर, कंजीवारम सिल्क, चेतेनाद, गडवाल और पोचंपल्ली साड़ी दक्षिण भारतीय रेशम साड़ियों की सबसे अच्छी पारंपरिक प्रकार है।

(8) पैठणी साड़ी: यह साड़ी भारत में सबसे बहुमूल्य साड़ियों के रूप में मानी जाती है। इस साड़ी का नाम महाराष्ट्र में स्थित औरंगाबाद के पैठण नगर के नाम से रखा गया है, जहाँ इन साड़ियों को हाथों से बनाया जाता है।

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(9) पटौला साड़ी:  पटोला गुजरात मूल की एक प्रकार की रेशमी साड़ी है। यह हथकरघे से बनी एक प्रकार की साड़ी है। इसे दोनों तरफ से बनाया जाता है। यह काफी महीन काम है। पूरी तरह सिल्क से बनी इस साड़ी को वेजिटेबल डाई या फिर कलर डाई किया जाता है। यह काम करीब सात सौ साल पुराना है। हथकरघे से बनी इस साड़ी को बनाने में करीब एक साल लग जाता है। यह साड़ी मार्केट में भी नहीं मिलती।

(10) रेशम रेशम साड़ी: यह शहतूत रेशम द्वारा उत्पादित होता है और कर्नाटक के मैसूर जिले में रेशम के कपड़े में संसाधित होता है।

(11) बोम्काई रेशम की साड़ी को सोनेपुरी साड़ी के नाम से भी जाना जाता है, जो सुबरनपुर जिले में उत्पादित होता है। सबसे लोकप्रिय वस्तुएं सोनीपुरी पाटा, सोनपुर हैंडलूम साड़ी और सोनोपू रेशम साड़ी लोकप्रिय साड़ीयां हैं।

(12) भागलपुर रेशम की साड़ी: बिहार के भागलपुर क्षेत्र, अपने उत्तम भागलपुरी सिल्क की साड़ीयो के लिए मशहूर है। रायगढ़ कोसा रेशम साड़ी और झारखंड टस्सर रेशम साड़ियों का उत्पादन टस्सर रेशम से भी किया जाता है जिसे कोसा रेशम, पतंग की प्रजाति के नाम से जाना जाता है।

3. ऊनी वस्त्र: अमृतसर, धारवाल, लुधियाना, मछलीपट्टनम, श्रीनगर, वारंगल

4. चमड़ा: कानपुर

5. गुड एवं खांडसारी: मेरठ

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भारतीय कुटीर उद्योग के बारे में महत्वपूर्ण तथ्य

1. 1983 मेंरेशम से संबंधित अनुसंधान के उद्देश्य से बेहरमपुर (कोलकाता) में केंद्रीय रेशम प्रौद्योगिकी अनुसंधान संस्थान की स्थापना की गई थी।

2. भारत में चार प्रकार के रेशम का उत्पादन होता है जैसे कि मुल्बेरी, टस्सार, मुंगा और एरी।

3. भारत का 50% से अधिक गुड एवं खांडसारी का उत्पादन केवल उत्तर प्रदेश में होता है।

4. 1948 में कॉटेज उद्योग बोर्ड की स्थापना हुई थी।

5. केंद्रीय सिल्क बोर्ड की स्थापना 1949 में हुई थी।

6. अखिल भारतीय हैंडलूम बोर्ड की स्थापना 1950 में हुई थी।

7. अखिल भारतीय हस्तशिल्प बोर्ड की स्थापना 1953 में हुई थी।

8. अखिल भारतीय खादी और ग्रामोडोग बोर्ड की स्थापना 1954 में हुई थी।

9. 1954 में लघु उद्योग बोर्ड की स्थापना हुई थी।

10. केन्द्रीय बिक्री संगठन की स्थापना 1958 में हुई थी।

भारत की अर्थव्यवस्था और सामाजिक ढाँचे के लिये कुटीर उद्योगों का महत्त्व उतना ही है जितना लघु और बड़े उद्योगों का है। ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित सफल कुटीर उद्योग ग्रामीण युवाओं के शहरों की ओर पलायन को रोकते हैं। स्पष्ट है कि कुटीर उद्योगों के विकास से ही गांधी जी के “गाँव में बसने वाले भारत” का विकास हो पाएगा।

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